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Friday, April 19, 2024

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बदलाव के नाम पर

व्यापक जनहित में निजी स्कूलों के संचालकों या प्रबन्धकों पर लगाम लगाने का दावा करने वाली उत्तराखंड सरकार शिक्षा व्यवस्था की बदहाली पर मौन।
शिक्षा के क्षेत्र में नये दावों व सुधारों की घोषणा के साथ ही उत्तराखंड के प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा के मंत्री अरविन्द पाण्डेय ने एक बार फिर कहा है कि वह निजी स्कूलों द्वारा की जा रही लूट के खिलाफ अभियान चलाते हुए अभिभावकों को राहत दिलाने के लिए प्रयासरत् हैं। हालांकि दावे व वादे तो राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री की ओर से भी बहुत किये जा रहे हैं और अपने संघी सम्पर्कों के दम पर उच्च शिक्षा क्षेत्र के राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) नित नई-चर्चाओं में बने रहने में सफल भी हैं लेकिन राज्य में निजी व सरकारी क्षेत्र के माध्यमिक व प्राथमिक विद्यालयों की बहुतायत तथा बदलते हुए सामाजिक परिवेश के कारण राज्य के लगभग हर परिवार का माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा व्यवस्था से सीधा सम्पर्क इस विभाग के मंत्री अरविंद पाण्डेय की खास अहमियत बनाये हुए है और यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि अपने कुछ हालिया फैसलों के माध्यम से अरविंद पाण्डेय ने अभिभावकों की उम्मीदें बढ़ा दी हैं। निजी स्कूलों द्वारा प्रकाशकों के साथ मिलीभगत कर ऊंचे दाम पर बेची जाने वाली पुस्तकों की अनिवार्यता पर रोक लगा एनसीआरटी की किताबों को लागू करने के अपने आदेश के बाद शिक्षा मंत्री व उत्तराखंड सरकार का कहना है कि वह अब स्कूलों द्वारा लिये जाने वाले अनाप-शनाप शिक्षण शुल्क, प्रवेश शुल्क व अन्य मदों में वसूली जाने वाली धनराशि के मामले में निजी स्कूलों पर नजर रखेंगे और स्कूल ड्रेस या अन्य जरूरत योग्य सामग्री की खरीद के लिए कमीशन के आधार पर दुकानें नियत करने के खेल पर अंकुश लगाया जायेगा। वास्तव में यह तमाम फैसले अभिभावकों को राहत पहुंचाने वाले हैं और निजी स्कूलों से जुड़ी चर्चाओं के दौरान अक्सर यह महसूस किया जा रहा है कि इस संदर्भ में कोई व्यापक कदम उठाते हुए अंकुश लगाया जाना जरूरी है लेकिन इस तरह की तमाम फौरी व्यवस्थाओं के बीच सरकार व अभिभावकों के हितों को लेकर चिंतित विभागीय मंत्री ने इन स्कूलों की पढ़ाई को लेकर दो शब्द भी नहीं कहे और न ही तथाकथित रूप से अभिभावकों के हितों की मांग उठाने वाले किसी संगठन ने मंत्री अथवा मुख्यमंत्री के साथ अपनी मुलाकात या फिर धन्यवाद ज्ञापन जैसे प्रदर्शन के दौरान यह मांग नहीं रखी कि स्कूल फीस के नाम पर ठीक-ठाक वसूली कर रहे इन स्कूलों को अपने परिसरों में पढ़ाई कराने के लिए भी बाध्य किया जाय। हम यह देख व महसूस कर रहे हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से बदले माहौल के चलते बच्चों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है और बेहतर भविष्य के नाम पर उन्हें स्कूल की थका देने वाली दिनचर्या के बाद भी अतिरिक्त कक्षाएं या ट्यूशन पढ़ने के लिए बाध्य किया जा रहा है। ट्यूशन अथवा कोचिंग का धंधा विशुद्ध रूप से दो नम्बर का एक ऐसा व्यवसाय बन गया है जिसके माध्यम से अभिभावकों व विद्यार्थियों का आर्थिक व शारीरिक शोषण किया जा रहा है तथा इस शोषण के माध्यम से कमाई गई धनराशि पर किसी भी तरह का कर भी नहीं है। निजी स्कूलों के मालिक जानबूझकर ट्यूशन के इस काले कारोबार से मंुह मोड़े रहते हैं क्योंकि इसी लालच के चलते उन्हें आसानी के साथ सस्ते व योग्य अध्यापक कम वेतन में उपलब्ध हो जाते हैं या फिर कुछ स्कूल संचालकों ने तो इस दिशा में एक और कदम आगे बढ़ाते हुए अपने ही परिसरों में ट्यूशन का पार्टटाइम कारोबार शुरू कर दिया है। यह माना जा सकता है कि कुछ निजी अथवा पब्लिक स्कूल अपने छात्रों के बेहतर भविष्य को ध्यान में रखते हुए उन्हें एनसीआरटी द्वारा निर्धारित पुस्तकों के अलावा कुछ अन्य लेखकों व विद्वानों की पुस्तकें पढ़ने की सलाह देते हों और ज्ञानार्जन की दृष्टि से यह कदम तब तक गलत या लूटमार मचाने वाला नहीं कहा जा सकता जब तक कि सरकार यह साबित न कर ले कि इस तरह के व्यापार में करों की चोरी या फिर ओवर रेटिंग को बढ़ावा दिया जा रहा है। ठीक इसी प्रकार स्कूलों अथवा निजी संस्थानों में लिए जाने वाले शैक्षणिक शुल्क का निर्धारण विद्यार्थियों को दी जाने वाली सुविधाओं के आधार पर किया जाता है तथा मौजूदा माहौल में सरकार के आधीन चलने वाले प्राथमिक अथवा माध्यमिक विद्यालयों व निजी स्कूलों में ठीक वही फर्क है जो किसी शहर अथवा कस्बे में सड़क के किनारे लगने वाली रेड़ी या फिर किसी फाइवस्टार होटल अथवा माॅल में मिलने वाली खाद्य सामग्री की कीमतों में होता है। शायद यही वजह है कि वर्तमान दौर में निजी स्कूलों में प्रवेश पाने के इच्छुक अभिभावकों की लम्बी लाइनें व उच्च स्तर की सिफारिशें दिखाई देती हैं। इसलिए सब कुछ जानते व समझते-बूझते भी निजी स्कूलों के इस व्यवहार को पूरी तरह अनैतिक नहीं कहा जा सकता और न ही कोई व्यवस्था अपनी जोरआजमाईश के बाद इस व्यवसायिक अंदाज पर पूर्ण रोक लगा सकती है लेकिन छात्रों व अभिभावकों से मोटा शैक्षणिक शुल्क वसूलने वाले यह तमाम निजी शैक्षणिक संस्थान जब अपने दावों व वादों पर खरे उतरने के स्थान पर ठीक जेबकतरों वाले अन्दाज में अपना हिस्सा वसूलने के बाद छात्र व अभिभावकों के समूहों को जेब कटाने के लिए अपने अधीनस्थ शिक्षकों के हवाले कर देते हैं तो इस सम्पूर्ण प्रक्रिया से एक साजिश की बू आने लगती है और ऐसा प्रतीत होता है कि चंद पूंजीपतियों का समूह एक योजनाबद्ध अंदाज में आम आदमी को लूट रहा है। मजे की बात यह है कि लूटतंत्र पर टिकी इस व्यवस्था को लेकर अभिभावक व निजी स्कूलों पर चाबुक चलाने का दावा करने वाली सरकारी व्यवस्था दोनों ही मौन हैं और झूठे-सच्चे आश्वासनों या फिर रोक के दिखावटी अभियानों के माध्यम से सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के सरकारी प्रयास जारी हैं। यह सर्वविदित है कि सरकार के पास सुयोग्य व शिक्षित अध्यापकों की भरमार है और सरकारी भवनों मे चल रहे तमाम प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय देखरेख व मरम्मत के आभाव में दीन हीन दिखाई पड़ रहे हैं। सरकार अगर चाहे तो वह आसानी के साथ तमाम व्यवस्थाओं को ढर्रे में लाते हुए सरकारी स्कूलों की शैक्षणिक व्यवस्था में चार चांद लगा सकती है और वास्तविक अर्थाें में शिक्षण-प्रशिक्षण कार्य करने के इच्छुक अनुभवी अध्यापकों व बेरोजगार युवाओं के सहयोग से एक ऐसी व्यवस्था कायम की जा सकती है कि जन सामान्य को इन निजी स्कूलों की तरफ पलटकर देखने की जरूरत ही महसूस न हो लेकिन जिस व्यवस्था में निजी स्कूलों के संचालक मुख्यमंत्री के सलाहकार हां और सत्ता के शीर्ष पर काबिज होते ही नेताओं द्वारा लूट-खसोट वाले अन्दाज में लक्ष्य को निर्धारित करते हुए चन्दा एकत्र करने की जवाबदेही हो, तो वहां व्यापक जनहित की परिकल्पना ही कैसे की जा सकती है। लिहाजा कुछ न करते हुए जनता के बीच कुछ करते हुए दिखने की चाहत नेताओं व मंत्रियों को मजबूर कर रही है कि वह लच्छेदार भाषणों व लोकलुभावन घोषणाओं के जरिये समाज के एक वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करे तथा सरकार अपनी जिम्मेदारियों का बोझ कम करते हुए सरकारी स्कूलों को बंद करने व कर्मचारियों की अवकाश प्राप्ति के कारण रिक्त हुए पदों का शिथिलीकरण करने का खेल-खेलती रहे लेकिन यह सब कुछ कितने समय तक चलेगा और आय के सीमित संसाधनों के बावजूद चारों दिशाओं से लुटने को मजबूर जनता कब तक चुपचाप रहकर इस लूट तंत्र को झेलती रहेगी, कहा नहीं जा सकता। अगर कुछ कहा या समझा जा सकता है तो वह यह है कि बेबस व परेशान जनता को बेवकूफ बनाना अब एक फैशन सा हो गया है तथा फैशन की इस दौड़ में अपराधी, पूंजीपति, नौकरशाह व जनप्रतिनिधि एक दूसरे को पछाड़कर आगे निकल जाना चाहते हैं। मजे की बात यह है कि खुद को लोकतंत्र का पहरूआ घोषित करने वाला मीडिया का एक बड़ा हिस्सा लूट के इस माल में अपनी हिस्सेदारी वसूलता हुआ जनता को वही सब दिखा रहा है जो लुटेरों का यह एक तबका चाहता है। शायद यही वजह है कि वर्तमान में समाचारों में विज्ञापन व विज्ञापन में झूठ का अम्बार दिखना एक आम बात हो गयी है और विज्ञापन के इस मायाजाल से भरमाया आम आदमी तमाम मोर्चों पर सतर्कता के बावजूद झूठ के इस जंजाल में फंस ही जाता है।

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