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Thursday, March 28, 2024

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शिक्षा की गुणवत्ता के सवाल पर

आमने-सामने हैं निजी स्कूलों का प्रबन्धक वर्ग, मालिक व सरकार
उत्तराखंड में जहां एक ओर छात्रों व अभिभावकों का समुदाय निजी मेडिकल कालेजों की फीस में की गयी अंधाधुंध वृद्धि के खिलाफ आंदोलनरत् है वहीं दूसरी ओर सीबीएसई व अन्य पैटर्न पर चलने वाले तमाम स्कूलों का प्रबंधक वर्ग सरकार द्वारा लिए गए एक फैसले के खिलाफ लामबंद नजर आ रहा है। यूं तो इन निजी स्कूलों व कालेजों में हजारों खामियां हैं और इनमें अध्ययनरत् छात्रों के अभिभावक स्कूलों द्वारा समय-समय पर विभिन्न नामों से लिए जाने वाले शुल्कों से परेशान नजर आते हैं लेकिन स्कूली शिक्षा मंत्री के एक फैसले ने इन स्कूलों के संचालकों की पेशानी पर बल डाल दिए हैं और सरकार के इस फैसले के खिलाफ लगभग सभी स्कूलों ने अनिश्चितकालीन हड़ताल पर जाने का फैसला किया है। कुछ ही समय पूर्व भाजपा द्वारा एकत्र किए गए पार्टी फंड में अपना समुचित योगदान देने के बावजूद स्कूलों के संचालकों की कमाई पर अडंगा लगाने वाला यह सरकारी फैसला इन स्कूलों के संचालकों को रास नहीं आ रहा है और सरकार के इस फैसले के खिलाफ लामबंद यह तमाम निजी स्कूल किसी भी कीमत पर अपनी मनमानी करने की आजादी चाहते हैं। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा देती भाजपा सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने के पक्ष में नहीं है और न ही सरकार के मंत्री व नौकरशाह सरकारी स्कूलों की शैक्षणिक गुणवत्ता में आपेक्षित सुधार लाने की दिशा में कोई प्रयास करते दिख रहे हैं लेकिन इस सबके बावजूद यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि वर्तमान शिक्षा मंत्री अरविंद पाण्डेय ने अपने निजी प्रयासों के दम पर राज्य में बहुतायत में खुले निजी स्कूलों पर कई पाबंदियां लागू करने की कोशिश की है और यह पाबंदियां शिक्षा के व्यवसायीकरण में लगे निजी स्कूलों के मालिकों व उनके प्रबंधकों को रास नहीं आ रही है। लिहाजा मंत्री व सरकार पर दबाव बनाने के प्रयास तेज हो गए हैं और अगर इतिहास को मद्देनजर रखते हुए बात करें तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इन तमाम ज्वलंत मुद्दों पर अभिभावकों की चुप्पी के चलते इस बात की सम्भावना काफी हद तक है कि सरकार निजी स्कूलों की मनमर्जी पर झुकते हुए उन्हें लूट की खुली छूट प्रदान कर सकती है। वैसे भी निजी स्कूलों के मालिकों व प्रबंधक वर्ग के ऊँचे रसूख व नौकरशाहों या बड़े राजनेताओं के साथ उनके सम्बंधों को देखते हुए यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि देर-सबेर सरकार अपने ही बनाये गये नियमों में छूट प्रदान करेगी और राज्य की शैक्षणिक व्यवस्था को निजी स्कूलों के हाथों सौंप चुकी व्यवस्था उन्हें अपने स्कूलों के माध्यम से किताबें या डेªस इत्यादि उपलब्ध कराये जाने की धंधेबाजी से नहीं रोक पायेगी लेकिन सवाल यह है कि अगर सब कुछ पहले की तरह ही चलना है तो सरकार द्वारा किए जा रहे इस बेवजह के प्रचार या फिर दिखावटी सख्ती का क्या उद्देश्य है। व्यक्तिगत् रूप से ईमानदार बताये जाने वाले राज्य के शिक्षा मंत्री अरविंद पाण्डेय का मानना है कि व्यापक जनहित में लिए गए उनके फैसलों को लागू करने में उन्हें जनपक्ष का आपेक्षित सहयोग नहीं मिल पा रहा है और केन्द्रीय व्यवस्था के आधार पर चलने वाली शैक्षणिक परिषदों के आधीन आने वाले इन तमाम स्कूलों के संदर्भ में नियम भी इतने सख्त नहीं हैं कि राज्य सरकार पूरी तरह इन पर डण्डा चला सके लेकिन हकीकत में खेल इन तमाम विषयों से हटकर बताया जा रहा है और सूत्रों से मिल रही जानकारी के अनुसार राज्य के शिक्षा मंत्री की इन स्कूलों से नाराजी की वजह कुछ और ही बतायी जा रही है। इन हालातों में यह देखना दिलचस्प होगा कि अपने आधीन चलने वाले स्कूलों में एनसीईआरटी द्वारा छापी गयी किताबों से इतर अन्य लेखकों व पब्लिकेशनों की किताबें चलाने के लिए प्रतिबद्ध दिखते इन स्कूलों के मालिक या प्रबंधक किस हद तक झुककर सरकार के समक्ष समझौता करते हैं या फिर माननीय शिक्षा मंत्री द्वारा बनाया गया दबाव इन पर किस हद तक कायम रहता है। शिक्षा को बिकाऊ माल बनाकर अपने व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के माध्यम से एक अलग तरह का लूटतंत्र चलाने वाले व्यापारियों का यह वर्ग अगर सरकार पर हावी है और अपनी गलत मांगों को लेकर लामबंद होने वाले अंदाज में वह अपने प्रतिष्ठानों को अनिश्चितकाल के लिए बंद करने की धमकी दे रहा है तो इसमें कुछ नया नहीं है और न ही यह माना जा सकता है कि सरकार के पास व्यवसायियों के इस वर्ग द्वारा बनाये जा रहे दबाव से बाहर निकलने का कोई रास्ता है। इसलिए यह तय दिखता है कि सरकार घोषित अथवा अघोषित रूप से इन स्कूल मालिकों व प्रबंधकों को अपनी मनमर्जी करने की छूट देने को विवश दिखाई देगी। यह माना कि सरकार नियम-कानून बनाने की हद से बाहर नहीं जा सकती और कानून की अवहेलना किए जाने की स्थिति में स्पष्ट शिकायत मिलने पर ही सरकारी स्तर पर किसी प्रकार की कार्यवाही सम्भव है लेकिन सवाल यह है कि इन स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों अथवा उनके अभिभावकों के पास विकल्प क्या है और वह कौन सा तरीका है जिस पर अमल कर शिक्षा के इन मंदिरों में होने वाली लूट से बचा जा सकता है। हम जानते हैं कि शिक्षकों के वेतन व सरकारी स्कूल भवनों की देखरेख व मरम्मत आदि के नाम पर प्रतिवर्ष के हिसाब से बड़ा बजट खर्च करने के बावजूद भी हमारी सरकारी शिक्षा व्यवस्था मिड-डे-मील से आगे नहीं बढ़ पायी है और इन सरकारी स्कूलों की व्यवस्थाएं देखने व सम्भालने के लिए जिम्मेदार राज्य का शिक्षा विभाग हमेशा से ही स्थानान्तरण व नियुक्ति के खेल में उलझा रहा है जिसके चलते सरकारी स्कूलों की शैक्षणिक व्यवस्था का हाल इतना बेहाल है कि गरीब से गरीब अभिभावक भी अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहता और सरकार की यही मजबूरी निजी स्कूलों के मालिकों व प्रबंधकों की मनमर्जी का बड़ा कारण है। शायद यही वजह भी है कि अपनी गलत मांगों को लेकर लामबंद निजी स्कूलों का प्रबंधन वर्ग सरकार को आंखें दिखाने की हठधर्मिता पर उतारू है और सरकार के स्पष्ट फैसले व कड़े आदेशों के बाद भी यह माना जा रहा है कि अंत में जीत निजी स्कूलों के प्रबंधक वर्ग की ही होगी या फिर वह सरकार की अवहेलना करते हुए अभिभावकों पर अपनी मर्जी थोपने में सफल होंगे। हालांकि सरकार के पास असीमित संसाधन व अधिकार हैं और वह अगर चाहे तो निजी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के अभिभावकों को आसानी से राहत मिल सकती है लेकिन सरकार की मंशा आम आदमी को राहत देने के स्थान पर इस तरह के मामलों पर राजनैतिक प्रोपेगण्डा करते हुए माहौल को अपने पक्ष में करने की प्रतीत होती है और सरकार में शामिल कई सम्मानित जनप्रतिनिधियों के सीधे अथवा परोक्ष रूप से शिक्षा के इस व्यापार में जुड़े होने के चलते आम आदमी को राहत मिलने की उम्मीद कम ही है। यह एक गम्भीर विषय है और सरकारों की कथनी व करनी का यह फर्क दर्शाता है कि वर्तमान में देश के विभिन्न हिस्सों पर राज कर रही तथाकथित जनहितकारी सरकारें आम आदमी के हितों की रक्षा से कहीं ज्यादा पूंजीवाद को संरक्षण देने की दिशा में प्रयासरत् हैं जिसके कारण आम आदमी का हाल-बेहाल है। सरकारी तंत्र अगर चाहे तो वह बजटीय प्रावधानों के अनुरूप सरकारी धन का सही इस्तेमाल कर इन व्यवसायिक प्रतिष्ठानों को उनकी ही भाषा में जवाब दे सकती है और इसके लिए सरकार को किसी भी तरह के अलग नियम बनाने या फिर कानून में बदलाव करते हुए नये शासनादेश करने की जरूरत भी नहीं है लेकिन हकीकत यह है कि सरकार कुछ करने की जगह कुछ करती हुई दिखना चाहती है और सरकार में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग सस्ती लोकप्रियता हासिल कर अपनी चुनावी जीत सुनिश्चित करने अथवा अपने राजनैतिक उत्थान के लिए अपने हाईकमान तक अपनी कर्मठता का संदेश भेजने की जुगत में लगे हुए हैं जिस कारण चारों ओर एक अजब सी कसमकस का माहौल है। असमंजसता के इस माहौल में यह एक बड़ा सवाल है कि अपने नौनिहालों को उनका बेहतर भविष्य देने की इस होड़ में आम आदमी के हिस्से क्या आता है और वह कौन लोग हैं जो सरकार व पूंजीपतियों के इस वर्ग के बीच सामंजस्य का माहौल कायम करने के लिए दलालों के रूप में मध्यस्थ की भूमिका अदा कर रहे हैं।

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