लोकतंत्र की तानाशाही | Jokhim Samachar Network

Thursday, March 28, 2024

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लोकतंत्र की तानाशाही

अघोषित आचार संहिता व विज्ञापनों पर रोक को हथियार बना मीडिया के एक बड़े हिस्से पर लगाम लगाने की कोशिशें जारी।
फेक न्यूज के सम्बन्ध में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा लागू किए गए फैसले पर रोक लगाने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार अब वेबसाईटों व वेब चैनलों के जरिये प्रसारित होने वाली खबरों के संदर्भ में आचार संहिता बनाने की ओर आगे बढ़ रही है और यह माना जा रहा है कि सरकार अपने इस कदम के माध्यम से अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोटते हुए अपने खिलाफ जाने वाले समाचारों या वक्तव्यों को रोकने की राह तलाश रही है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि समाचार पत्रों के प्रकाशन व उनके नियमितीकरण को प्रमाणित करते हुए सरकार द्वारा जारी किए जाने वाले विज्ञापनों की बंदरबांट में लगे भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा डीएवीपी के नियमों में बड़ा फेरबदल किए जाने के कारण बंदी के दौर से गुजर रहे तमाम छोटे व मझौले समाचार पत्रों के मालिकों व पत्रकारों ने जबसे अपने कदम न्यूज पोर्टलों व वेब चैनलों की ओर बढ़ाये हैं तभी से सरकार खुद को असहज सा महसूस कर रही है क्योंकि सीमित संसाधनों के बावजूद तथ्यों के पीछे छिपा सच जनता के सामने रखने में कामयाब नजर आ रहे यह सूचना क्रांति के नये पहरूए अपनी खोजी पत्रकारिता के माध्यम से न सिर्फ नये आयाम प्रस्तुत कर रहे हैं बल्कि समाचारों व तथ्यों के प्रस्तुतिकरण के लिए पाठक वर्ग की सीमित बाध्यता से परे हटकर किए जाने वाले इस तरह के प्रयासों का असर व्यापक होता दिख रहा है। हाल ही में सामने आये आंकड़ों व तथ्यों के साथ प्रस्तुत किए गए सबूतों से यह लगभग स्पष्ट हो चुका है कि सरकार अपनी जय-जयकार करने व मीडिया के माध्यम से अपने कुकर्मों पर होने वाली चर्चाओं को रोकने के लिए कई स्तरों पर मीडिया मैनेजमेंट का प्रयास कर रही है और इसके लिए समाचारों के प्रबंधन में लगे कुछ बड़े मीडिया घरानों को विश्वास में लेने के साथ ही साथ उन्हें आर्थिक उत्कोचों से नवाजने का खेल भी बखूबी खेला जा रहा है लेकिन इस सबके बावजूद कई ऐसे समाचार व तथ्य जिन्हें सरकार जनता के बीच नहीं लाना चाहती या फिर जिन पर सार्वजनिक रूप से चर्चा किए जाने से बचने का प्रयास किया जाता है, सोशल मीडिया के माध्यम से सारे देश की निगाहों में आ रहे हैं और इन पर बहस व चर्चाओं का दौर भी शुरू हो गया है। इसीलिए सरकार यह चाहती है कि वह आचार संहिता की आड़ लेकर इस तरह की खबरों के प्रसारण पर रोक लगा सके और कुछ ऐसे नियम व कानून बनाये जाएं कि खबरों के नाम पर कुछ भी जनता के सामने परोसा जाना आसान नहीं रहे। हालांकि यह कवायद पूरी तरह गलत नहीं कही जा सकती और सूचना संचार के नये संसाधन के रूप में इंटरनेट के प्रभावी उपयोग के बाद यह महसूस भी किया जा रहा है कि जनता के बीच अफवाहें फैलाने व खबर के नाम पर कुछ भी उल्टा-सीधा परोस देने वाले तत्वों को चिन्हित कर उनके खिलाफ कार्यवाही किया जाना जरूरी है लेकिन जिस अंदाज में सरकार काम कर रही है उसे देखते हुए डर है कि सरकार द्वारा उपरोक्त संदर्भ में बनाया गया कोई भी कानून जन सामान्य को अफवाहों व गलत खबरों के प्रभाव से बचाने के स्थान पर सरकार की कार्यशैली के खिलाफ जाने वाली खबरों को रोकने व सरकारी तंत्र के खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों को प्रताड़ित करने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जायेगा। हमने देखा है व हम देख रहे हैं कि भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने किस सफाई के साथ अभिव्यक्ति की आजादी पर डाका डालते हुए मुख्यधारा के समाचार पत्रों को हतोत्साहित करने का काम किया है और डीएवीपी की मान्यता संदर्भी नियमों में भारी उलटफेर करने के साथ ही साथ अपनी विचारधारा के समानान्तर चलने वाली चंद समाचार एजेंसियों को सम्बद्धता का नाम देकर छोटे व मझोले समाचार पत्रों के मालिकाॅन व सम्पादकों को बाध्य किया जा रहा है कि वह अन्य श्रोतों से समाचार प्राप्त करने के स्थान पर सरकार की भरोसेमंद व भाजपा का गुणगान करने वाली समाचार एजेंसियों के ग्राहक बन वही सब कुछ जनता के समक्ष प्रस्तुत करे जो सरकार चाहती है। यह ठीक है कि सरकार अपने मंतव्य में पूरी तरह सफल नहीं हो पायी है और तमाम जिज्ञासु व अपने कर्म के प्रति समर्पित छोटे व मझोले अखबार विपरीत परिस्थितियों के बाद भी अपने प्रकाशनों को जिन्दा रखने के कोशिशों में जुटे हुए हैं लेकिन इस सारी जद्दोजहद का असर इन समाचार पत्रों की प्रसार संख्या पर तो पड़ा ही है और सरकारी दबाव व अन्य तमाम कारणों से सरकार की कमियों की ओर जनता का ध्यान इंगित करवाने वाले समाचार पत्र अपनी प्रसार संख्या को कम करने के लिए मजबूर दिखाई दे रहे हैं। अगर तथ्यों के आधार पर गौर करें तो हम पाते हैं कि भाजपा के नेताओं व इसके नीति-निर्धारक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने पिछले लोकसभा चुनावों से पहले इंटरनेट की ताकत का भरपूर उपयोग किया और सरकारी तंत्र की खामियों पर नजर रखने वाले छोटे व मझोले समाचार पत्रों ने भी विपक्ष का पूरा साथ देते हुए उन मुद्दों को पूरी जोर-शोर से उठाया जिनके पीछे व्यापक जनहित छिपा था लेकिन अफसोसजनक है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार लगातार चार साल से भी अधिक के अपने वर्तमान कार्यकाल में उन मुद्दों पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पायी जो उसने विपक्ष के रूप में प्रमुखता से उठाये थे। इसके ठीक विपरीत इन पिछले चार सालों में तत्कालीन सत्ता पक्ष से जुड़े कई मुद्दों को लेकर भाजपा सकारात्मक दिखाई दी और ऐसे तमाम विषय लोकसभा में पारित होकर विधायिका का हिस्सा बने जिनका विपक्ष के रूप में भाजपा के नेताओं द्वारा विरोध किया गया था। वर्तमान में मीडिया का एक बड़ा व सक्रिय हिस्सा सरकार से यह जानना चाहता है कि पूर्व के विवादित विषयों या फिर कांग्रेस शासन काल में विरोध योग्य समझे गए विधेयकों व सरकार के फैसलों पर वर्तमान सरकार की सोच बदलने के क्या कारण रहे और वह कौन सी वजहें रही जिनके चलते भ्रष्टाचारियों को जेल भेजने का दावा करने वाली भाजपा तत्कालीन सत्ता पक्ष के नेताओं व सांसदों को अपने पक्ष में लेकर चुनाव मैदान में उतारने के लिए आतुर दिखाई दी। ऐसे तमाम सवाल हैं जिनका कोई जवाब भाजपा के पास नहीं है और सत्ता के शीर्ष पर अपनी कब्जेदारी के बावजूद व्यापक जनहित के कार्यक्रमों को संचालित करने में पूरी तरह असफल रही केन्द्र सरकार अपनी असफलताओं व निष्क्रियता की वजह कांग्रेस व विपक्ष को बताते हुए एक बार फिर चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी कर रही है। यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि प्रखर वक्ता के रूप में भाजपा के नेता झूठ को भी सही के रूप में प्रचारित कर जनता के बीच वाहवाही लूटने के मामले में महारथी हैं और अपने नीति-निर्धारक संघ के सहयोग से भाजपा के नेताओं ने देश व समाज के बीच एक ऐसा तंत्र बनाया हुआ है कि किसी भी अफवाह को फैलाने या फिर गलत प्रचार को आगे बढ़ाने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगता लेकिन इधर विपक्ष भी सक्रिय है और वह भाजपा की इस रणनीति को समझते हुए प्रचार के इन तमाम मोर्चों पर भी काम कर रहा है जबकि मीडिया का एक हिस्सा पहले से ही भाजपा द्वारा फैलाये जाने वाले झूठ के इस जाल के विरोध में हैं। लिहाजा अपने विरोधियों पर काबू पाने के लिए भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार कानूनों का सहारा लेकर अपने विपक्ष में उठने वाली आवाजों को बंद करना चाहती है और समाचार पत्रों के एक बड़े हिस्से पर अपनी नजर तिरछी करने के बाद सरकार के आधीन काम करने वाला सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय नियमावली की आड़ लेकर वेबसाईटों व वेब चैनलों के माध्यम से प्रसारित होने वाली खबरों पर भी अपने हिसाब से नियंत्रण चाहता है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि इस तरह के तमाम प्रतिबंधों के बावजूद केन्द्र सरकार व भाजपा के नीति-निर्धारक अपनी मनमर्जी लागू करने में सफल होंगे और समाचारों की सत्यता व बेबाक अंदाज को ही अपना धर्म मानने वाले खोजी पत्रकारों की कलम रूक जायेगी लेकिन जो कुछ भी हो रहा है वह लोकतंत्र के नजरिये से ठीक नहीं कहा जा सकता और आने वाले भविष्य में जब भाजपा विपक्ष में होगी तो उसे अपनी इन तमाम गलतियों का खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा।

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