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Thursday, March 28, 2024

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सवाल दर सवाल हैे।

महॅगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी व बेकारी जैसे विषयों पर विपक्ष की खामोशी के बावजूद सरकार की कार्यशैली पर कई सवाल।

लगातार व तेज़ी से बढ़ रही महॅगाई से जुड़ी खबरे वाकई चिन्तित करने वाली है तथा एक ही माह में कई-कई बार बढ़ने वाली पेट्रोल व डीजल की कीमत के साथ ही बैंको द्वारा गृह ऋण व वाहन ऋण के ब्याज में की गयी वृद्धि यह इशारा कर रही है कि सरकार अपने कार्यकाल के इस अन्तिम वर्ष में आम आदमी की परीक्षा लेने पर उतर आयी है। हाॅलाकि सरकार यह मानती और कहती रही है कि इस वृद्धि में कुछ भी अप्रत्याशित नही है और पूरी तरह अन्र्तराष्ट्रीय बाज़ार के आधार पर तय की जाने वाली पेट्रोल व डीज़ल की कीमतो पर उसका सीधा नियन्त्रण भी नही है लेकिन इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि केन्द्र सरकार द्वारा पूर्व में लिऐ गये नोटबन्दी व जीएसटी लागू किये जाने जैसे तमाम फैसलो से वर्तमान तक नही उभर पाया व्यापारी एंव ग्राहक सरकार के इस नये हमले से परेशान है और यह तय माना जा रहा है कि बाज़ार में आ रहे इस किस्म के उतार चढ़ाव से आम आदमी के जीवन की दुश्वारियाॅ बढ़ती जा रही है। अगर सरकार द्वारा दर्शाये जाने वाले आकड़ो पर नजर डाले तो ऐसा लगता हैै कि मानो बाज़ार में आने वाले इस उतार-चढ़ाव से आम आदमी की ज़िन्दगी में कोई फर्क नही पड़ रहा और पहले से बेहतर महसूस कर रहा सामान्य मतदाता सरकार के पूरी तरह साथ है लेकिन अगर किसानो की नाराज़ी, युवाओं की बेरोज़गारी और नोटबन्दी व जी.एस.टी.लागू होने के बाद बढ़ी बेकारी की समस्या पर नज़र डाले तो ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार असल समस्या पर बात ही नही करना चाहती या फिर सरकार चलाने वाले राजनेता व सत्तापक्ष के रणनीतिकार यह महसूस कर रहे है कि चुनावी जीत हासिल करने अथवा जन सामान्य के बीच अपनी मज़बूत पकड़ बनाये रखने के लिऐ आम आदमी की समस्याओं अथवा महॅगाई जैसो विषयों पर चर्चा करना ही बेकार है। शायद यहीं वजह है कि हमारे प्रधानमंत्री अपने सम्बोधनो में मौजूदा हालातो व अन्य समस्याओं की चर्चा करने के स्थान पर काॅग्रेस की असफलता या फिर नेहरू- गाॅधी खानदान की असफलता का ज्यादा ज़िक्र करते है और मजे़ की बात यह है कि चुनावी मंच से इन तमाम शख्सियतों की खिंचाई अथवा बुराई करने के बावजूद मौजूदा सरकार इन पिछले चार वर्षो में उन तमाम योजनाओ व घोषणाओ पर काम कर रही है जिनको पूर्ववर्ती मनमोहन सिह सरकार द्वारा लागू किया गया था या फिर अपने दस सालो के कार्यकाल में काॅग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सरकार संप्रग में शामिल गठबन्धन दलो के दबाव के चलते जिन योजनाओं को लागू करने में असफल रही थी। यह माना कि स्वच्छ भारत अभियान जैसे लोकलुभावन नारे देने वाली मोदी सरकार ने देश की जनता को स्मार्ट सिटी, आर्दश गाॅव शत्-प्रतिशत् विद्युतिकरण तथा गंगा की सफाई जैसे तमाम सब्ज़बाग दिखाये है और सरकार के समर्थक व भाजपा के कार्यकर्ता अपनी सरकार की उपलब्धियों का गुणगान करते वक्त देश के बहुसख्ंयक समाज को मोदी या भाजपा के सत्ता में न रहने की स्थिति में धर्म व पहचान के खतरे में पड़ने जैसे खतरो से आगाह कराना नही भूलते लेकिन सवाल यह है कि क्या देश को एक ऐसी सरकार या प्रधानमन्त्री चाहिऐं जो अपनी उपलब्धियों व जनता की परेशानियों पर चर्चा करने की जगह राजनैतिक मंच से मसखरी व झूठ का सहारा लेकर मतदाता को बहलाने का प्रयास करे और व्यापक जनहित से जुड़े सवालो को छद्म राष्ट्रवाद अथवा जो़र-शोर से लगााये जाने वाले भारत माता की जय जैसे नारो की आवाज में डुबा दिया जाये। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि चुनावी मंच से किसानो के कर्जे माफ कर देने अथवा उनके बिजली के बिल या अन्य सरकारी बकायों को माफ कर देने वाली घोषणाओं में कोई दम नही होता और चुनाव आयोग जैसी संवेधानिक संस्थाओ को चाहिऐं कि वह राजनैतिक मंचो अथवा अपने चुनावी घोषणा पत्रो के ज़रिये मतदाताओं को निशुल्क अथवा सस्ती दरो पर कोई भी सुविधा उपलब्ध करवाने का दावा करने वाले राजनैतिक दल से इस परिपेक्ष्य में जुटाये जाने वाले संसाधनो व रणनीति का स्पष्ट रूप से खुलासा करने को कहें लेकिन इसके साथ ही साथ चुनाव आयोग को यह भी चाहिऐ कि वह अपनी उपलब्धियों को बढ़ाचढाकर पेश कर रही अथवा फर्जी आकड़ों के दम पर मतदाताओं को दिगभ्रमित कर रही सरकारी व्यवस्था पर भी लगाम कसे तथा राजनेताओं व सत्ता के शीर्ष पदो पर बैठे नीति निर्धारको को मजबूर किया जाये कि वह अपनी कार्यशैली व कार्यकाल के देश की जनता पर पड़े प्रभाव को लेकर आत्मचिंतन की स्थितियों से जरूर गुज़रें। अफसोसजनक है कि वर्तमान हालातों में चुनाव आयोग व सीबीआई जैसी तमाम संवेधानिक संस्थाऐं सत्ता के शाीर्ष से प्रभावित नज़र आ रही है और लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं व तौर-तरीको को लेकर माखौल की सी स्थिति हो गयी है। इन हालातों में अगर हम कहें कि मौजूदा व्यवस्था में लोकतन्त्र की आत्मा कसमसा रही है तथा व्यापक जनहित के नाम पर चुनी गयी सरकार हालातो को बिगड़ने से बचाने की अपेक्षा पूरी तरह अपनी मनमर्जी पर उतर आयी है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। हाॅलाकि सत्ता पक्ष यह सोचकर खुश हो सकता है कि लोकसभा चुनावों के नजदीक होने के बावजूद देश में कहीं भी महॅगाई, बेरोज़गाारी अथवा अन्य जनहित से जुड़े मुद्दो पर हो-हल्ला नही हो रहा है और न ही कोई अन्ना हजारें अथवा अन्य बड़ा समाजसेवी मौजूदा सरकार के खिलाफ माहौल बनाने अथवा विरोधियों को विद्रोह के लिऐ उकसाने का काम कर रहा है लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि जनता के बीच सरकार की नीतियों अथवा कार्यशैली को लेकर आक्रोश कम है और लगातार बढ़ रही महॅगाई के बावजूद आम आदमी भाजपा के नेताओ के खोखले नारों व भाषणो से सतुंष्ट है। हकीकत यह है कि हाल- फिलहाल देश का मध्यमवर्ग मोदी सरकार द्वारा फैलाये गये मायाजाल में उलझा हुआ है और सरकार समर्थकों व भाजपा के कार्यकर्ताओ द्वारा डंके की चोट पर मोदी विरोधियों को देश-द्रोही, पाकिस्तान समर्थक या फिर ऐसे ही अन्य तमगे दिये जाने से हैरान व परेशान आम आदमी चाहकर भी अपनी बात नही कह पा रहा है लेकिन डर और ज़ोर- ज़बरदस्ती वाले यह हालात ज्यादा देर तक कायम रहने वाले नही है और न ही देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं को इस तरह बन्धक बनाया जा सकता है। यह माना कि संयुक्त विपक्ष के रूप में एकजुट हो रहे क्षेत्रीय दलों व काॅग्रेस के नेताओ पर तमाम तरह के आरोंप है और मीडिया प्रचार तन्त्र ने कुछ इस तरह का माहौल बनाया हुआ है कि मोदी की चमकायी जा रही छवि के आगे बाकी सारे नेता टिकते नही दिखते लेकिन अगर किसी भी निर्णय तक पहुॅचने से पहले मतदाताओं को इस सरकार से सवाल-जबाव करने का मौका मिला तो यकीन मानियें कि जनता के कई सवालों के जबाव हमारे देश के मौजूदा कर्णधारों के पास नही हैं। सिर्फ राजनैतिक मंचो से ही नही बल्कि रेडियो व सूचना संचार के अन्य माध्यमो से भी अपने ही मन की बात कहने वाले देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह अच्छी तरह समझ रहे है कि अगर वह जन सामान्य को अथवा जन सामान्य तक अपनी पकड़ रखने वाले छोटे मझोले अखबारों को खुद से रूबरू होने का मौका देते है तो जनता के इस हिस्से द्वारा उठाये जाने वाले कई सवालो का उनके पास कोई जबाव नही है। इसलिऐं जनपक्ष का निशाना बनने से बचने के लिऐ जनता को मतिभ्रम की स्थिति में रखना और मूल समस्याओं व कड़वी सच्चाई तक जनता- जनार्दन का ध्यान न जाने देना मौजूदा सरकार की जरूरत भी है व मजबूरी भी। इसीलिऐं देश व समाज के समक्ष फर्जी चुनौतिया खड़ी की जा रही है और बुलैट ट्रैन का सपना दिखाने वाले लोग आम जनता से यह छिपाने की कोशिशों में लगे है कि कुछ ही समय पहले तक सस्ता व सुलभ होने के कारण भारत की जनता का पहला भरोसा माना जाने वाले रेल यातायात अब आम आदमी का भरोसा खोने लगा है। ठीक इसी प्रकार नई सड़कों की घोषणा व उद्घाटनो के दिखने वाले जो़र- शोर के बावजूद देश में खस्ता हाल सड़कों की संख्या व सड़क दुघर्टनाऐं बढ़ी है तथा बेटी-बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे नारो को जोर शोर से लगाने के बाद भी हम महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचार, अपराध व बलात्कार की घटनाओं में कमी लाने में असफल है। देश के प्रधानमन्त्री द्वारा खुद झाड़ु उठा लेने व साफ-सफाई का सन्देश देने के बावजूद हमारी नगरपालिकाऐं व नगर निगम धनाभाव के चलते कूड़े के निस्तारण को लेकर स्पष्ट व ठोस योजनाऐं बनाने में पूरी तरह असफल है तथा गंगा की सफाई को लेकर किये गये बढ़े हो-हल्ले व करोड़ो की लागत के बावजूद हालातो में आपेक्षित सुधार नही आया है। हो सकता है कि चुनावी मंच से इन तमाम विषयों पर चर्चा न होती हो और सरकार की नीतियों का विरोध करने वाला विपक्ष भी विभिन्न कारणों से इन तमाम विषयो को व्यापक जनचर्चा व विरोध का विषय बनाने से डरता हो लेकिन इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि देश के इतिहास में जब भी प्रधानमन्त्री के रूप में नरेन्द्र मोदी का जिक्र किया जायेगा तो अनायास ही इन तमाम विषयों का चर्चा तो होगा ही और प्रधानमन्त्री के मौजूदा कार्यकाल की समीक्षा करने वाली गैरराजनीतिक व बुद्धिजीवी ताकतें यह सवाल भी जरूर उठायेंगी कि अपने इस कार्यकाल में धड़ाधड़ विदेशो का दौरा करने वाले मोदी जी व उनकी इस सरकार की कुल उपलब्धि क्या रही।

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