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Thursday, March 28, 2024

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एक कदम आगे की ओर

क्या वाकई खुले में शौच प्रथा से मुक्त होने का लक्ष्य प्राप्त कर चुके है हम और इसके अनुकूल परिणाम देंगे देश व समाज को फायदा।
सरकारी तंत्र खुश है कि उसने उत्तराखंड को खुले में शौच प्रथा से मुक्त राज्य बना लिया है और राज्य सरकार इसे अपनी एक बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत कर रही है लेकिन इससे पहले भी हमारे पास सिर्फ आंकड़ों में लक्ष्य को हासिल करने की खबरें आती रही है और अगर वास्तविकता के नजरियें से देखे तो इस खबर के सही होने की स्थिति में भी इसमें ऐसा कुछ नही है जिसपर वाकई में हर्ष व्यक्त किया जाय क्योंकि पेयजल की सुनिश्चितता व उपलब्धता के बगैर इस लक्ष्य को शत्-प्रतिशत् हासिल कर लेने के बावजूद इसका जनसामान्य को कोई फायदा नही होना है। हमने देखा है कि सिर्फ चार धाम यात्रा मार्गो में ही नही बल्कि प्रदेश के अधिकांश सरकारी विद्यालयों एवं काॅलेजों में भी लक्ष्य को प्राप्त करने या फिर सरकारी धन को खपाने के उद्देश्य से बनाये गये यह शौचालय न सिर्फ व्यवस्था को मुंह चिढ़ा रहे है बल्कि इनमें एकत्र हो चुकी गन्दगी विभिन्न आबादी क्षेत्रों में बिमारियों का नया कारण बन रही है। शौचालयों में नियमित इस्तेमाल की दृष्टि से आवश्यक जल के प्रबन्धन की कोई व्यवस्था न होना तथा सार्वजनिक क्षेत्र के शौचालयों हेतु सफाई कर्मियों का पूर्ण आभाव स्थानीय जनता, तीर्थ यात्रियों या फिर विद्यार्थियों को मजबूर करता है कि वह अपनी लघु एवं दीर्घ शंकाओं से निवृत्त होने के लिऐ खुले आसमान के नीचे या फिर पेड़ व झाड़ियों के ओने-कोने में सुरक्षित जगहों की तलाश करें लेकिन सरकारी तंत्र अपनी काबिलीयत दिखाने की नीयत से इन तमाम अव्यवस्थाओं को ढ़ककर लक्ष्य की प्राप्ति का ढ़िढ़ोरा पीटना चाहता है और इसके लिऐ उसने ठीक अवसर का चुनाव करते हुये नवगठित सरकार के कामकाज के शुरूवाती दिनों की उपलब्धियों में इसे शामिल किया है। हो सकता है कि घर के भीतर या नजदीक, शौचालय के निर्माण को लेकर रखे गये सरकारी लक्ष्य को विभिन्न सम्बन्धित विभागों की मदद से पूरा कर लिया गया हो और अपनी वाहवाही लूटने के लिऐ कुछ मतलबपरस्त अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के या फिर चलते-फिरते शौचालयों को मंत्रियों या स्थानीय विधायकों के हाथों उद्घाटित भी करवा लिया हो लेकिन सवाल यह है कि क्या इस संदर्भ में तमाम सरकारी भुगतान किये बिना कोई भी सरकारी ऐजेन्सी या तंत्र यह घोषणा कैसे कर सकता है कि उसने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है और इस तथ्य के सैकड़ों प्रमाण उपलब्ध कराये जा सकते है कि सरकार द्वारा मात्र अनुदान प्राप्त करने के झांसे में कई ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में सार्वजनिक व निजी शौचालयों का निर्माण किया गया है तथा इस्तेमाल किये जाने पर खराब हो जाने के बाद अनुदान राशि व लागत न मिलने की डर से यह सिर्फ सफेद हाथी साबित हो रहे है। उपरोक्त के अलावा उत्तराखंड के तमाम ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में ही नही बल्कि अधिकतर शहरी इलाकों में भी स्पष्ट दिखने वाला पेयजल संकट खुले में शौच की व्यवस्था बंद किये जाने सम्बन्धी सरकारी लक्ष्य को मुंह चिढ़ाता प्रतीत होता है और यह तथ्य किसी से छुपा नही है कि अपनी रोजाना की दिनचर्या में कोसो मील पैदल चलकर अपने-अपने पालतू पशुओं के पीने व अन्य दैनिक जीवन में इस्तेमाल के लिऐ एकत्र किये गये जल को यूँ ही शौचालय में बहा देने के पक्ष में वह महिलाऐं ही नही दिखाई देती, जिनके लिऐ इन शौचालयों को हर दृष्टि से सुरक्षित बताया जा रहा है। शहरी क्षेत्रों व महानगर कहलायें जाने वाले देहरादून, हल्द्वानी, रूद्रपुर, काशीपुर या रूड़की, आदि क्षेत्रों में तो यह हालत और ज्यादा खराब है, क्योंकि यहाँ खुले में शौच की परम्परा पर लगभग अघोषित प्रतिबंध लगने से न सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र के शौचालयों का हाल खराब है बल्कि तमाम नदी, नालों व कुछ मौहल्ले की नालियों के किनारों तक में मानव जनित मल के अम्बार विभिन्न बीमारियों को आंमत्रित करते दिखाई दे रहे है तथा मानवीय प्रगति व शहरों के विकास की प्रतीक मानी जाने वाली भूमिगत् सीवर लाईन के सामान्य अवसरों में कभी-कभी किन्तु वर्षा ऋतु मे अधिकांशतः सड़कों पर होने वाले जल प्रवाह ने इन विकसित क्षेत्रों को नर्क बनाकर रख दिया है। इन तमाम व्यवस्थाओं को सुदृढ़ किये बिना अगर हम यह कहते है कि हमने खुले में शौच की व्यवस्था को बंद करने के लक्ष्य को शत्-प्रतिशत् हासिल कर लिया है तो हम या तो लक्ष्य के प्रति गंभीर ही नही है या फिर हमारा विकास सम्बन्धी कार्यक्रम सिर्फ कागजों तक सीमित है। इस सबके अलावा हम अभी तक यह साबित नही कर पाये है कि अंधाधुंध तरीके से व लक्ष्य को हासिल करने के लिऐ किये जा रहे शौचालयों के निर्माण में भूमिगत् टैंको के माध्यम से किये जा रहे भूर्गीय जल प्रदूषण की रोकथाम के लिऐ हमने क्या उपाय किये है और न ही हम अपने नदी-नालों को तमाम शहरों, कस्बों या फिर आश्रमों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषित जल से मुक्त करने की दिशा में आगे बढ़ पाये है। कहीं ऐसा तो नही है कि एक लक्ष्य को हासिल करने की जिद में हम जाने-अनजाने में आकूत जल के उस विशाल भण्डार को प्रदूषित करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हो जो कि मानवता को प्रकृति की सबसे बड़ी नियामत माना जाता है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि लक्ष्य को हासिल करने की जिद में पहाड़ों पर लगाये गये हैंड पम्पों व बेतरतीब बनी पानी की टंकियो के चलते हम स्थानीय व सदाबहार जल श्रोतो व प्रकृति द्वारा निर्मित भूमिगत् जल प्राप्ति के तमाम केन्द्रों को बड़ा नुकसान पहुँचा चुके है और अब इन तमाम जल श्रोतों, कुँओं, नौलो व खालों के इर्द-गिर्द बसी पहाड़ी आबादी के रिहायशी क्षेत्रों में ही हो रहा शौचालय का निर्माण तथा इन शौचालयों में उत्सर्जित मल को एकत्र करने के लिऐ बनाये गये भूमिगत् सैफ्टी टैंको से होने वाले जल रिसाव के चलते हम अमृत समान पहाड़ के स्वच्छ व शुद्ध जल को प्रदूषित कर सम्पूर्ण मानवता के लिऐ खतरा पैदा करने की दिशा में आगे बढ़ रहे है। इन हालातों में स्वच्छ भारत अभियान के नारे के साथ समस्त उत्तराखंड को खुले में शौच से मुक्त करने के लक्ष्य को हासिल करने पर सरकार को किस तरह अपने भावों को व्यक्त करना चाहिऐं, यह हमारी समझ से परे है और हम यह समझ पाने में भी असमर्थ है कि व्यापक जनहित के दावे के साथ सरकार बनाने व चलाने का दम्भ भरने वाली राजनैतिक व्यवस्थाऐं व विचारधाराऐं यह कैसे मान सकती है कि वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नौकरशाही के सरकारी आंकलन व कागजी सर्वेक्षणों के आधार पर बनायी गयी कोई भी योजना विविधताओं से भरे सम्पूर्ण भारतवर्ष में एक साथ व एक ही जैसे मानकों के साथ लागू की जा सकती है।

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