महबूबा के जाने के बाद। | Jokhim Samachar Network

Tuesday, April 16, 2024

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महबूबा के जाने के बाद।

यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि आनन-फानन में पीडीपी से समर्थन वापस लेकर महबूबा की सरकार गिराने वाली भाजपा अपनी इस कार्यवाही के बाद कश्मीर के अलगाववाद की समस्या व पाकिस्तान की इस क्षेत्र में बिना वजह की दखलदांजी को लेकर क्या रणनीति अपनाती है

देश के राजनैतिक इतिहास में यह पहला अवसर है जब किसी राज्य की जनता द्वारा चुनी गयी सरकार के गिर जाने पर सत्ता पक्ष व विपक्ष के कार्यकर्ता दोनो ही खुश नज़र आ रहे है और किसी भी नेता या राजनैतिक दल के बयान से यह नही लगता कि वह या उसका राजनैतिक दल आगामी चुनावों को लेकर बहुत ज्यादा जल्दबाजी में है। हाॅलाकि जम्मू-कश्मीर में भाजपा की समर्थन वापसी व महबूबा के इस्तीफे के साथ ही यह तय हो गया था कि इस राज्य में आठवी बार लगने वाले राष्ट्रपति शासन की अवधि इस बार लम्बी होगी और केन्द्र की सत्ता पर काबिज भाजपा राज्यपाल के पीछे खड़े होकर उन तमाम खामियों को दूर करने का प्रयास करेगी जिनके चलते देश की जनता के समक्ष उसकी नकारात्मक छवि बनने की आशंकाऐं जतायी जा रही थी लेकिन इस पूरी राजनैतिक गहमागहमी के बीच यह सम्भावना भी थी कि 2015 में पीडीपी को बिना किसी शर्त समर्थन देने की कोशिश कर चुकी नैशनल काॅफ्रेन्स व काॅग्रेस एक बार फिर आगे आकर भाजपा को राजनैतिक रूप से पटकनी देने का प्रयास करेंगे किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोनो ही दलो ने कश्मीर के मुद्दे पर सत्तापक्ष से नाराज़ चल रही देश की जनता की भावनाओं को समझा है और इन दोनो ही दलो ने अपने सरकार बनाने के लोभ पर संवरण करते हुऐ कश्मीर से जुड़े मामलो में सत्तापक्ष को पूरी तरह अपनी मनमर्जी़ करने की छूट दी है। यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि विपक्ष में रहते हुऐ एक के बदले दस सिर लाने का दावा करने वाले तथा जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने की मांग करने वाले भाजपा के नेता जब केन्द्रीय सत्ता पर काबिज़ हुऐ तो उन्होने एक मिशन वाले अन्दाज़ में विभिन्न राज्यो की सत्ता पर कब्जे़दारी को अभियान चलाया और इस अभियान की सफलता से उत्साहित भाजपा के नेताओ ने खुद को साबित करने की जल्दबाजी में अपनी विचारधारा के विपरीत आंतकवाद और आंतकवादियों के साथ नरम रवैय्या अपनाने की पक्षधर पीडीपी के साथ गठबन्धन कर सरकार बनाने से भी कोई परहेज नही किया। उस वक्त यह माना गया कि केन्द्र सरकार को मिली असीमित ताकतों व देश के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की दृढ़ इच्छाशक्ति के चलते यह बेमेल गठबन्धन कुछ ऐसा कमाल करके दिखाऐगा जो जम्मू-कश्मीर के इतिहास में आज तक नही हुआ और भाजपा द्वारा उठाये गये कदम के बाद न सिर्फ जम्मू-कश्मीर के बीच बढ़ी दूरी व स्थानीय जनता के दिलो पर छाया खौफ समाप्त होगा बल्कि कश्मीर से विस्थापित हो चुके कश्मीरी पंडितो की भी घर वापसी को एक योजनाबद्ध कार्यक्रम तय किया जायेगा लेकिन अफसोसजनक है कि ऐसा कुछ भी नही हुआ और अशान्त क्षेत्रो में तैनात सेना के जवानो की जान की कीमत पर ठीक दिवास्वप्न देखने वाले अन्दाज़ में हम सबकुछ ठीक हो जाने के सपने देखते रहे जबकि राज्य में सेना पर पत्थर बाजी़ कर रहे युवाओं के प्रति नरम रवैय्ये व अलगाववाद से जुड़ी तमाम घटनाओं को अनदेखा करने के बावजूद भी पीडीपी व महबूबा मुफ्ती अपना प्रभाव क्षेत्र माने जाने वाले कश्मीर की जनता का विश्वास हासिल नही कर पायी। वर्तमान में यह स्थिति यह है कि सरकार द्वारा किये गये कई बड़े वादो के बावजूद पीडीपी के कई विधायक अपने निर्वाचन क्षेत्रों में जाने की हिम्मत नही जुटा पा रहे और कश्मीर में पाकिस्तान की दखलदांजी़ पर पूरी तरह रोक लगाने का दावा करने वाली भाजपा कश्मीर के सुलगते सवालो पर अपने ही समर्थकों के सवालो का सामना करने की स्थिति में नही है। अभी पिछले दिनो ईद के अवसर पर जम्मू-कश्मीर की सरकार द्वारा पत्थरबाज़ी के आरोंप में गिरफ्तार युवाओं को दी गयी माफी तथा बिना किसी बात चीत अथवा सकारात्मक सकेंत के सरकार द्वारा लागू किया गया एकतरफा संघर्ष विराम इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि सरकारी तन्त्र ने अपनी वाहवाही लूटने के लिऐ सेना के जवानो के प्राणो की फिक्र किये बगैर कई गलत व जल्दबाजी भरे फैसले लिऐ और आंतक पर लगाम लगाते हुऐ पाकिस्तान परस्त अलगाववादी नेताओ को अलग-थलग कर जेल में डालने का दावा करने वाली सरकार कश्मीर के तमाम नेताओ को मिली जेड-प्लस श्रेणी की सुरक्षा को हटाने में भी असमर्थ दिखी। नतीजतन कश्मीर के अलगाववादी व आंतकवादी मामलो से धीरे-धीरे कर हाथ खींचते दिख रहे पाकिस्तान को एक बार फिर यहाॅ नये समीकरण खड़े करने व सीज फायर के बहाने अपनंे लोगो तक हथियार व अन्य सुविधाऐं पहुचाॅने के नये मौके मिले और अब यह यकीन जानियें की सेना द्वारा राज्य की व्यवस्थाओं को अपनें हाथ में लेते ही पाकिस्तान के नेता व कश्मीर के अलगाववाद समर्थक तथाकथित मानवाधिकारवादी चिल्ला-चिल्लाकर इस इलाके में सेना द्वारा किये जा रहे जुर्मो सितम की रोजाना के हिसाब से नई कहानी कहेंगे जिस पर भारत सरकार घटनाक्रमो का मरे मन से खण्डन करते हुऐ अपने राजनैतिक कार्यंकर्ताओं के माध्यम से इसे आंतक की रीढ़ पर हमला बताकर जनभावनाओ के दोहन का हर सम्भव प्रयास करेगी और छद्म राष्ट्रवाद की आड़ में आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर एक नयी पटकथा लिखी जाऐंगी। लिहाज़ा यह कहना कठिन है कि जम्मू-कश्मीर के मामले में भाजपा द्वारा तत्काल प्रभाव से लिया गया निर्णय परिस्थितिजन्य अथवा कश्मीर के मुद्दे पर असफल साबित हो रही मोदी व अमित शाह की रणनीति के चलते रोजाना ही आ रही सैनिको के शहीद होने की खबरों से उपजी हताशा का परिणाम था या फिर कश्मीर में आंतकवाद पर काबू पाने में आ रही अड़चनों को देखते हुऐ केन्द्रीय सत्ता पर काबिज राष्ट्रीय राजनैतिक दल ने राष्ट्रहित में जम्मू-कश्मीर की सरकार से हट जाने का फैसला लिया। अगर वर्तमान दौर के राजनैतिक  हालातों और कर्नाटक चुनावों के बाद उपजी राजनैतिक परिस्थितियों पर गौर किया जाय तो हम पाते है कि अपने पिछले चार वर्षो के कार्यकाल में उपलब्धियों के रूप में जनता के बीच कुछ भी ले जाने में पूरी तरह नाकामयाब दिखती वर्तमान सरकार यह महसूस करने लगी है कि सिर्फ मौखिक आश्वासनों, पूर्ववर्ती सरकारों पर गला फाड़-फाड़ कर लगायें जाने वाले आरोंपो या फिर हिन्दू-मुसलिम के विभेद को बढ़ाकर अथवा राम मन्दिर जैसे संवेदनशील विषयों को उठाकर आगामी लोकसभा चुनावों में एक बार फिर पूर्ण बहुमत हासिल करना आसान नही है और न ही एनडीए के पुराने सहयोगियों पर इतना विश्वास किया जा सकता है कि वह अगली सरकार बनाने के लिये भी आॅख मूॅदकर भाजपा के पीछे ही खड़े रहेंगे। इसलिऐं हालातो पर काबू पाने के लिऐ तथा परिसिथतियों को अपने पक्ष में करने के लिऐ भाजपा के पास सिर्फ एक ही विकल्प शेष था कि वह राष्ट्रवाद व राष्ट्रहित के मुद्दे पर दाॅव खेले तथा देश की तमाम जनता का ध्यान ज्वलन्त समस्याओं व मुद्दो से हटाने के लिऐ अपने आक्रामक रवैय्ये में दिखें। एक कदम पीछे हटकर चार कदम आगे बढ़ने की नीयत के साथ लिये गये सरकार के इस फैसले का उद्देश्य तो आसानी के साथ समझ आ जाता है और इस तथ्य को भी नकारा नही जा सकता है

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