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Saturday, April 20, 2024

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एक बार फिर

विभिन्न विषयों व विषयवस्तुओं को मन की बात के माध्यम से देश की जनता के बीच ले जाने में असफल देश के प्रधानमन्त्री ने अब बदल ही देनी चाहिऐ अपनी यह तकनीक क्योंकि मीडिया के पूरे समर्थन व सहयोग के बावजूद लोकप्रियता खोता जा रहा है यह कार्यक्रम।

अपने ‘‘मन की बात‘‘ के ज़रिये जनसाधारण के बड़े हिस्से तक पहुॅचने का प्रयास करने वाले देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बार जीएसटी को लेकर चल रही चर्चाओं तथा इसे लागू किये जाने के बाद देश को हुऐ आर्थिक नफे-नुकसान के साथ ही साथ इसे लेकर व्यापारी वर्ग में फैली भ्रान्तियों व चर्चाओं को अपने सम्बोधन का हिस्सा बनाया और राष्ट्र के मुख्य सेवक द्वारा जनता के नाम किये गये इस सम्बोधन से ऐसा लगा कि मानो प्रधानमंत्री यह घोषणा कर रहे हो कि एक देश-एक कर के नारे के साथ केन्द्र सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम ऐतिहासिक होने के साथ ही साथ देश की अर्थव्यवस्था में क्रान्तिकारी बदलाव लाने वाला साबित हुआ है। हाॅलाकि कर सुधार के क्षेत्र में एक वर्ष लम्बा अन्तराल गुज़र जाने के बावजूद एक आम व्यापारी का इसे लेकर संतुष्ट न दिखना तथा जीएसटी के मामले में लगातार हो रहे सुधारों व संशोधनो के बावजूद व्यापारियों के बड़े वर्ग द्वारा इसमें कई अन्य रियायतों की माॅग करना यह साबित करता है कि भारत सरकार ने इसे कुछ ज्यादा ही जल्दबाज़ी में व बिना किसी पूर्व तैयारी के लागू किया और अब इसके बाज़ार व रोज़गार पर पड़तें विपरीत प्रभाव को देखते हुऐ देश के प्रधानमन्त्री ने खुद इस मुद्दे पर जन्म ले रही भ्रान्तियों व जनता के बीच पड़ रहे इसके नकारात्मक प्रभाव से बचने के लिऐ मन की बात कहने के बहाने कमान सम्भाली है लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रधानमन्त्री का यह कदम देश के उन तमाम छोटे व्यापारियों(लाला समुदाय) को भाजपा के साथ जोड़े रखने में कामयाब रहेगा जो न सिर्फ भाजपा की राजनैतिक रीढ़ मानी जाने वाली संघ की विचारधारा के पोषक है बल्कि जिन्होने भाजपा को खड़ा करने अथवा संघ के ऐजेण्डे को मज़बूती के साथ रखने के लिऐ हमेशा ही भामाशाह बनकर अपनी थैलियाॅ खोली है। सुना है कि व्यापारियों का यह बड़ा तबका सरकार से नाराज़ है और उसकी नाराज़गी अपनी कमायी कम होने या फिर इन चार वर्षो के दौरान सरकारी व्यवस्था के उसकी कसौटी पर खड़ी उतरने को लेकर नही है बल्कि वह सरकार द्वारा कर निर्धारण के इस तरीके में बढ़ाये गये कानूनी झंझट व इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के बाद बाज़ार में आयी मन्दी से नाराज़ है तथा आकड़ो के आधार पर सरकार द्वारा निर्धारित नियमों के तहत जमा किये गये कर की वापसी व इसी तरह के अन्य झंझटो को देखते हुऐ यह कहा जा सकता है कि लाला समुदाय की यह नाराज़ी गैरवाजिब नही है लेकिन सरकार की मजबूरी है कि वह अपने इस आगे बढ़े कदम को इस चुनावी वर्ष में वापिस नही ले सकती और न ही इस तथ्य को स्वीकार कर सकती है कि सारे देश में एक साथ जीएसटी लागू करने के बाद न सिर्फ अनेक राज्यों की वार्षिक आय में कमी देखी गयी है बल्कि संस्थागत् खामियों व तकनीकी व्यवधानों के चलते नियमतः करो का भुगतान करने वाला व्यापारी समुदाय इस वक्त ज्यादा ही परेशान है। यह माना कि किसी नयी व्यवस्था को अंगीकार करने में कुछ समय तक तकनीकी खामियों व विभागीय कमजोरियों के कारण कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है और स्वभावतः सामान्य लगने वाले कुछ बदलाव किसी राष्ट्र की आर्थिक सुदृढ़ीकरण की दिशा तय करने में दूरगामी प्रभाव डालते है लेकिन इसका तात्पर्य यह तो नही है कि आप व्यवस्था में अपेक्षाकृत सुधार की माॅग करने वाले या फिर एक नयी प्रक्रिया में आ रही तकनीकी खामियों की ओर सरकार का ध्यान इंगित कराने वाले समुदाय विशेष को चोर, राष्ट्रद्रोही अथवा भ्रष्ट जैसे सामाजिक विशेषणों से नवाज़ दे। पिछले दिनो हुआ कुछ ऐसा ही है और भाजपा के छुटभैय्ये नेताओ व मोदी भक्तो ने ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिष्ठित स्थान रखने वाले भाजपा के तमाम बड़े नेताओ व सरकार के ज़िम्मेदार पदो पर बैठे लोकसेवको ने भी जीएसटी कर निर्धारण में आ रहे बड़े गतिरोध व इसकी खामियों या कमजो़रियों की बात करने वाले व्यापारी संगठनो को न सिर्फ जमकर खरी-खोटी सुनाई है बल्कि लालाओ के एक वर्ग विशेष पर तो कर चोरी को लेकर तमाम तरह के संगीन इल्जा़म भी थोप दिये गये है। नतीजतन इस वर्ग के बीच सरकार से कही ज्यादा भाजपा के संगठनात्मक पहलुओं को लेकर नाराज़ी है और यह माना जा रहा है कि अगर छोटे व्यापारियों का यह बड़ा तबका सरकार की खिलाफत करने का मन बना लेता है तो भाजपा अथवा मोदी की एक बार फिर सत्ता में वापसी की सम्भावनाऐं क्षीण हो सकती है। लिहाजा़ इन तमाम विषयों को ध्यान में रखते हुऐ देश के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी का जीएसटी को लेकर मन की बात के बहाने मोर्चे पर आ डटना स्वाभाविक माना जा सकता है और जीएसटी लागू किये जाने के ठीक एक वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर सरकार की कार्यक्षमता व कार्यशैली पर उठने वाले सवालो से बचने के लिऐ यह एक बड़ा रक्षात्मक कदम माना जा सकता है। हाॅलाकि मोदी भक्त व मीडिया का एक बड़ा हिस्सा यह मान कर चल रहे थे कि ‘‘मन की बात‘‘ के इस ताज़ातरीन बुलेटिन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कश्मीर की समस्या व भाजपा के वरीष्ठ नेता के रूप में वहाॅ लगभग तीन साल सरकार चलाने के अनुभव अथवा समर्थन वापसी पर खुलकर बोलेंगे और कश्मीर व पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रो पर आये दिन होने वाली फौज़ी झड़पों तथा इन झड़पों के दौरान शहीद होने वाले सैनिको के बारे में खुलकर कुछ कहा जायेगा लेकिन एक तजुर्बेकार नेता के रूप में मोदी जी ने महसूस किया होगा कि कश्मीर का मुद्दा एक भावनात्मक मुद्दा है और जम्मू- कश्मीर में लगातार तीन वर्षो तक सत्ता में भागीदारी करने के दौरान तमाम विषयों पर भाजपा के नेताओ द्वारा ओढ़ी गयी खामोशी इस वक्त कई गम्भीर सवाल खड़े कर सकती है। लिहाजा़ प्रधानमंत्री द्वारा इस मौके का बेहतर इस्तेमाल करते हुऐ ‘‘मन की बात‘‘ के माध्यम से जीएसटी को मुख्यतः केन्द्र में रखा गया और इस गम्भीर विषय में जनता की अभिरूचि जगायें रखने के लिये इसके बीच-बीच में डाॅ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जलियाॅ वाला बाग, आजा़दी के इतिहास व इस दौरे की शहादतों तथा अहिसां के सिद्धान्त व कबीर से लेकर गुरूनानक देव तक के कई सन्तो व महात्मोओं को शामिल किया गया लेकिन अगर राजनैतिक नफे-नुकसान की दृष्टि से देखा जाये तो इस सारी जद्दोज़हद का भाजपा को आगामी चुनावों में कोई बड़ा फायदा होने वाला नही है क्योंकि इन चार वर्षो में न सिर्फ प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की विश्वसनीयता में कमी आयी है बल्कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत् खोज कही जा सकने वाली ‘‘मन की बात‘‘ जैसी तकनीकी गतिविधियों के प्रति भी जनता के आकृर्षण में कमी साफ महसूस की जा रही है। हमने देखा और महसूस किया है कि देश के प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जी ने जब सूचना संचार के पुराने माध्यम के रूप में आकाशवाणी को प्राथमिकता देते हुऐ ‘‘मन की बात‘‘ के माध्यम से एक नये अध्याय की शुरूवात की थी तो जनता ने इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को हाथोहाथ लिया था और यह माना गया था कि जनता के बीच एक सन्देश देने का यह तरीका कुछ ही अन्तराल में लोकप्रियता की हदो को लाॅघते हुऐ इतिहास में दर्ज करने योग्य विषय-वस्तु बन जायेगा लेकिन अफसोस एक कुशल वक्ता होने के बावजूद नरेन्द्र मोदी इस तारतम्यता को कायम न रख सकें और विवशताओं अथवा अन्य किन्ही कारणों से ज्वलन्त मुद्दो को छोड़कर इधर-उधर के विषयों की ओर भटकती ‘‘मन की बात‘‘ के लिऐ जा़ेर-ज़बरदस्ती श्रोता जुटाने की मजबूरी के तहत देश की तमाम सरकारी अथवा अर्ध सरकारी स्कूलो में टेलीविजन से लेकर डिश एन्टीना व जेनरेटर तक सारा तामझाम एकत्र करने के लिऐ परेशान हुऐ हेडमास्टर अथवा अन्य अध्यापक वर्ग इस बात का सबूत है कि जनपक्ष अब पूरी तरह मोदी के साथ नही है। यह अलग से चर्चा का विषय है कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मन की बात देश के नौजवान पीढ़ी व बच्चो तक पहुॅचाने के लिऐ आतुर सरकार ने उपरोक्त तामझाम जुटाने में हुऐ गरीब मास्टर के खर्च की भरपाई के लिऐ क्या रास्ता निकाला और उधार की व्यवस्थाओं के तहत सुनी गयी ‘‘मन की बात‘‘ को देश के भावी कर्णधारों तक पहुॅचाने के लिऐ अध्यापकों को किस हद जलालत का सामना करना पड़ा लेकिन अगर सवाल सिर्फ एक कार्यक्रम की सफलता या असफलता का है तो सरकार व देश के प्रधानमंत्री के पास अभी भी वक्त है कि उन्हे अपने मन की बात कहने की जगह अब जनता की बात कहना और समझना शुरू कर देना चाहिऐ।

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