बदलते मायनो की राजनीति | Jokhim Samachar Network

Friday, April 19, 2024

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बदलते मायनो की राजनीति

जनप्रतिनिधियों व सत्ता के शीर्ष पदो पर बैठे राजनैतिक चरित्रो के सामूहिक विरोध की घटनाओं से नेताओ ने लेना चाहिऐ सबक।

उत्तराखण्ड के राजनैतिक क्षितिज पर घमासान का दौर जारी है और प्रदेश की सत्ता पर काबिज भाजपा व मुख्य विपक्षी दल काॅग्रेस के अलावा अन्य छोटे व क्षेत्रीय दलों में भी अन्दरूनी खींचतान का असर सार्वजनिक आयोजनों व राजनैतिक मंचो पर साफ दिखाई देता है। हाॅलाकि इस बीच उत्तराखण्ड क्रान्तिदल के विभिन्न धड़ो व गुटो में शान्ति का सन्नाटा पसरा हुआ है और राज्य के दूरस्थ क्षेत्रो में जनसमस्याओं को लेकर नये आन्दोलनों की रूपरेखा तैयार कर रहे लोग आगामी चुनावों को दृष्टिगत् रखते हुये नये समीकरणों की तलाश में जुटे मालुम होते है लेकिन नेताओं के बयानो में दूर-दूर तक सरकार की कार्यशैली का विरोध नज़र नही आ रहा और न ही कोई दल अथवा राजनैतिक चरित्र यह कहने की स्थिति में है कि वह वर्तमान सरकार की कार्यशैली अथवा फैसलो के खिलाफ जनता को लामबन्द कर सकता है। अगर सरसरी नज़र से देखे तो ऐसा प्रतीत होता है कि मुद्दाविहीन विपक्ष के पास सरकार की खिलाफत में सड़को पर उतरने के लिये कोई मुद्दा ही नज़र नही आ रहा औेर भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टाॅलरेन्स के नारे के साथ उत्तराखण्ड की टीएसआर के नेतृत्व वाली सरकार ‘‘सबका साथ-सबका विकास ‘‘की नीयत व इरादे से राज्य के सर्वांगीण विकास का प्रयास कर रही है लेकिन अगर राज्य में नज़र आ रहे माहौल और स्थानीय स्तर पर तमाम छोटे-बड़े मुद्दो को लेकर चल रहे आन्दोलनों पर एक नज़र डाले तो हम पाते है कि अपनी समस्याओं व सरकार के गलत फैसलो से हैरान व परेशान आम जनता अपनी आवाज़ सरकार बहादुर के कानो तक पहुॅचाने के लिये छोटे-छोटे स्वतः स्फूर्त आन्दोलनो के अलावा अन्य भी कई तरीको से प्रयास कर रही है तथा सरकारी तन्त्र पूर्ण बहुमत के दम्भ में जनभावनाओ की पूरी तरह अनदेखी कर अपनी मनमर्जी व स्वेच्छाचारिता से फैसले लेते हुऐ सरकारी कामकाज को आगे बढ़ा रहा है। कुल मिलाकर देखा जाये तो राज्य में इस वक्त राजनैतिक अराजकता की स्थिति है और विपक्ष में छाया सन्नाटा इस अराजकता को प्रोत्साहित करता प्रतीत होता है लेकिन नेता व राजनैतिक दल इन तमाम तथ्यों व तर्को को नकारते हुऐ अपने-अपने निजी हितो में डूबे हुऐ है तथा नेताओ के निजी हित व व्यक्तिगत् स्वार्थो की लड़ाई को राजनैतिक खींचतान का रूप देकर मीडिया आम आदमी का ध्यान ज्वलन्त समस्याओं व संवेधानिक संकट से हटाने का पूरा प्रयास कर रहा है। हमने देखा व महसूस किया है कि अपने भविष्य के फैसले को राजनेताओं के राजनैतिक कुचक्रों व विपक्ष की पेतरेबाजी़ के भरोसे छोड़ने की जगह अब जनता खुद ही अपनी लड़ाई लड़ना पसन्द कर रही है और पहाड़ में बिकने वाली वैैध-अवैध शराब का मुद्दा हो या फिर सड़क के लिऐ लड़ा जाने वाला कोई आन्दोलन जनता अपनी ताकत व आपसी सहयोग से अपने फैसले खुद लेने की दिशा में आगे बढ़ती दिख रही हैै। शायद यही वजह है कि अपनी जंग अथवा भागदौड़ के किसी भी नतीजे तक न पहुॅचने की स्थिति में ट्रांसपोर्ट व्यवसायी प्रकाश पाण्डेय जैसी जीवट हस्ती जनता दरबार के दौरान ही ज़हर खा लेती है या फिर एक सामान्य सी शिक्षिका साक्षात दुर्गा का अवतार बनकर मुख्यमन्त्री के दरबार में सवालो की ऐसी झड़ी लगाती है कि स्ंवय मुख्यमन्त्री ही आपे से बाहर हो जाते है लेकिन आश्चर्यजनक है कि इन तमाम सवालो अथवा हत्या या आत्महत्या पर विपक्ष की ओर से कोई सवाल नही है और न ही कोई राजनैतिक या सामाजिक संगठन किसी किस्म के आन्दोलन का ऐलान करता है। इसके ठीक विपरीत नेताओं व जनप्रतिनिधियों में अगर काई नाराज़ी या आक्रोश है भी तो वह अपनी पार्टी द्वारा अपने कद के अनुरूप तवज्जो न दिये जाने अथवा सम्मानजनक पद या ओहदे से न नवाजे़ जाने या फिर खाली पड़े मन्त्री पद व दायित्वों की बन्दरवाॅट न किये जाने को लेकर है। हाॅलाकि राजधानी देहरादून के कुछ प्रतिनिधि व तमाम नेता यह कह सकते है कि शहर के तमाम हिस्सों में हाल ही में शुरू हुऐ अतिक्रमण विरोधी अभियान के विरोध में उन्होने बिना किसी भेदभाव व राजनैतिक दुराग्रह के एक साथ व एक मंच पर आकर मोर्चा खोला है और व्यापक जनहित को ध्यान में रखते हुऐ वह सरकारी मशीनरी द्वारा की जा रही तोड़फोड़ की किसी भी कार्यवाही के विरोध में है लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिऐ कि नेताओ का यह मोर्चा किसी भी सरकारी फैसले के खिलाफ न होकर न्यायालय के आदेश के खिलाफ है और राजधानी देहरादून में भारी बरसात के चलते टूटे आपदा के कहर के कारण हुई चन्द मौतो व प्रभावित हुऐ आम जन-जीवन के बाद उत्पन्न परिस्थितियों के मद्देनज़र फूटे जनता के आक्रोश के परिणामस्वरूप सामने आये स्थानीय विधायक को उसके ही क्षेत्र से भगाये जाने के किस्से ने नेताओ को यह चेताया है कि अगर वह इन कठिन परिस्थितियों में भी जनता के साथ खड़े नही दिखते है तो आने वाले भविष्य में उनकी मुश्किलें बढ़ सकती है। हमने देेखा और महसूस किया है कि राज्य के उच्च शिक्षा मन्त्री को उनके निर्वाचन क्षेत्र की महिलाओं द्वारा धमकाकर भगाये जाने से शुरू हुआ नेताओ के विरोध का यह सिलसिला अब तेज़ी से आगे बढ़ता हुआ राज्य के मुख्यमन्त्री को वापिस जाने की चेतावनी के साथ पत्थरों से मारकर भगाये जाने की धमकी तक पहुॅच चुका है लेकिन हमारे नेता व जनप्रतिनिधि विधायक निधि एंव मुख्यमन्त्री राहत कोष की राजनीति से बाहर नही निकल पा रहे है और उन्हे यह लगता है कि विकल्प के अभाव में जनता कुछ चुनिन्दा चेहरो के बीच से ही अपना नेता अथवा जनप्रतिनिधि चुनने के लिऐ मजबूर है। यह हो सकता है कि सत्ता पक्ष के नेताओ व जनप्रतिनिधियों के सड़क पर हो रहे इस
विरोध को उकसाने में विपक्षी नेताओ का भी कुछ हाथ हो और सदन में अपनी कमज़ोर ताकत व गुटो में बॅटी राजनीति के कारण नभावनाओ के अनुरूप सवाल न उठा पाने से खिन्न विपक्ष के स्थानीय नेता जनमुद्दो व जनभावनाओं को हवा दे रहे हो लेकिन अगर वाकई में देखा जाये तो इस खेल की श्ुरूवात भी सत्तापक्ष अर्थात भाजपा द्वारा ही की गई है और पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल में मुख्यमन्त्री हरीश रावत के कार्यक्रमों के दौरान चुनिन्दा युवा नेताओ की भीड़ के ज़रिये हर-हर मोदी, घर-घर मोदी जैसे नारे लगाने वाली भाजपा अब यह अच्छी तरह महसूस कर रही होगी कि सत्ता पर आसान कब्जेदारी के बावजूद इसे बनाये रखना व जनसामान्य के बीच एक जनहितकारी सरकार की छवि बनाये रखना वाकई में कितना कठिन हो सकता है। वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष्य में यह महसूस किया जा सकता है कि जनपक्ष का एक बड़ा हिस्सा राजनैतिक दलो द्वारा आज़माये जाने वाले हथकण्डो से खिन्न है और काॅग्रेस समेत किसी भी राजनैतिक दल में यह ताकत नही है कि वह जनसामान्य के बीच साफ दिखाये दे रहे आक्रोश को एकजुटता के साथ आन्दोलन का रूप देकर सड़को पर उतार सके। शायद यही वजह है कि जब बेरोजगार युवाओ का एक बड़ा समूह अप्रत्याशित अन्दाज़ में सड़को पर उतरता है तो उसमें राजनीति के मझे हुऐ खिलाड़ियों के लिये कोई जगह नही दिखती और गैरसेण के मुद्दे पर स्वतः स्फूर्त अन्दाज़ में उभरा एक आन्दोलन इस मुद्दे पर राजनैतिक दलो की दखलदांजी के बाद एकाएक ही शान्त हो जाता है। यह मानने के कई कारण है कि राज्य गठन के इन सत्रह सालो के भीतर भाजपा एंव काॅग्रेस के बीच उलझी रही प्रदेश की राजनीति अब नये विकल्पों की तलाश में आगे बढ़ना चाहती है तथा अपनी समस्याओं के समाधान व अन्य राजनैतिक फैसलो के लिऐ सरकार अथवा जनप्रतिनिधियों की ओर निहारने वाली जनता अब खुद अपने अन्दाज़ में अपनी लड़ाई लड़ना चाहती है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिऐ यह एकदम नया अनुभव है और सरकारी तन्त्र की मनमर्जी व नेताओ के मनमाने रवैय्ये के विरोध में अपने ही तरीके से सवालो को उठा रही जनता कुछ अलग करने के हठ के साथ इस दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास कर रही है। कहा नही जा सकता है कि इस तरह के प्रयासो का परिणाम क्या होगा और जनसेवा के स्थान पर व्यवसायिकता में बदलती दिख रही राजनीति में जनता के बीच आये इस व्यवहारिक परिवर्तन के क्या परिणाम देखने को मिलेंगे लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जनता में आ रही यह अलग तरह की जागरूकता सरकारों और पर्दे के पीछे सौदेबाज़ी करने वाले नेताओ को अवश्य बेनकाब करेगी तथा व्यापक जनहित के नाम पर मनमर्जी का खेल खेलने वाला सरकारी तन्त्र जनान्दोलनों की धमक व जनपक्ष के कठोर रवैय्ये के आगे घुटने टेकता दिखाई देगा। यह माना यह सबकुछ इतना आसान नही है और सत्ता की ताकत के समक्ष घुटने टेकते दिखते जनान्दोलनों के इस दौर में व्यवसायिकता के पुट के साथ काम कर रहे राजनैतिक दलो के मायाजाल को तोड़ पाना जनसामान्य व जनता की बात करने वाले सामाजिक संगठनो के लिऐ मज़ाक नही है लेकिन इतना तो तय दिखता है कि अब लोकतान्त्रिक भारत में आन्दोलनों के तौर-तरीके व जन सामान्य द्वारा अपने नेताओ पर विश्वास करने के कारण, तेज़ी से बदल रहे है और इन बदलती हुई आस्थाओं के दौर में किसी भी सरकार, राजनैतिक दल अथवा राजनेता के लिऐ यह कह पाना आसान नही है कि वह सिर्फ नारो एंव लोकलुभावन वादो के दम पर आसानी के साथ अपना कार्यकाल पूरा करने में सफल होगा।

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