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Saturday, April 20, 2024

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साधो यह परिवर्तन क्या है?

एक टेलीविजन धारावाहिक के बहाने खुद को दलित व शोषित समाज का हिस्सा साबित करने में जुटे बाबा रामदेव की क्या होगी अगली रणनीति?
योगगुरू से व्यवसायी बन अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ख्याति बटोर रहे बाबा रामदेव इन दिनों अपने जीवन पर आधारित एक धारावाहिक को लेकर चर्चाओं में हैं। हालांकि इस टीवी सीरियल को सत्य घटनाओं पर आधारित बताया जा रहा है तथा इसकी प्रसारणकर्ता कम्पनी के साथ डिसकवरी चैनल का नाम जुड़ा होने के कारण आम जनमानस का एक बड़ा हिस्सा यह मानकर भी राजी नहीं है कि कहानीकारों ने मामले की रोचकता बनाये रखने व इसके साथ जनता की जिज्ञासा जोड़े रखने के लिए इसे मनगढंत आधार पर नाटकीय मोड़ दिया होगा लेकिन सामाजिक समीकरणों व जनसामान्य के बीच यादव समाज की स्थिति को ध्यान में रखते हुए गौर करें तो हम पाते हैं कि इस सीरियल के शुरूआती दौर की पूरी कहानी ही फर्जी है क्योंकि वर्तमान में आरक्षण के दायरे में रखे गए यादव दो दशक पहले तक न सिर्फ सामान्य जाति का हिस्सा थे बल्कि सामान्य जनजीवन व तत्कालीन सामाजिक परिपेक्ष्य में यादवों के साथ सामाजिक भेदभाव बरते जाने की कोई घटना नहीं मिलती। अगर धार्मिक ग्रंथों को आधार मानकर बात की जाए तो यादव बिरादरी ने एक लंबे समय तक हमारे देश के विभिन्न हिस्सों में न सिर्फ राज संभाला बल्कि वर्तमान में आम भारतीय जनमानस के आराध्य देव माने जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण का भी यादव बिरादरी से नजदीकी ताल्लुक रहा और अपने निर्वाण से पूर्व स्वनिर्मित द्वारिका नगरी को डुबाकर यदुवंशियों का समूल नाश करने की भगवान श्रीकृष्ण की चेष्टा पर अगर गौर करें तो हम पाते हैं कि अपनी इस बिरादरी के सत्ता के सम्पर्क में आते ही अराजक व क्रूर होते जाने की प्रवृत्ति से ईश्वर भी दुखी हो चुके थे। वर्तमान में इतिहास खुद को दोहरा रहा मालूम होता है और एक पूंजीपति संत के रूप मेें सत्ता से नजदीकियां बनाने के बाद लोकप्रियता के मद में पागल बाबा रामदेव अराजक हो गए मालूम पड़ते हैं तथा अराजकता की इन हदों को छूते हुए बाबा रामदेव ने न सिर्फ सनातन धर्म का अपमान कर मनगणन्त कहानी के आधार पर खुद को शोषित व बेचारा साबित करने का प्रयास किया है बल्कि वह सामाजिक समानता और छुआछूत से दूर हट रहे भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि धूमिल करने का भी दूषित प्रयास कर रहे हैं। कितना आश्चर्यजनक है कि जिस तीर्थनगरी ने उन्हें एक पहचान व सम्मान दिया, वह उसी तीर्थ-नगरी हरिद्वार के संत-महात्माओं पर अपने विरूद्ध षड्यंत्र रचने व अपना अपमान करने के आरोप लगाने से नहीं चूकते जबकि इसके ठीक विपरीत उनके विरोधी उन्हें संत मानने से इंकार करने के बावजूद उनकी योग-साधना, लगन व व्यवसायिक सोच की प्रशंसा करने में किसी भी तरह की कंजूसी नहीं करते। अगर भारतीय संत समाज की परम्पराओं पर गौर करें तो यह कई अखाड़ों में विभक्त दिखाई देता है तथा सामाजिक रूप से जाति और गोत्र की तरह ही अखाड़ा भी संत समाज को एक पहचान प्रदान करता है लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में तेजी से चली परम्पराओं के क्रम में कुछ कुशल वक्ता व कथावाचक सन्यास का अर्थ समझे बगैर ही स्वयं को संत कहलाने लगे हैं तथा यहां पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं दिखता कि वर्तमान में जिन तथाकथित संतों या बाबाओं पर महिलाओं के यौन शोषण व अपने आश्रमरूपी राजसदनों में अनाधिकृत कृत्य करने के आरोप लगे हैं उनमें से अधिकांश का संबंध किसी भी अखाड़े से नहीं है और न ही उन्होंने सन्यास के लिए विधिवत् दीक्षा ली है। बाबा रामदेव भी इन्हीं तथाकथित संतों में से एक हैं और तीर्थनगरी हरिद्वार व अन्य धार्मिक स्थानों पर काबिज साधु-संतों के साथ इनके विरोध का यही एक सबसे बड़ा कारण है। यह ठीक है कि रामदेव पर यौन शोषण या महिलाओं के प्रति अपराध जैसा कोई आरोप नहीं लगा है और न ही उनके योग शिविरों में किसी भी तरह के राष्ट्र विरोधी कृत्य अथवा धार्मिक वैमनस्यता बढ़ाने वाले विचारों निष्पादन किया जाता है लेकिन रामदेव पर अपने गुरू की सम्पत्ति कब्जाने, अपने संस्थान में कार्यरत् श्रमिकों का वेतन हड़पने या हथियारों के दम पर स्थानीय ग्रामवासियों की सम्पत्ति हड़पने जैसे तमाम आरोप हैं और इस तरह के आरोपों से घिरा व्यक्तित्व अगर खुद को बेचारा या समाज द्वारा बहिष्कृत घोषित करने में जुटा है तो इसके पीछे उसका कोई न कोई बड़ा मंतव्य अवश्य छिपा होने की संभावना है। वैसे भी स्वयं को संत साबित करने की होड़ में जुटे बाबा रामदेव का पहला प्रयास होना चाहिए था कि वह अपनी लोकप्रियता व जनसाधारण के बीच आसान पहुंच का फायदा उठाते हुए समाज में व्याप्त छुआछूत एवं आरक्षण जैसे मुद्दों पर बन रही पारस्परिक असहमति को दूर करने का प्रयास करते हुए अपने कथनों के अनुसार नवभारत निर्माण में अहम् भूमिका निभाते तथा धारावाहिक व अन्य माध्यमों से योग को जनसाधारण के रोजगार से जोड़ते हुए भारत को विश्व गुरू के रूप में स्थापित करने की दिशा में पंतजली योगपीठ की ओर से अन्य गंभीर प्रयास किए जाते लेकिन रामदेव इन तमाम विषयों पर विचार करने के स्थान पर स्वयं को बेचारा, शोषित या फिर सामाजिक रूप से पिछड़ा साबित करने के प्रयासों में जुट गए मालूम होते हैं और इस सबके पीछे उनकी कोई गुप्त योजना काम कर रही जान पड़ती है। हालांकि रामदेव स्वयं यह दर्शाते हैं कि डिसकवरी में प्रसारित इस सीरियल से उनका कोई लेना-देना नहीं है और न ही इसके निर्माण अथवा प्रसारण के लिए उनसे अथवा उनकी संस्था से कोई शुल्क या विज्ञापन ही दिया गया है लेकिन इस सबके बावजूद इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि उनके जीवन पर आधारित इस धारावाहिक के निर्माण से पहले इसके निर्माताओं ने न सिर्फ उनसे सम्पर्क किया होगा बल्कि उन्होंने व उनके सहयोगियों ने इसकी पूरी कहानी व नाटकीय पक्षों को पूरी गंभीरता के साथ जांचा-परखा होगा। इन स्थितियों में इतनी बड़ी चूक के पीछे क्या वजह रही या फिर रामदेव जानबूझकर इस तथ्य पर बल देना चाहते थे कि अपनी शैशवावस्था से ही वह समाज द्वारा शोषित व प्रताड़ित रहने के बावजूद अपनी मेहनत के बल पर इतना आगे बढ़ पाये। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि रामदेव या पतंजली योगपीठ के आगे बढ़ने अथवा उसके उत्पादों की लोकप्रियता में बाबा रामदेव व उनके सहयोगी बालकृष्ण की मेहनत का पूरा हाथ रहा है तथा उनको यह लोकप्रियता अनायास अथवा भाग्य के भरोसे नहीं मिली है लेकिन हम यह भी महसूस करते हैं कि बाबा रामदेव जब तक एक संत के रूप में अपनी योग कलाओं का प्रदर्शन व प्रचार-प्रसार करते थे तथा उनके बालसखा बालकृष्ण द्वारा कुछ आयुर्वेदिक औषधियों के सेवन को योग के साथ ही ज्यादा लाभकारी बताते हुए जनता के बीच बेचा जाता था तब तक समाज के लगभग सभी वर्गों में उनका बेहद सम्मान था और देश की जनता उनके वक्तव्यों व ओजपूर्ण वाणी को गंभीरता से सुनती थी। इसके उपरांत रामदेव बहुराष्ट्रीय उत्पादों का विरोध करते हुए उत्पादन के बाजार में उतरे और विज्ञापन के माध्यम से उन्होंने बाजार के एक हिस्से पर काबिज होकर अथाह धनराशि भी कमायी लेकिन समाज के सामान्य वर्गों के बीच उनकी एक योगगुरू व साधक वाली छवि व लोकप्रियता पर फर्क पड़ा जिसे बड़ी ही आसानी के साथ धन के आडम्बर से पाट दिया गया और समाज को यह संदेश देने की कोशिश की गयी कि रामदेव का सम्पूर्ण व्यवसाय व व्यवसायिक दृष्टिकोण राष्ट्रहित में है। इसके बाद रामदेव ने राजनीति में दो-दो हाथ करने का प्रयास किया और अपने इन प्रयासों के तहत उन्होंने न सिर्फ एक राजनैतिक दल का गठन किया बल्कि अन्ना के बहुचर्चित आंदोलन के समानान्तर अपने भक्तरूपी समर्थकों के साथ वह आंदोलन के मोर्चे पर भी कूदे लेकिन यह सर्वविदित है कि यहां से उन्हें एक महिला के वस्त्र धारण करके भागना पड़ा जिसके बाद उन्होंने अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को ज्यादा आगे बढ़ने नहीं दिया। हालांकि इसके उपरांत केन्द्रीय सत्ता पर काबिज भाजपा ने रामदेव को शाही सम्मान के साथ विभिन्न अलंकरणों से नवाजते हुए उनकी अंतरआत्मा की तृप्ति के कई प्रयास किए और केन्द्र सरकार के अनेक निर्णयों व घोषणाओं से यह भी महसूस हुआ कि सत्ता पर काबिज राजनैतिक विचारधारा स्वदेशी उत्पादन के नाम पर रामदेव को संरक्षण देना चाहती है लेकिन कई अवसरों पर रामदेव, सरकार पर दबाव डालने या फिर मनवांछित तरीके से सरकारी सुविधाओं व सरकार का इस्तेमाल करने में असफल भी रहे और अब एक धारावाहिक के माध्यम से खुद को महादलित, पिछड़ा व समाज द्वारा शोषित साबित करने के प्रयासों में जुटे बाबा रामदेव एक नये अंदाज में जनता के सामने हैं। देखना यह है कि इस कहानी का क्या अंत होता है। वैसे इतिहास गवाह रहा है कि समाज को तोड़ने वाली मानसिकता ज्यादा लंबे समय तक अपने मकसद में कामयाब नहीं रहती।

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