गैरसैण के मुद्दे पर सदन से सड़क तक नारेबाजी व प्रदर्शन के बावजूद नहीं निकलता दिख रहा कोई समाधान
विधानसभा के चालू सत्र के दौरान नियम अट्ठावन के तहत चर्चा के योग्य समझा गया उत्तराखंड की स्थायी राजधानी गैरसैण का मुद्दा फिलहाल किसी निष्कर्ष तक पहुंचेगा भी या नहीं, यह तो दावे से नहीं कहा जा सकता लेकिन राज्य की स्थायी राजधानी के मुद्दे पर एकजुट हो रही जनभावनाओं के बीच सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनैतिक दलों की यह नौटंकी देखने व विचार किए जाने योग्य है और हालिया घटनाक्रम व स्थायी राजधानी के मसले पर गैरसैण में चल रही वर्तमान बहस को देखते हुए यह कहा जाना कठिन नहीं है कि सत्ता की राजनीति करने वाले नेता व राजनैतिक दल इस समस्या का समाधान नहीं चाहते। यह माना कि मौजूदा हालातों व राज्य पर स्पष्ट रूप से मंडराते दिख रहे आर्थिक तंगी के दौर में एक नये सिरे से अवस्थापना सुविधाओं को जुटा पाना तथा राजधानी के नाम पर एक नया शहर बसाया जाना आसान नहीं है लेकिन हालातों के इस कदर बिगड़ने में आम आदमी का कोई हाथ नहीं है और न ही अस्थायी राजधानी के रूप में देहरादून का चयन करते वक्त इस प्रदेश की जनता से इस मुद्दे पर कोई सलाह-मशवरा ही किया गया है। अगर इतिहास के पन्ने पलटें जाये तो हम पाते हैं कि वर्ष 1994 के दौरान हुए जनव्यापी उत्तराखंड आंदोलन में ही नहीं बल्कि इससे पूर्व में भी अनेक बार गैरसैण को उत्तराखंड राज्य की राजधानी के रूप में मान्यता मिली है और तत्कालीन उ.प्र. की सरकार ने गैरसैण को केन्द्र में रखकर कई घोषणाओं व यहां निदेशालय स्तर के कार्यालय बनाये जाने को स्वीकृति देकर इसके महत्व को समझा है लेकिन एक अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद हमारे नेताओं व सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनैतिक दलों ने गैरसैण के महत्व को नकार दिया है और यहां पर यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि क्षेत्रीय हितों का पैरोकार माना जाने वाला उत्तराखंड क्रांति दल भी मौका आने पर गैरसैण को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल करने से बचता रहा है किंतु इधर पिछले कुछ अरसे में माहौल बदला है और आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में स्थानीय जनता यह महसूस कर रही है कि अलग राज्य के लिए किए गए एक लंबे संघर्ष के बावजूद राज्य गठन का कोई बहुत बड़ा फायदा यहां के मूल व स्थायी निवासियों को नहीं हुआ है। लिहाजा उत्तराखंड राज्य आंदोलन व गठन के बाद चले चुप्पी के लंबे दौर के बाद जनता एक बार फिर मुखर दिख रही है तथा इस बार अधिकांश मोर्चाें पर आंदोलन की बागडोर उन युवा कंधों पर है जिन्होंने राज्य आंदोलन तथा राज्य के गठन के बाद होश संभाला है लेकिन सरकार इन आंदोलनों को लेकर चिंतित नहीं दिखाई देती क्योंकि उसे लग रहा है कि हाल-फिलहाल समग्र प्रदेश की जनता को सड़कों पर उतार पाना इतना आसान नहीं है और न ही राज्य में ऐसा कोई करिश्माई नेतृत्व है जो कि अलग-अलग हिस्सों में बंटे इस आंदोलन को एकजुटता के साथ खड़ा कर सरकारी तंत्र के सम्मुख एक चुनौती खड़ी कर सके। हालांकि राजनैतिक ताकत के रूप में उत्तराखंड क्रांति दल एक बार फिर स्थायी राजधानी की मांग के साथ मैदान में है और यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि अपने एकमात्र सदस्य के बूते सदन के भीतर व कर्मठ कार्यकर्ताओं के बल पर गैरसैण की सड़कों पर यह लोग खुद को साबित करने में कामयाब भी रहे हैं लेकिन राज्य निर्माण के बाद लगातार पंद्रह सालों तक सत्ता में भागीदारी के बावजूद उक्रांद के नेताओं का गैरसैण के मुद्दे पर दिखने वाला अनमना सा रवैय्या तथा टूटते-बिखरते इस राजनैतिक दल के साथ बदलती सी दिखने वाली इस दल के नेताओं की निष्ठाएं उक्रांद के वर्तमान संघर्ष को भी संदिग्ध बनाती है जिसके चलते विभिन्न सामाजिक संगठन व अलग-अलग राजनैतिक विचारधारा से जुड़े होने के बावजूद गैरसैण के मुद्दे पर एकमत दिखते हुए बिना किसी झंडे-डंडे के आंदोलन में भागीदारी दे रहे तमाम संघर्षशील चरित्र इस बार उक्रांद पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं और बिना किसी राजनैतिक पृष्ठभूमि के सिर्फ हो-हल्ले व जनभावनाओं के बूते खड़ा होता दिख रहा एक बड़ा आंदोलन इस बार फिर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के बिना ही डगमग होता दिख रहा है। यह माना कि बिना किसी पूर्व योजना व संगठन के एक सरकार को अपना बजट सत्र गैरसैण में ले जाने के लिए बाध्य करने वाले आंदोलन को यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता और न ही यह माना जा सकता है कि बिना किसी आम हड़ताल अथवा हिंसा के सत्ता पक्ष व विपक्ष को गैरसैण के मुद्दे को सदन में चर्चा का विषय बनाने के लिए बाध्य करने में सक्षम आंदोलनकारी ताकतें इतनी कमजोर हो सकती हैं कि वह बिना किसी निष्कर्ष तक पहुंचे अपने हथियार डाल दे लेकिन हमने देखा और महसूस किया है कि राज्य की जनता के हितों की सोच रखने वाली जनवादी ताकतों ने अकसर नेताओं की कुटिल चालों के समक्ष मुंह की खाई है और राजनीति के मैदान में हावी दिखने वाले निजी स्वार्थों ने अधिकांश मौकों पर आम आदमी के अधिकारों पर डकैती डाली है। इसलिए सिर्फ यह सोचकर प्रसन्न नहीं हुआ जा सकता कि स्थायी राजधानी के मुद्दे पर सदन में होने वाली गंभीर चर्चा या फिर इस विषय को लेकर चले मंत्रिमंडल के गंभीर मंथन के दौर से इस समस्या का कोई समाधान निकल सकता है और न ही यह माना जा सकता है कि दिन दूने व रात चैगुने अंदाज से बढ़ते दिख रहे गैरसैण समर्थकों के उत्साह को देखते हुए सरकार ने हार मान ली है लेकिन हालात यह इशारा जरूर कर रहे हैं कि राज्य निर्माण के इन सत्रह वर्षों बाद एकाएक ही सामने आये इन नये समीकरणों से सरकार डरी हुई अवश्य है और इसके लिए वह कभी कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा रही है तो कभी बिजनौर व सहारनपुर के कुछ हिस्सों को उत्तराखंड से जोड़े जाने का शिगूफा छोड़कर आंदोलन की धार बदलने की कोशिश जारी है। अगर राजनैतिक दलों की मंशा पर गौर किया जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य बनने के बाद से वर्तमान तक उत्तराखंड की सत्ता पर काबिज रहे भाजपा व कांग्रेस हमेशा ही यह मानते रहे हैं कि इस राज्य के मैदानी इलाकों की नाराजी का डर दिखाकर गैरसैण के मुद्दे को टाला जा सकता है और शायद यही वजह है कि अपने सीमित कार्यकाल व राजनैतिक उथल-पुथल के बावजूद गैरसैण में विधानसभा भवन के निर्माण से लेकर विधानसभा सत्र के आयोजन तक के तमाम बड़े फैसले लेने वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कभी भी अपने वक्तव्य में गैरसैण को स्थायी राजधानी कहने या घोषित करने की हिम्मत नहीं जुटायी लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में पहाड़ों पर हुए पलायन के बाद राज्य के मैदानी इलाकों में बदले राजनैतिक समीकरणों से यह माना जा रहा है कि इन क्षेत्रों से चुने जाने वाले जनप्रतिनिधि स्थायी राजधानी के मुद्दे पर गैरसैण के खुले विरोध की स्थिति में नहीं है और शायद यही वजह है कि गैरसैण समर्थकों का उत्साह इस वक्त चरम पर है तथा यह माना जा रहा है कि अभी नहीं तो कभी नहीं वाले अंदाज में यह पहाड़ के हितों की लड़ाई लड़ने का सही वक्त है। यह तो पता नहीं कि स्थायी राजधानी गैरसैण के मुद्दे पर शुरू हुई यह दूसरे दौर की लड़ाई कब तक अपने अंजाम पर पहुंचेगी और विकास की मुख्यधारा में शामिल होने की बांट जोह रहे इस प्रदेश के पर्वतीय जिलों व दूरस्थ ग्रामीण अंचलों को कितने समय तक सत्ताधीशों की नजरें इनायत का इंतजार करना पड़ेगा लेकिन स्थायी राजधानी की मांग को लेकर स्वतः स्फूर्त अंदाज मंे खड़े हो रहे इस आंदोलन की तल्खी को देखकर यह अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि सत्ता के शीर्ष पर काबिज नेताओं व विपक्ष के लिए अब राज्य की स्थानीय जनता के हितों को नकार पाना आसान नहीं होगा और अगर निजी राजनैतिक स्वार्थों में लिप्त होकर पहाड़ के हितों की अनदेखी की गयी तो स्थानीय जनता का गुस्सा सत्ता की राजनीति करने वालों को पुर्नविचार करने या फिर कोई नये समीकरण साधने का मौका नहीं देगा। वैसे अगर देखा जाये तो यह भाजपा के नेतृत्व वाली उत्तराखंड सरकार के लिए संकट की घड़ी ही नहीं है बल्कि राज्य के अब तक के इतिहास में सबसे मजबूत माने जा रहे एक कमजोर मुख्यमंत्री के लिए खुद को साबित करने का एक मौका भी है और अगर त्रिवेन्द्र सिंह रावत चाहें तो वह भाजपा हाईकमान को विश्वास में लेते हुए राज्य की स्थानीय जनता को स्थायी राजधानी या इससे भी मिलता-जुलता कुछ देकर जनता के दिलों को जीतने की एक कोशिश कर सकते हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इतनी आसानी के साथ अपनी वर्षों पहले की गयी भूल को स्वीकारने व सुधारने के लिए तैयार होगा।