राजनीति के मोर्चे पर | Jokhim Samachar Network

Friday, March 29, 2024

Select your Top Menu from wp menus

राजनीति के मोर्चे पर

संघर्ष के इन पांच सालों में आम आदमी पार्टी ने बनाया एक इतिहास
आंदोलन की कोख से निकली आम आदमी पार्टी अपने गठन के पांच वर्ष पूरे कर चुकी है और इन पांच वर्षों में वह न सिर्फ राजनैतिक चर्चाओं के केन्द्र में रही है बल्कि उसने चुनाव के मैदान में खुद को साबित भी किया है। कुछ लोगों का मानना है कि दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को मिली जीत, क्षणिक भावावेश व एक आंदोलन के दौरान उपजी राजनैतिक क्षुब्धता का नतीजा थी और तत्कालीन सरकार के खिलाफ उपजे आक्रोश को अरविंद केजरीवाल भली-भांति भुना पाये क्योंकि वह अन्ना के आंदोलन के प्रमुख चेहरे थे लेकिन अगर तथ्यों की गंभीरता पर गौर करें तो हम पाते हैं कि अन्ना के इस आंदोलन में और भी कई लोग थे जिन्होंने इस आंदोलन में मिली आंशिक सफलता व लोकप्रियता को भुनाने के लिए चुनावी राजनीति में कदम रखा किंतु वह बहुत ज्यादा सफल नहीं हो पाये जबकि केजरीवाल का जनता ने न सिर्फ बांहे फैलाकर स्वागत किया बल्कि मीडिया ने उन्हें प्रधानमंत्री के मुकाबले खड़ा कर एक ही झटके में राष्ट्रीय स्तर का नेता बना दिया। यह माना कि उस दौर में जनता के बीच से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जुनून आया और निर्भया मामले ने भी दिल्ली के युवाओं को काफी हद तक उद्देलित किया जिसमें आक्रोशित युवा की भूमिका अदा कर अरविंद युवा दिलों की चाहत बन बैठे लेकिन हमें यह भी मानना ही होगा कि उन्होंने बड़े ही व्यवस्थित तरीके से अपनी चुनावी रणनीति बनायी और कार्यकर्ताओं की सीमित संख्या के बावजूद वह दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश में यह संदेश देने में सफल रहे कि राजनीति में एक बड़े बदलाव की चाहत लिए देश की जनता केजरीवाल के साथ है। पहले ही झटके में दिल्ली की सल्तनत पर कब्जेदारी के बाद पूर्ण बहुमत न जुटा सकने की स्थिति में दिया गया उनका इस्तीफा और मोदी लहर के बावजूद बनारस लोकसभा क्षेत्र से प्रधानमंत्री पद के भारी भरकम दावेदार के खिलाफ उनके द्वारा ठोकी गई ताल इस बात का सबूत है कि राजनीति के सीमित अनुभव के बावजूद वह जनता की नब्ज पहचानने की कला जानते हैं और उनके नेतृत्व में आम आदमी पार्टी को कई राजनैतिक सफलताएं मिलने की संभावनाएं भी हैं। आम आदमी पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद अरविंद केजरीवाल अगर चाहते तो वह अपनी तात्कालिक लोकप्रियता को भुनाते हुए देश के सभी लोकसभा क्षेत्रों में अपना उम्मीदवार खड़ा कर सकते थे या फिर अन्य स्थापित राजनैतिक दलों द्वारा ठुकराये गए नेताओं व महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञों को आगे कर वह आम आदमी पार्टी के कोष व संगठनात्मक ढांचे को राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती प्रदान कर सकते थे लेकिन उन्होंने यह तमाम दावपेंच खेलने के स्थान चुनिन्दा लोकसभा क्षेत्रों में नये चेहरों व आंदोलन के दौरान अपना साथ देने वाले सहयोगियों को मैदान में उतारना ज्यादा उचित समझा और इसके परिणाम भी उन्हें सकारात्मक प्राप्त हुए। यह ठीक है कि लोकसभा चुनाव या फिर पंजाब व गोवा के विधानसभा चुनावों में उन्हें आपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी और दिल्ली की सत्ता पर दोबारा काबिज होने के बाद उनके तमाम अंदरूनी झगड़े भी सामने आए लेकिन मजे की बात यह है कि देश की अधिसंख्य जनसंख्या ने उनकी तमाम खामियों के सामने आने के बावजूद इसके लिए उनके स्थान पर विपक्ष विशेषकर केन्द्रीय सत्ता पर काबिज भाजपा को जिम्मेदार माना और दिल्ली प्रदेश की वर्तमान सरकार पर लगे कई तरह के आरोपों व आम आदमी पार्टी के विधायकों की कई बार सड़क पर हुई छिछालेदार के बावजूद आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो केजरीवाल व उनकी पार्टी पर लगे तमाम आरोपों को न सिर्फ नकारते हुए उसके पक्ष में हैं बल्कि उसे नरेन्द्र मोदी व राहुल गांधी से बड़ा नेता मानते हैं। राजनैतिक उतार-चढ़ाव के लिहाज से देखें तो यह एक बड़ी उपलब्धि है और तमाम क्षेत्रीय दलों व एक व्यक्ति विशेष की छाया पर टिके राजनैतिक दलों को इस स्थिति तक पहुंचने के लिए लंबे संघर्ष व गठबंधनों के कई दौर से गुजरना पड़ा है। वैसे भी अपने पहले प्रयास में ही लोकसभा की चार सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी वर्तमान राजनैतिक माहौल के हिसाब से कोई छोटी हैसियत नहीं रखती और न ही यह माना जा सकता है कि उसकी यह हैसियत क्षणिक अथवा आंदोलन का असर रहने तक ही सीमित रहेगी। हकीकत में देखा जाय तो वामपंथी आंदोलन के ‘लकीर के फकीर’ वाले अंदाज में पूंजीवाद के विरोध से उकताये नौजवानों व समाज में एक बदलाव चाहने वाले छात्रों के लिए आम आदमी पार्टी एक आदर्श बनती जा रही है और ऐसा देखा जा रहा है कि अपने छात्र जीवन में वामपंथी विचारधारा के प्रति आकर्षित दिखने वाले युवा एवं संगठित या असंगठित क्षेत्र में कार्यरत् श्रमिकों का एक बड़ा तबका जाने-अनजाने में आम आदमी पार्टी की ताकत बनता जा रहा है लेकिन सवाल यह है कि क्या केजरीवाल अकेले इतने बड़े जनसैलाब को संभाले रख पाएंगे। हमने देखा कि आम आदमी पार्टी के वैचारिक विरोधियों व प्रतिद्वंदी राजनैतिक दलों ने अपने राजनैतिक अनुभव व सत्ता पर कब्जेदारी का फायदा उठाते हुए इसकी राजनैतिक ताकत को कमजोर करने का पूरा प्रयास किया है और आम आदमी पार्टी से चुने गए जन प्रतिनिधियों के डराने-धमकाने, उन्हें जेलों में डालने या फर्जी मुकदमे दर्ज करवाने के अलावा उन्हें उनकी विचाराधारा से अलग करने का प्रयास लगातार जारी है लेकिन इसके साथ ही साथ केजरीवाल द्वारा भी आम आदमी पार्टी का संगठनात्मक ढांचा खड़ा करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है और न ही यह देखा गया है कि उन्हें संगठनात्मक स्तर की अंदरूनी समस्याओं व शिकायतों के निपटारे के लिए कोई अलग इंतजामात किए हैं। हालातों के मद्देनजर हम यह कह सकते हैं कि इन पांच सालों में मिली सफलता आम आदमी पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं व गठनकर्ताओं को उनके लक्ष्य के प्रति अभिप्रेरित एवं उत्साहित करती है और उसका एकाएक मटियामेट हो जाना या फिर सत्ता संघर्ष के मार्ग से हट जाना अब इतना आसान भी नहीं है लेकिन सवाल यह है कि उन उसूलों, आदर्शों और प्राथमिकताओं का क्या हुआ, जिन्हें लेकर अरविंद केजरीवाल अपने कुछ साथियों के साथ पांच साल पहले समाज सेवा व जनान्दोलन का मार्ग छोड़ते हुए राजनीति के मैदान में कूदे थे। हम यह तो नहीं कहते कि केजरीवाल व उनके सहयोगियों के विचारों में पहले से ही खोट था और वह बाजरिया जनान्दोलन जनता को बरगलाते हुए अपने सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य को हासिल करना चाहते थे जिसमें उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के बाद केजरीवाल व उनके साथी अपने लक्ष्य से कहीं दूर भटक गए और वह आंदोलन पीछे छूट गया जिससे उन्होंने अपनी राजनैतिक पारी शुरू की थी।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *