उत्तराखंड के शिक्षा मंत्री अरविंद पाण्डेय द्वारा निजी व पब्लिक स्कूलों के संदर्भ में लिए गए हालिया निर्णय से हड़कम्प की स्थिति
राजधानी देहरादून समेत उत्तराखंड के तमाम अन्य मैदानी व कुछ संख्या में पर्वतीय क्षेत्रों में खुले पब्लिक स्कूलों की मनमानी पर लगाम लगाने की दिशा में बड़ा कदम उठाते हुए राज्य के शिक्षा मंत्रालय ने जब एनसीआरटी द्वारा प्रकाशित पुस्तक-पुस्तिकाओं को ही कोर्स में लागू करने का नियम बनाया तो इन निजी स्कूलों के संचालक बिलबिला उठे और शिक्षा मंत्री पर कई स्तरों से दबाव डालने के बाद भी किसी नतीजे तक न पहुंचने की स्थिति में इन स्कूलों के मालिकों व संचालकों ने सामूहिक हड़ताल का फैसला लिया लेकिन स्कूलों की इस हड़ताल को संज्ञान में लेते हुए राज्य के उच्च न्यायालय ने छात्र-छात्राओं के भविष्य को मुद्दा बनाते हुए इन स्कूलों को तत्काल प्रभाव से खोले जाने की चेतावनी दी जिस मजबूरी के चलते हाथ मलते नजर आ रहे इन स्कूलों के संचालक अथवा मालिक चोरी-छुपे या फिर जोर-जबरदस्ती के साथ एनसीआरटी द्वारा प्रकाशित पुस्तकों के अलावा अन्य निजी लेखकों व पब्लिकेशरों द्वारा प्रकाशित पुस्तकों को अभिभावकों के बीच खपाने की राह तलाश रहे हैं। वर्तमान में बाजार ऐसी किताबों से अटा पड़ा है और मजे की बात यह है कि इन किताबों के व्यापार में टैक्स का भी बड़ा हेर-फेर है लेकिन छुटपुट छापेमारी के अलावा सरकारी तंत्र का कोई भी हिस्सा शिक्षा मंत्री की इस मुहिम को सहयोग करता नहीं दिख रहा और न ही यह महसूस किया जा रहा है कि अभिभावक इस बड़ी राहत के बाद एकजुट होकर सरकार का फैसला लागू करवाने के लिए प्रयासरत् है। इससे पूर्व में भी सरकारी तंत्र द्वारा इन निजी स्कूलों पर नकेल डालते हुए एक ही छत के नीचे उपलब्ध करवायी जाने वाली ड्रेस, कापी-किताब व अन्य सामग्री के खिलाफ मुहिम छेड़ी गयी है तथा हर माह लिए जाने वाले शिक्षण शुल्क के अलावा अन्य तमाम तरह की वसूली व प्रतिवर्ष के हिसाब से स्कूलों द्वारा लिए जाने वाले प्रवेश शुल्क को लेकर भी सरकार के अपने तमाम आदेश हैं लेकिन इन स्कूल संचालकों की मनमर्जी व दादागिरी के आगे सरकार की एक नहीं चलती और सरकार के तमाम पैंतरे इनकी धंधेबाजी व शिक्षा के व्यापार के नाम पर की जाने वाली लूट के सामने बेबस दिखाई देते हैं। यह ठीक है कि सरकार द्वारा बनाये गए आरटीई कानून की जद में आने के बाद शिक्षा की इन तथाकथित दुकानों का एक हिस्सा कुछ निर्धन व असहाय छात्र-छात्राओं को निशुल्क शिक्षा दे रहा है और इसी क्रम में सरकार कुछ अन्य दलित व निचली जातियों के बच्चों के प्रवेश भी इन स्कूलों में सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास कर रही है लेकिन इस सबकी एवज में सरकार द्वारा निर्धारित की गयी एक निश्चित धनराशि इन स्कूलों को दिए जाने का प्रावधान है और कोई भी निजी अथवा पब्लिक स्कूल ऐसा नहीं है जो व्यापक जनहित में इस दावेदारी को छोड़ने की बात करता हो। उपरोक्त के अलावा शिक्षण शुल्क के नाम पर अभिभावकों से मोटा शिक्षण शुल्क वसूलने वाले इन तमाम स्कूलों में युवाओं व बेरोजगारों का हर स्तर पर शोषण किया जाता है क्योंकि उनके वेतन या काम के घंटे निर्धारित करने का कोई मानक नहीं है और कानूनी पेचीदगी का सहारा लेते हुए इन तमाम स्कूलों के प्रबंधक व मालिक वर्ग अपने वहां होने वाले अधिकांश श्रमिक विवादों को श्रम न्यायालय में चर्चा का विषय ही नहीं बनने देते लेकिन इस सारी लूट व शोषण के लिए अकेले पब्लिक स्कूल ही जिम्मेदार नहीं है और न ही यह कहा जा सकता है कि देश में पूरी तरह गुण्डाराज कायम हो गया है जिसके कारण शिक्षा के इन तथाकथित मंदिरों में खुलेआम आदमी की जेब पर डाका डाला जा रहा है। अगर शिक्षा के क्षेत्र में सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों व तंत्र की उपलब्धियों पर चर्चा करें तो हम पाते हैं कि देश की आजादी के तत्काल बाद या फिर इससे पहले की सरकारें आम आदमी को शिक्षित करने की दिशा में ज्यादा सजग थी और अंग्रेजी शासन व्यवस्था ने तो शिक्षा के प्रचार-प्रसार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हुए अपने राजकाज व धर्म प्रसार का एक हिस्सा बनाया था लेकिन इधर पिछले दो-तीन दशकों में सरकार ने शिक्षा क्षेत्र में बजट आवंटन को कम करते हुए इसे एक व्यवसायिक स्वरूप प्रदान कर खुले बाजार के हवाले कर दिया। शुरूआती दौर में तो सब ठीक चला और यह माना गया कि सरकारी लालफीताशाही व कामचोरी से इतर यह निजी व पब्लिक स्कूल छात्र-छात्राओं को बेहतर शिक्षा प्रदान करते हुए राष्ट्र के भविष्य निर्माण में अहम् भूमिका निभा सकते हैं। शायद यही वजह रही कि हमारे कुलीन तबके व मध्यम वर्ग ने देश के विभिन्न हिस्सों में सीमित संख्या में खुले इन स्कूलों को हाथों-हाथ लिया और इनमें अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए समाज के एक हिस्से के बीच हर तरह की मारामारी दिखाई देने लगी। नतीजतन काम-धंधों की नई राह तलाश रही नवधनाड्यों की पीढ़ी का ध्यान इस ओर गया और स्कूल के व्यवसाय को फायदे का सौदा समझकर तमाम बड़े उद्योगपतियों समेत कई छोटे व्यवसायियों ने भी इसमें हाथ आजमाने शुरू कर दिये जिसके चलते शिक्षा का प्रचार-प्रसार एक सेवा या सरकार की जिम्मेदारी न रहकर रातों-रात फायदे के धंधे में तब्दील होता चला गया और इस क्षेत्र में पैसा लगाने वाले व्यवसायियों ने रातों-रात करोड़पति बनने के लिए अपने अलग कायदे कानून बनाये। सरकार यह मानकर खुश थी कि इस तरह की प्रतिस्पर्धा के चलते मैदान में नये खिलाड़ी आ जाने से न सिर्फ उसकी जिम्मेदारी कम होगी बल्कि सरकारी कर्मकारों के रूप में काम कर रहे शिक्षक गुणवत्ता के दौर में अपना वजूद बनाये रखने के लिए ज्यादा मेहनत से काम करेंगे लेकिन तत्कालीन उ.प्र. समेत देश के अन्य तमाम राज्यों की सरकारों ने राजनैतिक कारणों से इन सरकारी स्कूलों के पढ़ाई के तौर-तरीके व गुणवत्ता में वांछित सुधार किया जाना स्वीकार नहीं किया और न ही बदलते परिवेश के हिसाब से शिक्षकों को नये ढांचे में ढालने की जरूरत ही महसूस की गयी। उपरोक्त के अलावा सरकारी तंत्र ने अपने खर्च कम करने के नाम पर सरकारी स्कूलों के शिक्षकों से जनगणना, मतगणना या फिर अन्य तरह की तमाम सरकारी सेवाओं को लिया जाना भी जारी रखा तथा समय-समय पर वेतन वृद्धि व अन्य मांगों को लेकर होने वाली लम्बी-लम्बी हड़तालों ने भी इन तमाम सरकारी स्कूलों का बंटाधार करने में अहम् भूमिका अदा की। एक समय ऐसा आया जब शिक्षा के प्रति जागरूक तत्कालीन युवा पीढ़ी व अभिभावकों ने यह मान लिया कि समय के साथ कदमताल करने व बेहतर जीवन यापन की दृष्टि से सरकारी नौकरी या अन्य रोजगार करने के लिए इन सरकारी स्कूलों की जगह निजी व पब्लिक स्कूलों की ओर रूख करना ही श्रेयकर है और हालातों के मद्देनजर तमाम सरकारी कर्मकारों व नौकरशाहों ने अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए सरकारी स्कूलों से पल्ला झाड़ निजी व पब्लिक स्कूलों की ओर रूख किया जिसकी देखादेखी व्यापारी समुदाय व नेता भी इसी ओर भागे। ऐसा नहीं है कि सरकार का ध्यान इस ओर नहीं गया और सरकारी स्कूलों में तेजी से गिर रही छात्र संख्या से चिंतित सरकारी तंत्र ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किए लेकिन राजनैतिक जरूरतों को पूरा करने तथा शिक्षा के व्यापार में रम चुके पूंजीपति वर्ग के दबाव में सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनैतिक दलों ने सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण करने के स्थान पर इन्हें दाल-भात बांटने के केन्द्रों में तब्दील करना ज्यादा बेहतर समझा। नतीजतन शिक्षा का महत्व समझ चुकी तत्कालीन पीढ़ी के समक्ष सरकारी स्कूलों का मोह छोड़कर निजी व पब्लिक स्कूलों की ओर रूख करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा और शिक्षा के व्यापार में दखल दे चुके माफिया वर्ग ने आम आदमी की इस लाचारी का जमकर फायदा उठाना शुरू कर दिया। शिक्षा को माफिया किस्म की व्यवसायी मानसिकता से मुक्त कराने की दिशा में उत्तराखंड के शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे का वर्तमान प्रयास एक नजीर तो कायम कर सकता है लेकिन इस नजीर के माध्यम से हम व्यवस्था में गुणात्मक सुधार की कोई उम्मीद नहीं कर सकते और न ही यह सम्भव दिखता है कि राज्य के सरकारी स्कूलों की दिशा व दशा में मूलभूत परिवर्तन के बिना हम राज्य के नौनिहालों का भविष्य उज्जवल बना सकते हैं। यह माना कि पाण्डेजी के इस मात्र एक कदम से शिक्षा माफियाओं में हड़कम्प की स्थिति है और अभिभावक बिना किसी लाभ के ही खुद को राहत में महसूस कर रहे हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या इस किस्म की कानूनी बाजीगिरी के माध्यम से देश के भावी कर्णधारों का भविष्य सुरक्षित बनाया जा सकता है और निजी स्कूलों के अल्प वेतनभोगी अध्यापकों द्वारा मन-बेमन से दान दी जा रही शिक्षा व ट्यूशन या कोचिंग के नाम पर शुरू हो चुकी शिक्षा को बेचने की योजनाओं के माध्यम से कुशल डाक्टर, इंजीनियर व वैज्ञानिक पैदा किए जा सकते हैं। आंकड़े गवाह हैं कि शिक्षा के व्यापारियों द्वारा बाजार में प्रस्तुत की गयी लगभग हर खेप में से अधिकांश युवाओं की शैक्षणिक योग्यता सिर्फ कागजों व डिग्रियों तक सिमटी हुई है और शिक्षित बेरोजगारों की यह फौज देश व सरकार के लिए अलग किस्म की समस्याएं खड़ी कर रही हैं। यदि हमारा आंकलन सही है तो यह वक्त पाण्डेय जी की वाहवाही का नहीं बल्कि सजग व सचेत होने का है।