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Thursday, April 25, 2024

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विकल्प के आभाव में

राष्ट्रपति चुनावों के बहाने एक बार फिर विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशें हुई तेज राष्ट्रपति चुनाव के बहाने देश के तमाम विपक्षी दलो को एकजुट करने की कवायद शुरू हो गयी है और विपक्ष द्वारा आहूत इस बैठक में कांग्रेस व वामपंथियों के अलावा तमाम छोटे व क्षेत्रीय दलो की उपस्थिति यह दर्शाती है कि आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुऐ भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को चुनौती देने के लिऐ विपक्ष कमर कसने लगा है। हांलाकि अभी इस प्रकार के किसी मोर्चे या गठबंधन की अधिकाधिक रूप से घोषणा नही की गयी है और न ही किसी प्रेस अथवा मीडिया के माध्यम से यह ऐलान किया गया है कि भाजपा को सत्ता से हटाने के लिऐ देश के तमाम क्षेत्रीय दल मोर्चे के रूप में एक झण्डे के नीचे आने का प्रयास कर रहे है लेकिन पिछले दिनों घटित घटनाक्रम व बैठकों के सिलसिले को देखते हुऐ यह लगता है कि समुचे विपक्ष के प्रति कड़े रवैय्ये और चुनाव दर चुनाव नई जीत हासिल करती जा रही भाजपा के आक्रमणकारी रूख को देखते हुऐ कांग्रेस व वामपंथी संगठनों के तमाम नेताओं और अन्य क्षेत्रीय दलों ने एक झण्डे के नीचे एकत्र होने का मन बनाया है तथा सबकुछ तयशुदा रणनीति व उम्मीदों के मुताबिक हुआ तो अतिशीघ्र समुचा विपक्ष एक मोर्चे के रूप में संगठित नजर आयेगा। पूर्व में यूपीए गठबंधन की अध्यक्ष रह चुकी सोनिया गांधी इस सारी कवायद के बाद अस्तित्व में आने वाले नये मोर्चे के अध्यक्ष पद की प्रबल दावेदार मानी जा रही है और उनके अनुभव व विभिन्न विचारधाराओं वाले दलों को साथ लेकर चलने की दक्षता को देखते हुये यह कहना कठिन नही है कि इस तरह अस्तित्व में आया कोई मोर्चा या महागठबंधन आने वाले समय में सत्ता पक्ष के लिऐ मुश्किलें खड़ी कर सकता है लेकिन सवाल यह है कि क्या तमाम क्षेत्रीय दल व वामपंथी एक साथ व इतनी आसानी से एक झण्डे के नीचे एकत्र हो सकते है और अपनी-अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते गैर कांग्रेसवाद व गैर भाजपा वाद का नारा देने वाले इन तमाम दलो के नेता अपने राजनैतिक अस्तित्व पर मंडराते दिख रहे वर्तमान खतरें के मद्देनजर कांग्रेस को एक बार फिर आगे बढ़ने का मौका दे सकते है। जहाँ तक राष्ट्रपति पद का सवाल है तो प्रत्याशी चयन के मामले में वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी समुचे विपक्ष की पहली पंसद हो सकते है और अगर सत्तापक्ष उन्हें एक बार फिर इस पद के दावेदार के रूप में आगे करता है तो विपक्षी एकता का किला खड़ा होेने से पहले ही भरभराकर गिर सकता है लेकिन अगर भाजपा राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के लिऐ किसी संघीय पृष्ठभूमि वाले नाम को आगे बढ़ाती है तो कांग्रेस व वामपंथियों समेत तमाम छोटे-बड़े विपक्षी दलों द्वारा इसका विरोध किया जाना निश्चित है। इन हालातों में विपक्षी गठबंधन के लिऐ भी महत्वपूर्ण होगा कि वह एक सर्वसम्मत नाम को आगे बढ़ाने में किस हद तक सहमत हो पाते है क्योंकि देश के वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी सिर्फ विपक्षी दलों के भरोसे चुनाव मैदान में उतरना भी पंसद करेंगे या नही, इस तथ्य को दावे से नही कहा जा सकता। खैर अगर यूपीए-1 की ही तर्ज पर वामपंथी दलों समेत कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलो का कोई गठबंधन अस्तित्व में आता है तो यह देखना दिलचस्प होगा कि इस गठबंधन में राहुल गांधी की भूमिका क्या होगी या फिर गठबंधन के दूसरे अहम् पद माने जाने वाले ‘संयोजक‘ की कुर्सी को लेकर सबसे मजबूत दावेदारी किसके द्वारा प्रस्तुत की जायेगी। वर्तमान में शरद पंवार इस भूमिका के लिऐ फिट माने जा रहे है लेकिन उनका कमजोर स्वास्थ्य व बढ़ती उम्र ज्यादा लंबे समय तक इस तरह की दौड़भाग करने की इजाजत देती मालुम नही हो रही। इसके बाद इस पद के दावेदारों में ममता बेनर्जी, मुलायम सिंह, मायावती, लालू प्रसाद और नितीश कुमार समेत तमाम नामों को शामिल किया जा सकता है लेकिन ममता बेनर्जी के नाम पर वामपंथी दलो की सहमति के आसार कम ही है और लालू, मुलायम व मायावती जैसे तमाम नेताओं के लिऐ अपनी राजनीति को जिन्दा रखने की पहली शर्त ही इस तरह के तमाम नामों का विरोध करना है। इन हालातों में नितीश कुमार इस तथाकथित महागठबंधन के संयोजक के रूप में र्निविवाद चेहरे हो सकते है लेकिन वर्तमान में वह राष्ट्रीय राजनीति के स्थान पर बिहार की राजनीति को ज्यादा महत्व दे रहे है और हालातों के मद्देनजर उन्हें विपक्ष की अपेक्षा सत्तापक्ष के साथ सम्बंध बनाकर रखना ज्यादा श्रेयकर लग रहा है। इसलिऐं हालातों के अनुकूल होने के बावजूद इस तथ्य को अभी दावे से नहीं कहा जा सकता कि आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर समुचा विपक्ष एकजुटता के साथ सत्तापक्ष के विरोध में जुटना शुरू हो गया हैं और केन्द्रीय सत्ता पर काबिज भाजपा इन पिछले तीन सालों में कोई भी बड़ी उपलब्धि हासिल न करने के कारण विपक्षी महागठबंधन के निशाने पर आती दिख रही है। यह ठीक है कि कांग्रेस पूर्व में भी इसी तरह का एक मोर्चा बना बिहार के चुनावों में भाजपा को मात दे चुकी है और उ.प्र. आदि राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन कर उसने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि उसे क्षेत्रीय राजनैतिक दलों से गठबंधन करने अथवा उनके साथ मंच साझा करने से कोई परहेज नही है लेकिन अपनी इस जंग में वह आम आदमी पार्टी को अलग-थलग करना चाहती है। शायद यही वजह है कि किसी भी तरह के प्रस्तावित गठबंधन में आम आदमी पार्टी अथवा उनके नेता अरविंद केजरीवाल को प्राथमिकता नही दी गयी हैं और ईवीएम की हेराफेरी से जुडे मामले में अपने छोटे-बड़े पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं के अलावा समुचे विपक्ष के भी आम आदमी पार्टी के बयानों व शक की गुजांइश भरे प्रश्नों से साबित होने के बावजूद कांग्रेस किसी भी मुद्दे पर केजरीवाल अथवा उनी आम आदमी पार्टी को भाव देने के मूड में नही है। इसके ठीक विपरीत कांग्रेस के सबसे निकटवर्ती सहयोगी माने जाने वाले वामपंथियों की सद्भावनाऐं व कार्यकर्ताओं का जुड़ाव आम आदमी पार्टी के साथ बताया जाता है और लालू जनता दल, ममता बेनर्जी, मुलायम सिंह आदि तमाम छोटे-बड़े नेताओं को भी आम आदमी पार्टी या केजरीवाल से कोई विरोध नही मालुम देता। हालातों के मद्देनजर चुनावी मौसम में केजरीवाल के इर्द-गिर्द भी एक तीसरा मोर्चा खड़ा होता दिखाई दे सकता है और कोई बड़ी बात नही है कि गैर भाजपा व गैर कांग्रेसवाद को हवा देता यह तीसरा मोर्चा संयुक्त विपक्ष को लेकर चल रही कांग्रेस व वामपंथियों की उम्मीदों पर पानी न फेर दें। हांलाकि राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी यह नही चाहते कि केजरीवाल अपनी बढ़ी राजनैतिक ताकत के साथ केन्द्रीय सत्ता की दावेदारी की ओर बढे लेकिन अपने राजनैतिक वजूद को बचाने के लिऐ क्षेत्रीय दलो को यह बेेहतर विकल्प लगता है और सत्ता पर काबिज भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस तथ्य को भली-भांति समझ रहा है। शायद यहीं वजह है कि भाजपा के नेताओं का जोर कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के स्थान पर आम आदमी पार्टी के खात्मे की ओर ज्यादा है।

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