तेरे गुजर जाने के बाद | Jokhim Samachar Network

Tuesday, April 23, 2024

Select your Top Menu from wp menus

तेरे गुजर जाने के बाद

सिनेतारिका श्रीदेवी की अंतिम यात्रा पर उमड़ने वाली भीड़ की तुलना एक शहीद सैनिक के प्रति उठने वाले सम्मान व आदर के भाव से करना अशोभनीय
पदम् श्री से सम्मानित सिनेतारिका श्रीदेवी की दुबई में एक होटल में बाथटब में डूबने से हुई मृत्यु के बाद उनकी अंत्येष्टि पर उन्हें दिया गया राजकीय सम्मान व्यापक जनचर्चाओं का विषय है और भाजपा की संघी विचारधारा के समर्थकों का एक बड़ा तबका सरकार के इस फैसले से खुश नहीं बताया जाता लेकिन अपने निर्णयों में किसी भी तरह के सुझाव अथवा हस्तक्षेप की संभावनाओं को हमेशा से ही नकारने वाली केन्द्र की भाजपा सरकार व उसके नेता नरेन्द्र मोदी ने इस विषय पर किसी भी तरह की टिप्पणी करना या फिर सफाई प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं समझते क्योंकि उन्हें यह अंदाजा आ चुका है कि अपनी चुनावी जीत के परचम को यूं ही लहराये रखने के लिए उन्हें कार्यकर्ताओं या फिर समर्थकों की भावनाओं का सम्मान करना आवश्यक नहीं है और न ही इन छोटे-छोटे मुद्दों को तूल दिए जाने की वजह से चुनावी समीकरणों पर कोई खास प्रभाव ही पड़ता है। हालांकि यह अभी स्पष्ट नहीं हुआ है कि श्रीदेवी की आकस्मिक मृत्यु के पीछे क्या राज है या फिर उनके साथ हुई इस दुर्घटना में उनके द्वारा पी गयी बतायी जा रही शराब का कितना हाथ है लेकिन तथाकथित रूप से हिन्दुत्ववाद की समर्थक बतायी जा रही विचारधारा मृत्यु के वक्त श्रीदेवी द्वारा शराब पी होने की खबरों से आहत बतायी जा रही है और समाचारों के आदान-प्रदान के तमाम सशक्त माध्यमों के सहयोग से यह तथ्य बार-बार सामने लाने की कोशिश की जा रही है कि सीमाओं पर लड़ते हुए अपनी जान देने वाले अथवा आतंकवादी मुठभेड़ों में शहीद हो जाने वाले वीर सैनिकों के बलिदान की खबरों से एक रस्मी अंदाज में अपना पीछा छुड़ाने वाला इलैक्ट्राॅनिक मीडिया किस प्रकार लगातार तीन दिन तक अपने तमाम समाचारों का दायरा श्रीदेवी के इर्द-गिर्द रख जनसामान्य को पथभ्रष्ट बनाने में जुटा है। यह ठीक है कि उपभोक्तावाद के वर्तमान दौर में उच्च वर्ग से जुड़े परिवारों में शराब का खुलेआम सेवन गलत नहीं माना जाता और महिला सशक्तिकरण के इस दौर में हर कदम पर पुरूषों को चुनौती देती महिलाओं के एक बड़े वर्ग ने भी सिगरेट व शराब जैसे तमाम मादक पदार्थों को अपने शौक व आजादी के प्रदर्शन का जरिया बना रखा है लेकिन तथाकथित रूप से धर्म एवं मर्यादाओं की ठेकेदारी करने वाले कुछ लोग यह मानकर चलते हैं कि यह सब कुछ भारतीय मान-मर्यादाओं व परम्पराओं के अनुकूल नहीं है और श्रीदेवी के संदर्भ में मृत्यु से पूर्व हुए इस बड़े खुलासे के बावजूद उन्हें इस तरह का सरकारी मान-सम्मान दिया जाना भाजपा की नीतियों के विरूद्ध है। यह माना जा सकता है कि सीमा पर शहादत देने वाला सेना का जवान अपने फर्ज को सही तरीके से अंजाम देने के बावजूद वह लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाता जो फिल्मी पर्दे पर उसके अभिनय को अमलीजामा पहनाने वाला एक नामी-गिरामी कलाकार आसानी से हासिल कर लेता है और एक फौजी जवान की शहादत आम आदमी के दिलों में सम्मान व जुनून का एक जज्बा पैदा करने में कामयाबी हासिल करने के बावजूद यादगार मिसाल के तौर पर कायम रहने में नाकामयाब रहती है जबकि किक्रेट जैसे खेल के जरिये मिलने वाली जीत या हार पड़ोसी मुल्क के साथ हमारे बेहतर संबंधों की पटकथा को स्पष्ट रूप से उजागर करते हुए खिलाड़ी को करोड़पति या अरबपति बना देती है। सवाल सिर्फ लोकप्रियता का ही नहीं है बल्कि सच को अपनी आंखों से देखने व ज्यादा नजदीक से महसूस करने का है और हम यह स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि एक सामान्य व्यक्ति चलचित्र को पर्दे पर चलता हुआ देख उसके नायक को स्वयं के नजदीक ही महसूस नहीं करता बल्कि खुद को नायक के स्थान पर देखने लगता है तथा ठीक इसी प्रकार किक्रेट मैच की स्थिति में भी रेडियो या टेलीविजन के माध्यम से यह रोमांच आसानी से महसूस किया जा सकता है जबकि सीमा पर होने वाली शहादत या आतंकी हमले की स्थिति में सम्पूर्ण घटनाक्रम आम आदमी की आंखों से दूर होता है और शहीद सैनिक के शव से जुड़ने वाली जनसामान्य की संवेदनाएं ज्यादा देर टिकी नहीं रह पाती। हालांकि वीर जवानों की शहादत को नकारा नहीं जा सकता और न ही यह माना जा सकता है कि किक्रेट जैसे खेलों में बेहतर प्रदर्शन या फिर किस्से कहानियों और फिल्मी पर्दे पर शौर्य भरे चलचित्रों के माध्यम से हम अपने देश की सीमाओं को सुरक्षित रख सकते हैं लेकिन इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि आम आदमी को अपनी ऊब भरी भागमभाग वाली जिंदगी के बीच फुर्सत भरे अंतराल में मनोरंजन व आमोद-प्रमोद की आवश्यकता होती है और यह मनोरंजन उसे युद्ध के माध्यम से नहीं बल्कि फिल्मी दुनिया के रूपहले पर्दे या खेलों के माध्यम से मिलता है। शायद यही वजह है कि एक सामान्य आदमी अपनी असल जिंदगी में अपनी रक्षा के लिए जान की बाजी लगा देने वाले फौजी जवान की शहादत से कहीं ज्यादा तवज्जो एक किक्रेट खिलाड़ी या फिर सिनेतारिका से जुड़ी खबरों को देता है और लिखे व रटे गए डायलाॅग के जरिये आम आदमी के दिलों पर राज करने वाले यह तमाम हीरो-हीरोइन लगभग हर मोर्चे पर ‘रियल लाइफ’ हीरो पर हावी पड़ते नजर आते हैं। यह एक बड़ा सवाल है कि सरकारी तंत्र अपने तमाम फैसलों या आयोजनों में इन रूपहले पर्दे के कलाकारों व खिलाड़ियों को सैनिकों से ज्यादा तवज्जो देता क्यों प्रतीत होता है और हमारे भारतीय परिवेश में शहीद सैनिकों को उनकी शहादत पर भी पर्याप्त सम्मान न मिलने या फिर उनके परिजनों की अनदेखी किए जाने के आरोप सरकारी तंत्र पर क्यों लगते रहते हैं। अगर बात की गहराईयों में जाएं तो इसके पीछे जनमत को आकर्षित करने का अंकशास्त्र ही हावी दिखता है और चुनावी सभाओं या विभिन्न आयोजनों के दौरान फिल्मी हस्तियों व खिलाड़ियों के नाम पर जुटने वाली भीड़ इस बात की गवाही देती प्रतीत होती है कि भारतीय मतदाता अपने सामान्य जनजीवन में युद्ध की खबरों या फिर आतंकी कार्यवाहियों की अपेक्षाकृत मनोरंजन व ऐशोआराम को ज्यादा तवज्जो देता है। अगर अर्थशास्त्र के नजरिये से देखें तो फिल्मों, विज्ञापन या फिर खेल के जरिए सरकार को भारी राजस्व की प्राप्ति होती है और समाज के एक बड़े हिस्से के बीच आवश्यक बुराई के रूप में जानी जाने वाली शराब तो सरकारी कामकाज के लिए आवश्यक खर्च जुटाने में सरकारी तंत्र के सबसे बड़े सहयोगी की भूमिका अदा करती है। इसलिए कोई भी व्यवस्था चाहकर भी समाज के इन अंगों को अनदेखा करने का साहस नहीं जुटा पाती और थोड़े बहुत फेरबदल के बाद इन तमाम परिपेक्ष्यों में सभी सरकारों की कार्यशैली व निर्णयों में समानता महसूस की जा सकती है। इसके ठीक विपरीत देश की सुरक्षा व आम आदमी की रक्षा के लिए अपना अहम् योगदान देने वाली सेना सम्मान व लोकप्रियता से जुड़े तमाम महत्वपूर्ण विषयों पर पीछे छूट गयी प्रतीत होती है और श्रीदेवी जैसी महान हस्ती के निधन जैसे अवसरों पर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि मानो देश की जनता व सरकार ने अपनी प्राथमिकताएं बदल दी हों लेकिन वास्तव में इसे पूर्ण सत्य अथवा सत्ता के नजदीक नहीं माना जा सकता और न ही किसी व्यक्ति विशेष को अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़ी भीड़ को आधार बनाकर यह घोषणा की जा सकती है कि किसी देश या समाज में राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले वीर सैनिकों का सम्मान नहीं है। यह सत्य है कि तेजी से उदारवादी अर्थव्यवस्था को अंगीकार कर रहे हमारे देश में भी नयी पीढ़ी का रूझान सेना में शामिल होकर अपनी वीरता का जौहर प्रदर्शित करने के स्थान पर फिल्मों के रूपहले पर्दे में काम करने या फिर खेल को अपने रोजगार का जरिया बनाने की ओर बढ़ता जा रहा है तथा अपने स्वास्थ्य व जिस्मानी ताकत को महफूज रखने के प्रति लापरवाह युवाओं में ऐसे लोगों की संख्या लगातार कम होती जा रही है जो देश सेवा के रूप में सेना में शामिल होकर इसे अपनी आय का जरिया बनाने की दिशा में गंभीर रूप से प्रयासरत् दिखे लेकिन इसके लिए फिल्में अथवा खेल दोषी नहीं है बल्कि सेना में शामिल होने वाले जवानों को दिया जाने वाला न्यूनतम् वेतन तथा सरकारी मशीनरी में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण सैनिकों को मिलने वाली अहम् सुविधाओं में होने वाली कटौती इसके लिए महत्वपूर्ण रूप से जिम्मेदार है और अगर हम वाकई अपने सैनिकों को सम्मान देना चाहते हैं तो हमें देश के वीर जवानों व शहीद सैनिकों को सम्मान प्राप्ति की होड़ में फिल्मों के रूपहले पर्दे के नायक-नायिकाओं अथवा खिलाड़ियों के मुकाबले खड़ा करने की जगह उन तमाम आर्थिक कारणों पर विचार करना होगा जिनके चलते देश की सीमाओं की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने वाला कोई भी सैनिक अपनी शहादत के मौके पर अपने आश्रितों के जीवन यापन को लेकर चिंतित नजर न आये। अफसोसजनक है कि सेना के सम्मान में इन तमाम विषयों को उठाने की जगह हम शहीद सैनिक की अकाल मृत्यु अथवा शहादत के अवसर पर चंदा कर पीड़ित परिवार को आर्थिक संबल देने की बात करने लगते हैं और अपनी छदम् राष्ट्रभक्ति का हवाला देते हुए सैनिकों में खराब भोजन मिलने के कारण उत्पन्न आक्रोश अथवा समय पर अवकाश न मिलने के कारण उनमें बढ़ती जा रही आत्महंता प्रवृत्ति को अनदेखा करने का प्रयास किया जाता है। कितना आश्चर्यजनक है कि सेना की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खरीदे जाने वाले सैन्य उपकरणों व युद्ध की स्थिति से निपटने के लिए खरीदे जाने वाले साजो-सामान को लेकर सरकार की मंशा खुलकर सामने आने पर इसे गोपनीयता व राष्ट्रीय नीति में हस्तक्षेप मानते हुए इसके कारणों पर चर्चा को एक राष्ट्रव्यापी बहस का रूप देने से इंकार कर दिया जाता है लेकिन एक सैनिक की शहादत पर उसकी श्रीदेवी के अंतिम संस्कार के लिए उमड़ने वाली भीड़ से तुलना करने पर हमें किसी किस्म की ग्लानि अथवा शर्मिंदगी का अनुभव नहीं होता।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *