नाकामयाब मंसूबो के साथ । | Jokhim Samachar Network

Tuesday, April 23, 2024

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नाकामयाब मंसूबो के साथ ।

कलम की ताकत को खरीदने या फिर लक्ष्य से डिगा पाने में असफल कट्टरवादी ताकतों ेका हिसंक होना उनकी हताशा का परिणाम।

मिशन से व्यवसाय में तब्दील हो चुकी पत्रकारिता के इस दौर में एक हमपेशा किरदार के आंतकवादियों की गोलीबारी में हलाक हो जाने या फिर अपने ही किसी साथी को उसकी कलम की तल्खी के आधार पर माओवादी अथवा नक्सलवादी बता काल कोठरी के अन्धेरो में धकेल दिये जाने से खबरों की निरन्तरता पर कोई फर्क नही पड़ता और न ही हम यह उम्मीद कर सकते है कि अपने व्यापक जनाधार के दावे के साथही साथ पत्रकार जगत के हितो की रक्षा के लिये दशको से संघर्ष करने का दम भरने वाले तमाम छोटे-बड़े संगठन एक मंच पर आकर कलम की ताकत को बाॅटने की साजिश करने वाली राजनैतिक शक्तियों को बेनकाब करने का साहस जुटा पायेंगी। तो क्या यह मान लिया जाय कि अब एक पत्रकार की मौत या हत्या के वाकयें को भी हिन्दु-मुसलिम के नज़रियें से देखा जायेगा और उसकी लेखनी से निकले हुऐ सच अथवा तर्को की तार्किक काट करने के स्थान पर हम इस तरह के तमाम घटनाक्रमों को पाकिस्तान परस्ती के परिणाम या इसी तरह की अन्य संज्ञाये देकर अपनी जिम्मेदारियों से मुॅह मोड़ने में सफल होंगे। यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि देश की आजा़दी के बाद पत्रकारिता का स्वरूप व उद्देश्य तेजी से बदले है तथा इस क्षेत्र में एकाएक ही हुऐं पूॅजीवादी अतिक्रमण के बाद तो हालातो ने बहुत तेज़ी से करवट ली है लेकिन इस सबके बावजूद यह माना जाता रहा था कि अपने सीमित संसाधनो व खबरो की पैनी धार के दम पर स्थानीय जनता के बीच अपना एक अलग जनाधार रखने वाले तमाम छोटे व मझोले प्रकाशन अपना वजूद बनाये रखने के साथ ही साथ जनपक्ष की आवाज को सत्ता के गलियारों तक पहुॅचाने में सफल रहते है। इधर कन्द्रीय सत्ता पर एक नयी विचारधारा के काबिज होने के बाद यह देखा व महसूस किया जा रहा है कि प्रकाशकों व प्रकाशनों की बड़ी संख्या के कारण इनकी आवाज को खरीदने अथवा दबा देने में पूरी तरह असफल सरकारी तन्त्र ने अब इन प्रकाशनों की रीड़ पर हमला शुरू कर दिया है और एक सुनियोजित साजिश के तहत न सिर्फ छोटे व मझोले समाचार पत्रो के सरकारी विज्ञापन बन्द किये जा रहे है बल्कि इन समाचार पत्रो में अपने मनमाफिक समाचार व समीक्षाऐं न छपवा पाने से नाराज़ ताकतवर समूह येन-केन प्रकारेण इन्हे रास्ते से हटाने की रणनीति पर काम करने लगे है। आंतकी हमले का शिकार राइजिंग के महरूम सम्पादक शुजात बुखारी हो या फिर गौरी लंकेश, पीड़ित व्यक्ति का नाम या फिर अपराधियों के चेहरे बदल जाने से घटनाक्रमों की तल्खी अथवा व्यवस्था को कोई फर्क नही पड़ता और न ही हम यह अनुमान लगा सकते है कि इस तरह की हत्याओं के बाद दिवगंत व लड़ने वाली ताकतों को पाकिस्तान परस्त, देश द्रोही, तथाकथित पत्रकार या फिर ब्लेकमेलर जैसे उपनामों से नवाजने वाले हमारे ही बीच के लोगो को इस तरह की अवांछित हरकतों के लिऐ उकसाने वाले लोग असल में चाहते क्या है। हाॅलाकि सरकारें इस विषय में मौन दिखाई देती है और रस्म अदायगी वाले अन्दाज़ में होने वाली सरकारी घोषणाओ अथवा घटनाक्रम के व्यतीत हो जाने के बाद सरकार द्वारा शाब्दिक आधार पर व्यक्त की जाने वाली चिन्ता को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो सरकारी तन्त्र मीडिया के एक हिस्से पर हो रहे हमलो या फिर सत्ता पक्ष से लड़कर सत्य को जनता के सामने लाने के लिऐ संघर्ष कर रही जनवादी ताकतों की आवाज दबा देने के लिऐ की जा रही साजिशों से अन्जान है लेकिन अगर हालातो पर गौर किया जाये तो हम पाते है कि अपने राजनैतिक स्वार्थो की पूर्ति के लिये मीडिया का गला घोंटने की परम्पराओं का अनुपालन करते हुऐ दो कदम और आगे बढ़ चुकी सत्ता के शीर्ष पर काबिज वर्तमान राजनैतिक विचारधारा अब पूरी तरह अपनी मनमानी पर उतर आयी है। कुछ पूॅजीपति समूहो को मीडिया का दलाल बना खबरों को अपने हिसाब से प्रायोजित कर जनमत को अपने पक्ष में खड़ा रखने की समर्थक दिखाई देती सत्ताधारी विचारधारा यह मानती और जानती है कि बुद्धिजीवियों के इस वर्ग के बीच स्पष्ट दिखने वाली वैचारिक वैमनस्यता व एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ का फायदा उठाकर इन तमाम विकेन्द्रित ताकतों को आसानी से तोड़ा व समाप्त किया जा सकता है तथा राजनीति के इस खेल में सरकार द्वारा प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करने के स्थान पर छद्म राष्ट्रवाद, उग्र हिन्दूवाद या फिर इसी तरह के तौर- तरीको का इस्तेमाल कर कलम के माध्यम से सरकार की कमियों की ओर इशारा करने वाली सत्ता पक्ष से जुड़े नेताओ के व्यभिचार व भ्रष्टाचार का खुलासा करने वाली बुलन्द आवाज को किस तरह कुन्द किया जा सकता है। लिहाजा़ मीडिया के एक हिस्से का गला घोटने की कोशिशें तेज़ हो गयी है ओर इन कोशिशों के तहत सरकार द्वारा छोटे व मझोले पत्र- पत्रिकाओं को दिये जाने वाले सरकारी विज्ञापन को बन्द करने के साथ ही साथ इन प्रकाशनों को छोटी-बड़ी कागज़ी कार्यवाही में उलझाये रखना या फिर जाॅच के नाम पर कई तरीको से परेशान करने के अलावा विभिन्न आरोंपो में जेल में ठूॅस दिया जाना एक आम बात मानी जाने लगी है लेकिन इधर पिछले कुछ समय से पत्रकार को अपने पक्ष से सहमत न दिखने पर जान से मार देने अथवा उससे जुड़े प्रकाशन को बन्द करवा देने या फिर संस्थान से पत्रकार को बेदखल करवाने में सफल रहने की अनेक घटनाऐं सामने आयी है और इन घटनाओं के आधार पर यह कहा जाना मुश्किल नही है कि सरकार नही चाहती कि पर्दे के पीछे छिपा सच जनता के सामने लाया जाये या फिर लोकतन्त्र के तथाकथित पहरूओं पर मीडिया की निगाहगबीनी बनी रहे। यह माना कि पत्रकारिता के नाम पर अवैध वसूली, ब्लैक-मेंलिग या फिर खबरों को प्रायोजित आधार पर जनता के बीच परोसे जाने का तेज़ी से बढ़ता सिलसिला व्यवसायिकता का रूप ले रही इस ज्म्मिेदारी पर तमाम तरह के प्रश्न चिन्ह लगाता है तथा पिछले कुछ वर्षो में सामने आये फटाफट खबरों वाले दौर और सोशल मीडिया के माध्यम से हर आमोखास को मिले पत्रकार की तरह व्यवहार करने के अवसर ने इस पेशे की विश्वसनीयता को भी कम किया है लेकिन इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि अपने वजूद पर उठायेे जाने वाले तमाम सवालातों व ससंय के इस दौर के बावजूद ऐसे लोगो की कमी नही है जो पत्रकारिता को एक मिशन मानकर अपने कर्म को अंजाम दे रहे है तथा विपरीत परिस्थितियों के बाद भी देश व समाज के विभिन्न हिस्सों में हो रहे सनसनीखेज खुलासों के आधार पर यह अन्दाज़ा लगाया जाना मुश्किल नही है कि .सरकारी तन्त्र का संरक्षण व नौकरशाही का सहयोग न मिलने के बावजूद अपने फर्ज को अंज़ाम दे रहे गौरी लंकेश व शुजात बुखारी जैसे तमाम लोग अपने प्राणो की परवाह किये बिना लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में लगातार प्रयास कर रहे है। हालाॅकि यह कहना मुश्किल है कि पत्रकारिता के दौर में स्पष्ट रूप से आते दिख रहे इस बदलाव के परिणाम क्या होंगे और विभिन्न स्तरों पर किये जा रहे प्रयासो के बावजूद अपनी- अपनी आर्थिक मजबूरियों अथवा प्रलोभनो के कारण अधिकांशतः ही अलग- थलग दिखाई देने वाली पत्रकार बिरादरी अपने वजूद की रक्षा के लिऐं एक साझा मंच पर जुट भी पायेगी अथवा नही लेकिन यह कहने में कोई हर्ज नही दिखता कि सामाजिक समरसता के स्थान पर धार्मिक कट्टरवाद व अतिवाद की ओर बढ़ते दिख रहे भारतीय समाज में पत्रकारों पर हमले बढ़ेगे और बन्दूक की ताकत के दम पर कलम की ताकत को खामोश करने की कोशिश हर ओर से की जायेगी। ऐसे कठिन दौर में जब पूॅजीवादी अपना विकराल रूप लेकर कलमकारों के अस्तित्व को लीलते हुऐ उन्हे ठेका मजदूर अथवा बिकाऊ माल की तरह परिभाषित कर रहा हो और सरकारी तन्त्र व इस तन्त्र को दिशा निर्र्देश देने वाले हमारे नीतिनिर्धारक समाचार पत्रो अथवा मीडिया की भूमिका सरकारी भोपू की तरह सरकार द्वारा चलायी जाने वाली योजनाओं के प्रचार-प्रसार अथवा सरकार की कार्यशैली की वाहवाही तक सीमित मानते हो तो इन परिस्थितियों में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक माना जा सकता है कि जनपक्ष को सामने रख सरकार की नीति अथवा रीति पर सवाल उठाने वाले लोग अपने प्रकाशनो के हितो की रक्षा व अपने प्राणो की सुरक्षा के लिऐ किससे उम्मीद करें या फिर कलमजीवी पत्रकारों के विभिन्न संगठनो द्वारा वह कौन सी रणनीति अपनायी जाये जिसके माध्यम से सत्य के सिपाहियों का यह मोर्चा हर मंच व हर विषय पर बेबाकी के साथ अपने विचार रख सके। वर्तमान में इतिहास बदलने की मंशा रखने वाले कुछ लोग वक्ती ताकत व जुनून का सहारा लेकर कलम को खामोश करना या फिर अपनी फितरत के हिसाब से ढ़ालना चाहते है लेकिन हम यह जान व महसूस कर रहे है कि विपदायें या फिर जुनूनी ताकतों द्वारा वक्ती तौर पर किया जाने वाला हमला हमें हमारे ईमान व पेशे से डिगा नही पायेगा और सच जनता के सामने बेनकाब होकर रहेगा।

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