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Thursday, April 25, 2024

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उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे

दो राज्यों में निजी चिकित्सकीय संस्थानों के खिलाफ हुई कार्यवाही के विरोध में उतरा आईएमए
खबर है कि देश के दो नामी-गिरामी चिकित्सकीय संस्थानों के खिलाफ राज्य सरकार द्वारा की गयी कार्यवाही के विरोध में आईएमए से जुड़े तमाम चिकित्सक हड़ताल पर जाने का मन बना रहे हैं और अगर ऐसा होता है तो यह स्थितियां सरकार के लिए काफी संकटदायी हो सकती हैं क्योंकि अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए सरकारी तंत्र ने निजी चिकित्सकों व प्राईवेट नर्सिंग होम्स के जंजाल को इतना मजबूत बना दिया है कि वह एक झंडे के नीचे आकर सरकार के सही फैसले को चुनौती देने की स्थिति में हैं और अगर इस मुद्दे पर सरकारी तंत्र एक बार झुक जाता है तो फिर बेलगाम होते जा रहे निजी चिकित्सालयों अथवा नर्सिंग होम्स पर लगाम रखी जानी असंभव है। हालांकि यह विषय दो अलग-अलग राज्यों की सरकार से जुड़ा होने के कारण केन्द्र इसमें सीधे हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं है और न ही कोई राजनैतिक पद पर बैठा व्यक्तित्व इतना भ्रष्ट व अमानवीय है कि वह जिन्दा मानव शिशु को मृत बता प्लास्टिक की पाॅलीथीन में पैक करने वाले चिकित्सकीय संस्थान के खिलाफ की गयी कार्यवाही को वापस लेने या फिर उस पर पुनर्विचार करने के लिए दबाव बनाने की कोशिश करेगा लेकिन चिकित्सक अपने पेशावराना हुनर को दांव पर लगाते हुए सरकार को गलत काम करने के लिए बाध्य करना चाहते हैं। यह ठीक है कि पूर्व में भी अनेक बार ऐसी घटनाएं सामने आयी हैं और निजी अस्पतालों द्वारा मृत व्यक्ति को जीवित बता या फिर उल्टा-सीधा इलाज कर जोर-जबरदस्ती पैसा ऐंठने की कई खबरें सामने आती रहती हैं लेकिन यह पहली बार है जब किसी सरकार ने इस तरह की शिकायतों को संज्ञान में लेते हुए कठोर कार्यवाही का मन बनाया है और पूरा का पूरा संस्थान सरकार की निगाहबीनी में है। इसलिए यह देखना निहायत जरूरी है कि सरकारी तंत्र किस हद तक अपनी कार्यवाही पर टिका रहता है और आगे पेश आने वाले इससे मिलते-जुलते घटनाक्रमों के वक्त इस पूरे प्रकरण को उदाहरणार्थ रखा भी जाता है या नहीं। वैसे अगर देखा जाय तो जनस्वास्थ्य व शिक्षा सरकार की नैतिक जिम्मेदारी के विषय हैं और देश की पूर्ववर्ती सरकारों ने व्यापक जनहित से जुड़े इन विषयों के मद्देनजर मजबूत ढांचा बनाया है लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में राजनीति के बदली हुई शैली व नेताओं के चारित्रिक पतन के चलते सरकारें अपनी इन जिम्मेदारियों से बचने का प्रयास करती दिख रही है और सरकारी स्तर पर की जाने वाली तमाम घोषणाओं के बावजूद यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि तेजी से बढ़ रही देश की आबादी के सापेक्ष सरकारी स्तर की शिक्षण व स्वास्थ्य सुविधाएं जुटाने में भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं पूरी तरह असफल रही है या फिर यह भी हो सकता है कि पूंजीवाद के इस दौर में जनसामान्य के बीच तेजी से हुए धन के प्रवाह ने आम आदमी को निजी चिकित्सालयों व निजी शिक्षण संस्थानों की ओर जाने को उकसाया है। नतीजतन वर्तमान में पांच सितारा होटलों की तर्ज पर कई बड़े शिक्षण संस्थान व निजी चिकित्सालय इस क्षेत्र में आगे आए हैं और बेहतर सुविधाएं देने के नाम पर आम आदमी से लूट-खसोट बढ़ी है और इसके लिए सिर्फ चिकित्सकों, शिक्षकों या फिर इस तरह के व्यवसाय में उतरे बड़े पूंजीपति घरानों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता बल्कि इसके लिए हमारी वह व्यवस्था ही असल जिम्मेदार है जो राजनेताओं या फिर सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों को अपने निजी लाभ के लिए शिक्षा व चिकित्सा जैसे विषयों को व्यवसायिक स्वरूप देने के लिए उकसाती है। हमने देखा है कि व्यवस्था की मार से पीड़ित कई अच्छे चिकित्सक अथवा शिक्षक सरकारी ढांचे से तालमेल नहीं बैठा पाते हैं और जाने-अनजाने में उनके कदम निजी चिकित्सालयों या निजी शिक्षण संस्थानों की ओर मुड़ जाते हैं जहां उनका न सिर्फ शोषण होता है बल्कि वह अपनी इच्छाओं व योग्यता के अनुरूप कार्य भी नहीं कर पाते लेकिन सरकारी तंत्र व कानून इन तमाम विषयों पर मौन साधे रहता है और साल-छह महीने में कोई बड़ा घटनाक्रम सामने आने पर ही इस तरह की अव्यवस्थाओं की चर्चा होती है लेकिन सरकारी व्यवस्थाओं का चरमराया हुआ ढंाचा इन चर्चाओं को आगे नहीं बढ़ने देता। वर्तमान में भी यही हो रहा है और सेवा भावना से आगे बढ़ने वाली चिकित्सकीय व्यवस्थाओं में समाती जा रही तमाम खामियों के उजागर होने के बावजूद कुछ धंधेबाज किस्म के लोग संगठनात्मक ताकत का भय दिखाकर सारे मामले को यहीं पर ठप कर देना चाहते हैं लेकिन सवाल यह है कि इसमें आम आदमी का क्या दोष और अगर आम आदमी का इन तमाम विषयों से कोई लेना-देना नहीं है तो वह सरकार की कमजोरी के चलते सामने आने वाली समस्याओं को झेलने के लिए क्यों विवश हों। शायद यही कारण है कि अपनी गलती के बावजूद आम आदमी की सेहत को धंधेबाजी से जोड़ चुके तमाम बड़े घराने आईएमए की आड़ लेकर सरकार को दबाव में लेने की कोशिश कर रहे हैं और सब कुछ जानने-समझने के बावजूद भी जनता अपनी जेब कटाने के लिए मजबूर है। हमने देखा कि सरकारी तंत्र ने किस तरह अपनी खामियों को छिपाते हुए सरकारी स्तर पर तमाम नामों से स्वास्थ्य बीमा योजनाएं लागू करने की कोशिश की लेकिन निजी चिकित्सालयों के तंत्र ने बड़ी ही सफाई के साथ सरकार के किसी भी आदेश को मानने से ही इंकार कर दिया और निजी चिकित्सा संस्थानों में लूट का खेल बदस्तूर चलता रहा। इधर पिछले कुछ समय से विभिन्न राज्यों व केन्द्र की सरकार पीपीपी मोड के नाम पर पूर्व में स्थापित तमाम सरकारी सम्पत्तियों व चिकित्सालयों को निजी हाथों में सौंपती जा रही है और व्यवस्थाओं के सुदृढ़ीकरण के नाम पर आम आदमी को आर्थिक रूप से खोखला करने का खेल सरकार की नाक के नीचे चल रहा है लेकिन राजनीति इन तमाम विषयों पर मौन है क्योंकि राजनैतिक दलों के उद्देश्य बदलकर सिर्फ सत्ता हासिल करने और इस पर अपनी कब्जेदारी बनाए रखने तक सीमित होकर रह गया है। इन हालातों में किन्ही एक-दो राज्यों में किसी इक्का-दुक्का नामी गिरामी चिकित्सकीय संस्थान को सीज करने या इसका लाइसेंस रद्द करने से राजनैतिक रूप से चर्चाओं में तो बना रहा जा सकता है लेकिन व्यवस्था में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता और हम देख रहे हैं कि मौजूदा दौर में कोई भी राजनैतिक दल व्यवस्थाओं में बदलाव लाने या फिर आम आदमी को राहत देने के उद्देश्य से काम ही नहीं करना चाहता। नतीजतन मैक्स हाॅस्पिटल जैसे विषय कुछ समय तक चर्चाओं में रहते हैं और फिर इन्हें लेकर लंबी कानूनी कार्यवाहियों अथवा एक पक्षीय हड़तालों का दौर चलता है लेकिन कुछ ही समय में सब कुछ ठंडे बस्ते में चला जाता है और आम आदमी एक बार फिर हालातों से जूझने को विवश दिखता है। इसलिए सरकार द्वारा की जाने वाली इस तरह की छोटी-मोटी कार्यवाहियों पर प्रसन्न नहीं हुआ जा सकता और न ही इस तरह की राजनैतिक व दिखावटी कार्यवाहियों की बिना पर किसी भी सरकार अथवा राजनैतिक दल की कार्यशैली की समीक्षा की जा सकती है।

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