संविधान की आत्मा पर प्रहार | Jokhim Samachar Network

Wednesday, April 24, 2024

Select your Top Menu from wp menus

संविधान की आत्मा पर प्रहार

राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा न्यायालय की ओर किए गए रूख व प्रेस काफ्रेंस के जरिये सामने आये तथ्यों के बाद यह लगभग स्पष्ट हो गया है कि मोदी सरकार की तरह ही मनमर्जी करने पर उतारू हैं त्रिवेन्द्र सिंह रावत।
अपने कार्यकाल का पहला ही साल पूरा करने के बीच उत्तराखंड की पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार कई तरह के विरोधों व जनान्दोलनों से घिरी नजर आ रही है। उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण घोषित किए जाने और बेरोजगारी के मुद्दे पर सड़कों पर उतरे नौजवानों के मामले में किसी भी तरह का प्रति-उत्तर देने से बच रही राज्य सरकार के समक्ष अपने विधायकों व मंत्रियों का वेतन कई गुना बढ़ाये जाने के मामले में जनपक्ष की ओर से उठ रहे सवालातों का जवाब देने की जिम्मेदारी तो थी ही और अब राज्य के निर्वाचन आयोग ने सरकार पर निकाय चुनावों को टालने व आयोग की मांग के अनुरूप धन की व्यवस्था न करने के भी आरोप लगाये हैं। यह मामला वाकई गम्भीर है क्योंकि राज्य निर्वाचन आयुक्त ने अपना पक्ष रखने के लिए न सिर्फ न्यायालय का रास्ता चुना है बल्कि उनका कहना है कि कई प्रयासों के बावजूद राज्य के मुख्यमंत्री ने उन्हें मुलाकात हेतु समय ही नहीं दिया। हो सकता है कि इस सबके पीछे सरकार की मंशा गलत न हो और सरकारी तंत्र परिसीमन को लेकर आ रही अड़चनों से निपटकर राज्य में निकाय चुनाव कराने के लिए पूरी तरह तैयार हो लेकिन सरकार द्वारा विभिन्न निकायों में किए गए सीमा विस्तार के मुद्दे के उलझ जाने के बाद यह सब सम्भव नहीं हो पाया हो और अब सरकार के पास निकायों में प्रशासक बिठाये जाने के अलावा कोई विकल्प न हो किंतु सरकार के लिए माननीय उच्चतम् न्यायालय के आदेशों की अवहेलना करते हुए इस तरह सब कुछ टाल दिया जाना इतना आसान भी नहीं है और न ही इस सारे मामले को राजनैतिक दावपेंच की संज्ञा देकर इस पर खुली परिचर्चा से बच पाना ही इतना आसान है। हम देख रहे हैं कि भाजपा जब से राज्य की सत्ता पर काबिज हुई है लगभग तभी से प्रदेश की जनता सरकार की कार्यशैली के विरोध में मोर्चा खोले हुए है और पिछले वर्ष में सरकार के गठन के लगभग साथ ही साथ शुरू हुआ प्रदेशव्यापी जनान्दोलन इस बात का गवाह है कि विकास के डबल इंजन के वादे और दावे के साथ सत्ता के शीर्ष पर पहुंची भाजपा जनाकांक्षाओं पर खरी उतरने में असफल रही है। हालांकि भाजपा के नेताओं व सत्ता के शीर्ष पदों पर काबिज जनप्रतिनिधियों का मानना है कि सड़कों पर दिख रहा जनता का विरोध व तमाम अलग-अलग नामों से हो रहे जनान्दोलन राज्य के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस द्वारा प्रायोजित राजनीति का हिस्सा है तथा चुनाव हारने से बौखलाये कांग्रेस के नेता राज्य में हो रही सामान्य मौतों व आत्महत्या की घटनाओं को राजनैतिक चर्चाओं का विषय बनाकर विकास कार्यों में बाधा डालने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन स्थानीय निकायों के चुनावों को लेकर एक संवैधानिक संस्था राज्य निर्वाचन आयोग व सरकार आमने-सामने है और राज्य में स्थानीय निकायों के चुनावों को लेकर एक संवैधानिक संस्था द्वारा खड़े किए गए सवाल सरकार की मंशा व कार्यशैली पर सवालिया निशान लगाने के लिए काफी हैं। अफसोसजनक है कि सरकार बहादुर इस तरह की चर्चाओं पर लगाम लगाने के लिए जनसमस्याओं का वाजिब हल निकालने की जगह विदेश दौरे की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि यह कहना कठिन है कि निकाय चुनावों को टालकर सरकार क्या हासिल करना चाहती है और सरकारी स्तर पर हो रही इस लेट-लतीफी या फिर सीमा विस्तार के मुद्दे के न्यायालय में पहुंचने से सरकार को क्या हासिल होने वाला है लेकिन यह माना जा रहा है कि हाल ही में नगर निगमों व नगर पालिकाओं के लिए बड़े बजट की स्वीकृति करने वाली राज्य सरकार इन तमाम निकायों में अपनी मर्जी के प्रशासक बिठाकर विकास कार्यों के माध्यम से स्थानीय जनता का दिल जीतना चाहती है और सरकार का यह भी मानना है कि इस बहाने उसे न सिर्फ अपने कार्यकर्ताओं की महत्वाकांक्षाओं को शांत करने का मौका मिलेगा बल्कि सरकार की सहमति से चुने गए प्रशासकों को भविष्य में चुनाव मैदान में उतारकर वह आसान जीत हासिल करने में कामयाब होगी। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार यह महसूस कर चुकी है कि अपने इस एक वर्ष के कार्यकाल में उपलब्धियों का कोई बड़ा आंकड़ा उसके पास नहीं है और न ही प्रदेश की जनता वित्तविहीन घोषणाओं व उद्घाटनों पर भरोसा करने के मूड में है। लिहाजा जनपक्ष की राय व विचार चुनावी अंकगणित के रूप में सामने आये इससे पहले ही सरकार ने इन प्रस्तावित चुनावों को टालने की पूरी तैयारी कर ली थी और अब मोदी लहर की आड़ में लोकसभा चुनावों से थोड़ा ही आगे-पीछे स्थानीय निकायों के चुनाव तय करने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्यमंत्री के समर्थकों को वक्त रहते ही इस बात का अहसास हो गया था कि अगर भाजपा निकाय चुनावों में हारती है तो इस गैर जिम्मेदाराना रवैय्ये के लिए उन्हें अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ सकती है और केन्द्रीय सत्ता व संगठन की कुर्सी पर काबिज मोदी व अमित शाह की जोड़ी के समक्ष त्रिवेन्द्र सिंह रावत इस स्थिति में नहीं हैं कि एक चुनावी हार के बावजूद वह अपनी कुर्सी पर टिके रहने के लिए सरकार व संगठन पर दबाव बना सकें लेकिन अगर स्थानीय निकायों के चुनाव लोकसभा चुनावों के लगभग साथ ही साथ या फिर आगे पीछे होते हैं तो त्रिवेन्द्र सिंह रावत की कुर्सी बचे रहने की सम्भावना बढ़ जाती है क्योंकि अगर आगामी लोकसभा चुनावों में एक बार फिर मोदी लहर चलती है या फिर देश के प्रधानमंत्री अपनी जीत सुनिश्चित करने की दिशा में जनाकांक्षाओं को पूरा करने या फिर जनमत को उद्देलित करने के लिए कोई बड़ा कदम उठाते हैं तो इसका सीधा असर इस चुनाव के ही आसपास होने वाले स्थानीय निकायों के चुनाव पर भी पड़ना लाजमी है और अगर किन्ही राजनैतिक कारणों या फिर विपक्षी एकता के चलते भाजपा मोदी के नेतृत्व में लड़ा जाने वाला आगामी लोकसभा चुनाव हार जाती है तो इस बात की सम्भावना स्वतः ही कम हो जाती है कि भाजपा का नेतृत्व या फिर उसका नीति-निर्धारक संघ चुनावी हार के बाद त्रिवेन्द्र सिंह रावत पर सत्ता के शीर्ष से हटने के लिए कोई दबाव बना पायेगा। यह ठीक है कि विपक्ष के नेता व सत्ता पक्ष से जुड़े तमाम संभावित प्रत्याशी भी त्रिवेन्द्र के इस निर्णय से सहमत नहीं हैं और उन्हें लगता है कि दो विभिन्न स्तरों पर होने वाले चुनावों के संदर्भ में होने वाला कोई भी घालमेल उनकी चुनावी हार का कारण हो सकता है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत अपनी पार्टी की चुनावी जीत या हार से कहीं ज्यादा अपनी कुर्सी के अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं और उन्हें लगता है कि इस तरह की रणनैतिक कोशिशें उनकी सत्ता को बरकरार रख सकती हैं। खैर वजह चाहे जो भी हो लेकिन उत्तराखंड के राज्य निर्वाचन आयोग के उच्च न्यायालय में जाने व उसके बाद की गयी पे्रस कांफ्रेंस के बाद यह लगभग तय हो गया है कि राज्य में बहुप्रतिक्षारत् स्थानीय निकायों के चुनाव अब हाल फिलहाल नहीं होने वाले और भाजपा का शीर्ष नेतृत्व व राज्य की सत्ता पर काबिज भाजपा के लोग इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित थे लेकिन इस सबके बावजूद उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को भरमाने के लिए प्रत्याशियों के चयन व राजनैतिक परिवेक्षकों के माध्यम से आंकलन का खेल जारी रखा। राजनीति के मैदान में इस किस्म की नूराकुश्ती के कई मायने हो सकते हैं और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस तरह की कारगुजारियों के जरिये कार्यकताओं के बीच पनपने वाले आक्रोश पर लगाम लगाने में सक्षम रहा है जबकि सरकार गठन के तत्काल बाद ही बलवती होती दिख रही दायित्वों की घोषणा व संवैधानिक पदों या तमाम निगमों-परिषदों में संगठन से जुड़े सक्रिय कार्यकर्ताओं को एडजस्ट किए जाने की मांग भी अभी ठंडे बस्ते में है लेकिन सरकार की सफलता अथवा असफलता के दृष्टिकोण से विचार करें तो हम पाते हैं कि सरकार द्वारा लिए जा रहे फैसलों के खिलाफ जनता के बीच खड़े होते दिख रहे आंदोलनों के बाद अब एक संवैधानिक संस्था द्वारा सरकार की मंशा पर उठाये गये सवाल लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए ठीक नहीं कहे जा सकते किंतु अगर व्यापक राजनैतिक परिपेक्ष्य में विचार करें तो हम पाते हैं कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत अपनी कार्यशैली के माध्यम से केन्द्र की सत्ता पर काबिज अपने नेताओं का ही अनुगमन करते प्रतीत होते हैं और उन्होंने अब तक जो भी फैसले लिए हैं उनमें जनतांत्रिक व्यवस्थाओं का अनुपालन करने की जगह अपनी मनमर्जी करने की जिद स्पष्ट तौर से परिलक्षित होती है।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *