मंसूबो में नाकामयाब | Jokhim Samachar Network

Thursday, April 25, 2024

Select your Top Menu from wp menus

मंसूबो में नाकामयाब

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपने उत्तराखण्ड दौरे के माध्यम से कार्यकर्ताओ को सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने की सलाह देकर हटे ही थे कि उत्तराखण्ड की राजनीति में आया एक नया तूफान और सोशल मीडिया में चारो खाने चित हुई भाजपा

मीडिया पर अघोषित नियन्त्रण रख जनसामान्य के बीच सबकुछ अच्छा ही अच्छा जैसा संदेश देने की कोशिश करने वाली भाजपाई मानसिकता के लिऐ उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में घटित हालियाॅ घटनाक्रम का देश व्यापी चर्चाओं में आना तथा घटना के बाद सरकार का पक्ष रखने की कोशिशें करते हुऐ पीड़ित महिला को ही दोषी ठहराने का प्रयास करने वाले कुछ तथाकथित पत्रकारों को सोशल मीडिया के माध्यम से जनपक्ष द्वारा लताड़ा जाना एक बड़े खतरे की घन्टी है और अगर भाजपाई दिग्गज अभी भी इस खतरें से नही चेतते है तो आने वाले कल में उनका यह अतिविश्वास उनके लिये ही घातक सिद्ध हो सकता है। हाॅलाकि राजनीति के क्षेत्र में मीडिया को अलग-अलग तरीके से प्रभावित कर अपने पक्ष के प्रति उदार रखने की परिपाटी बहुत पुरानी है तथा इस क्षेत्र में हुऐ औद्योगिक विकास व संचार क्रान्ति के बाद पनपी असीम सम्भावनाओं के चलते इस दिशा में हुऐ बड़े पूॅजी निवेश के कारण विभिन्न राजनैतिक दलो व औद्योगिक घरानो का दखल इस क्षेत्र में बढ़ा है जिससे समाचारो के मामले में व्यापक जनहित तलाशे जाने के स्थान पर राजहित में समाचार प्रकाशित अथवा प्रसारित करने की सम्भावनाऐं बढ़ी है लेकिन इस सबके बावजूद यह माना जाता रहा है कि समाचारो के संकलन अथवा श्रृजन के लिऐ ज़मीनी स्तर पर कार्य करने वाला एक सामान्य पत्रकार अधिकतम् विषयों पर जनपक्षीय दिखने का प्रयास करता है तथा उसकी लेखन शैली व तर्को से हमेशा ही पीड़ित पक्ष के दर्द का एहसास होता है। शायद यही वजह है कि राजनीति की तमाम धाराऐं विशुद्ध पत्रकार को बड़ी ही आसानी के साथ वामपंथी करार कर देती है और उसकी सोच या किसी घटनाक्रम को देखने का उसका नज़रिया सरकारी तन्त्र का विरोध मान लिया जाता है। इसके बाद शुरू होता है खबरो के मोल-भाव अर्थात समाचारों के छापे जानें अथवा न छापे जाने या फिर अपनी मनमर्जी के हिसाब से समीक्षाऐं लिखवाने या वार्ता व बहस के ज़रिये सबकुछ अच्छा ही अच्छा दिखाने का सिलसिला और इस सौदेबाजी में सम्पादकों व प्रकाशकों के वारे -न्यारे हो जाते है। संस्थान के खर्च पूरे करने के नाम पर शुरू होने वाले विज्ञाापनो के इस खेल में एक सामान्य पत्रकार अथवा समाचार की सत्यता को परखते हुऐ उसे समाचार पत्र में उचित स्थान देने का प्रयास करने वाले सम्पादक की क्या अहमियत है यह तो पता नही लेकिन यह अक्सर देखा और महसूस किया गया है कि अपनी मेहनत को समाचार पत्र में उचित स्थान न मिलने के कारण उपजी खीज एक स्वाभाविक पत्रकार को कुठिंत करके रख देती है और खुद से ही लड़ने की इस जंग में वह या तो अपना प्रकाशन शुरू कर हालातो से लड़ने का प्रयास करता है या फिर दलाली के धन्धे में उतर सरकार का भोपू बन बैठता है। यह ठीक है कि सोशल मीडिया का हथियार हाथ में आने के बाद छोटे समाचार पत्रो पत्रिकाओ के प्रकाशन की ओर इस वर्ग का रूझान कम हुआ है लेकिन अगर सोशल मीडिया के ज़रिये तेज़ी से आगे बढ़ने वाले अपुष्ट समाचारों व छवि निर्माण वाले अन्दाज़ में गढ़े जाने वाले तमाम अतार्किक विषयों पर गौर किया जाये तो हम पाते है कि दिन भर नजरों के सामने से गुजरने वाले समाचार रूपी सन्देशों की पुष्टि व सत्यता को परखने के लिऐ पाठकों का एक बड़ा वर्ग आज भी समाचार पत्रो पर ही भरोसा करता है और अगर चुनिन्दा लोगो द्वारा चलायी जा रही इस तरह की गतिविधियों को छोड़ दिया जाये तो सोंशल मीडिया के एक बडे़ हिस्से पर आज भी भरोसा नही किया जा सकता। हमने देखा कि उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में घटित महिला शिक्षिका वाले प्रकरण में सोशल मीडिया पर सक्रिय कई भाजपा समर्थको ने महिला को गलत साबित करने का भरसक प्रयास किया और धोखे से बनाये गये एक वीडियो में काट-छाट कर देश की जनता को यह भी बताने की कोशिश की गयी कि महिला अपने इस कृत्य के लिऐ शर्मिन्दा है तथा मुुख्यमन्त्री से माफी माॅगना चाहती है जबकि वास्तव में स्थितियाॅ इसके ठीक उलट है और अपने साथ जुड़ती दिख रही जनसंवेदनाओं से उत्साहित उपरोक्त महिला अध्यापिका इस सम्पूर्ण घटनाक्रम व अपने निलम्बन के विरोध में न्यायालय की ओर रूख करने का मन बना चुकी है। हम यह भी महसूस कर रहे है कि सरकारी विज्ञापनो के बोझ से दबे कुछ समाचारपत्र व इलैक्ट्राॅनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकार की किरकिरी करा देने वाले इस सम्पूर्ण प्रकरण पर किसी भी कीमत पर पर्दा डालना चाहता है और कतिपय समाचारपत्रों ने अपनी खबरो का रूझान कुछ इस अन्दाज़ में मोड़ा है कि मुख्यमन्त्री का दामन एक बार फिर पाक -साफ नज़र आने लगा है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह की हरकतो से हम देश की जनता के उस हिस्से के प्रति न्याय कर सकते है जिसे अपना पक्ष आगे रखने के लिये मीडिया के सहयोग व समर्थन की नितांत आवश्यकता है। यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि उत्तराखण्ड के अपने हालियाॅ दौरे के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह द्वारा राजधानी देहरादून में आयोजित एक बैठक के माध्यम से अपने कार्यकर्ताओं को सोशल मीडिया पर सक्रियता बनाये रखने के सम्बन्ध में कई गुर दिये गये तथा इस कार्यक्रम से ठीक पहले सरकार ने मीडिया मैनेजमेन्ट के नाम पर राज्य के कतिपय समाचारपत्रो को बड़ी तादाद में विज्ञापनो से नवाज़ा। हाॅलाकि इस तरह की तमाम व्यवस्थाओं के लिऐ योग दिवस के आयोजन तथा इस आयोजन में देश के प्रधानमन्त्री की शिरकत को एक बड़ा कारण बताया गया और निर्धारित तिथि से ठीक पहले तक खुद शीर्षासन करती दिखाई दे रही सरकार के पास जनता को समझाने के लिये इससे बड़ा कोई विषय नही था कि योग दिवस के अवसर पर प्रधानमन्त्री के साथ चन्द मिनटो का योग करने मात्र से जनता ही नही बल्कि सरकार की सेहत में भी अप्रत्याशित सुधार आ सकता है लेकिन इस सबके बावजूद सरकार योग दिवस से लेकर वर्तमान तक अपनी रियाया को सरकार की कमजा़रियों व असफलताओं पर चर्चा करने से नही रोक पायी और जनता दरबार में एक महिला अध्यापिका के साथ मुख्यमंत्री की हुई भिड़तं से लेकर धूमाकोट में हुई बस दुघर्टना के दौरान चले मौत के वीभत्स सिलसिले तक ऐसे तमाम अवसर आये जब जनपक्ष ने इस सरकार की नाकामी व हालातों से निपटने के मामले में सरकार की अकुशलता की खुलकर चर्चा की। सवाल यह है कि अगर इस किस्म की चर्चाऐं बदस्तूर ज़ारी ही रहनी है और फेसबुक, ट्यूटर व गूगल के अन्य माध्यमो के अलावा कतिपय समाचार पत्रो व टीवी चैनलो को दिये जाने वाले विज्ञापन के बाद भी सरकार अपनी छिछालेदारी से नही बच सकती तो जनता से प्राप्त करो की कमाई का यह धन यूॅ ही ज़ाया करने का क्या औचित्य है? क्या यह ज्यादा बेहतर नही है कि सरकार विज्ञापनो की शोशेबाज़ी पर ध्यान देने के स्थान पर वस्तुस्थिति व व्यवस्थाओं पर ध्यान दे और हालातो को ध्यान में रखते हुऐ सरकार ऐसी योजनाऐं बनाये जिनसे आम आदमी का हित हो लेकिन हकीकत यह है कि दिल्ली में बैठे हाईकमान के इशारे से चलने वाली राज्य की सरकारों को आम आदमी की चिन्ता ही नही है और जमीनी कार्यकर्ताओं के आभाव में गपबाजी, झूठी खबरो या फिर दूसरे पर लगाये जाने वाली तोहमतो के सहारे चलने वाली सरकार ने यह मान लिया है कि विज्ञापन के माध्यम से जनता को सबकुछ अच्छा ही अच्छा बताकर उसंे आसानी के साथ दिशा-भ्रम की स्थिति में रखा जा सकता है। यह तरकीब कुछ हद तक कामयाब भी रही है और विज्ञापन के इस बाज़ार के वशीभूत होकर हमने अपने नेताओ को पप्पू व गप्पू जैसे तमाम नाम दे दिये है लेकिन जब सवाल समस्याओं के समाधान या फिर परिस्थितियों से जूझने का आता है तो इस प्रकार की तमाम ताकतें अपने हाथ झाड़कर खड़ी हो जाती है और विज्ञापनो के भरोसे चलने वाले मुख्यमन्त्री को अपने बड़बोलेपन व असभ्य व्यवहार का अहसास होता है लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरीके से जन सामान्य को उसका हक दिया जा सकता है और सोशल मीडिया के माध्यम से छवि निर्माण अथवा झूठ को सच साबित करने के द्वन्द के सहारे कोई भी सरकार कितने दिन चल सकती है। वर्तमान में सरकारी तन्त्र की शाह खर्ची व मीडिया मेनेजमेन्ट को लेकर किये जा रहे खर्च को लेकर कई तरह की चर्चाऐं है तथा जन सामान्य का एक बड़ा हिस्सा यह मानने लगा है कि लगभग सभी समाचार पत्र व इलैक्ट्रानिक चैनल तन्त्र की कमज़ोरी का फायदा उठाकर सरकारी धन की लूट में लगे है लेकिन हकीकत इससे ठीक उलट है और सरकार अपनी प्रचार-प्रसार योजनाओं के नाम पर अधिकतम धन का आंवटन समाचार पत्रो, इलैक्ट्रानिक चैनलो या सोशल मीडिया के नाम पर प्रचार-प्रसार में लगी गूगल व फेसबुक जैसी बड़ी कम्पनियों को दे रही है। लिहाजा़ यह सच जनता के सामने आना जरूरी है और छोटे व मझोले समाचार पत्रो के प्रकाशको व सम्पादको ने ज्यादा सक्रियता के साथ सरकारी तन्त्र को बेनकाब करने के प्रयासो में जूट जाना चाहिऐं।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *