स्वतः स्फूर्त आधार पर एकत्र होते दिख रहे हैं राजधानी देहरादून के पत्रकार
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में, एक टी.वी. चैनल के पत्रकार द्वारा निर्धारित दरों से ज्यादा कीमत पर बेची जा रही शराब को लेकर खबर बनाने के प्रयास में, उस पर हुए प्राणघातक हमले को लेकर पत्रकार बिरादरी का आक्रोश धीरे-धीरे कर सामने आता दिख रहा है और राजधानी के तमाम पत्रकारों द्वारा इस घटना के खिलाफ स्वतः स्फूर्त वाले अंदाज में एकत्र होकर डीजीपी को दिया गया ज्ञापन व इसी संदर्भ में प्रदेश के मुखिया से की गयी मुलाकात यह इशारा करती है कि इस सम्पूर्ण घटनाक्रम को लेकर पत्रकार बिरादरी में छटपटाहट की स्थिति है। हालांकि मीडिया के तमाम बड़े संस्थान इस सम्पूर्ण घटनाक्रम पर मौन हैं और तथाकथित रूप से बड़े, लगभग सभी समाचार पत्रों ने इस सम्पूर्ण घटनाक्रम व पत्रकारों के इस आक्रोश को न सिर्फ अनदेखा करने का प्रयास किया है बल्कि इस सम्पूर्ण घटनाक्रम के विरोध में एक स्थान पर एकत्र होकर अपना दुख साझा करने का प्रयास कर रहे पत्रकारों में इन बड़े संस्थानों में कार्यरत वेतनभोगी पत्रकारों की नगण्य उपस्थिति यह इशारा भी करती है कि यह तमाम तथाकथित रूप से बड़े संस्थान कदापि यह नहीं चाहते कि पत्रकार अपने हितों की सुरक्षा के मुद्दे पर एक झंडे के नीचे आएं लेकिन इस सम्पूर्ण घटना के विरोध में तथा दोषी शराब विक्रेता के आवंटन को रद्द किए जाने के पक्ष में एकत्र पत्रकार बिरादरी का नेतृत्व करने आगे आए कुछ बुजुर्ग व अनुभवी पत्रकारों की टोली के जोश व काम करने के तरीके को देखकर यह भी आभास होता है कि परिस्थितियों के खिलाफ संघर्ष को लेकर एकजुट दिखाई देते लोकतंत्र के इस चैथे स्तम्भ ने अब हालातों से समझौता करते हुए अपनी नयी रणनीति पर विचार करना शुरू कर दिया है। यह ठीक है कि अपनी शिकायत लेकर मुख्यमंत्री के दरबार में पहुंचे इन पत्रकारों को बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ और न ही पुलिस के वरीष्ठतम् अधिकारी से जांच के आश्वासन के अलावा कुछ प्राप्त हुआ लेकिन पत्रकारों की इस भीड़ ने अपने पूरे प्रदर्शन के दौरान जिस तरह की शालीनता का परिचय दिया और सम्पूर्ण घटनाक्रम का राजनैतिकरण का प्रयास कर रहे एक बिना जनाधार वाले राजनैतिक दल की तथाकथित युवा सेना को जिस प्रकार अपने लावालश्कर के साथ सचिवालय गेट से हट जाने के निर्देश वरीष्ठ पत्रकारों ने दिए वह स्वयं में काबिलेतारीफ है तथा इससे यह अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि पत्रकार बिरादरी अपनी मर्यादा व छवि को लेकर वर्तमान में भी सतर्क है। यहंा पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि अगर पत्रकार पर हुए इस हमले के खिलाफ यह मुहिम देहरादून के प्रेस क्लब जैसे किसी सर्वमान्य संगठन द्वारा चलायी गयी होती तो यह ज्यादा प्रभावी साबित होती और मुख्यमंत्री के दरबार में पत्रकारों का प्रतिनिधित्व कर रहे बताये जा रहे उनके तथाकथित मीडिया सलाहकार को इन तमाम पत्रकारों के सम्बन्ध में अनर्गल प्रचार करने या फिर मुख्यमंत्री से न मिलने देने का माहौल बनाने का मौका ही नहीं मिलता लेकिन जब शहर की एक सर्वमान्य संस्थान पर गुण्डाराज कायम हो जाए और कुछ धंधेबाज किस्म के लोग एक संवैधानिक संस्थान पर काबिज होने के लिए अपने ही साथियों को पिटवाने या पुलिसिया लाठी का इस्तेमाल करने से परहेज ही न करे तो यह उम्मीद ही कैसे की जा सकती है कि ऐसा संगठन या संस्थान आड़े वक्त पर अपनी बिरादरी के लोगों का मददगार साबित होगा या फिर सरकार के विरोध में उठने वाले सुरों को ऐसे संगठनों या क्लबों का नेतृत्व मिल सकेगा। लिहाजा यह तय है कि अब आगे भी पत्रकार बिरादरी ने अपनी हर लड़ाई एकजुटता के साथ खुद लड़नी होगी और पत्रकारों के हितों की रक्षा का दावा करने वाले तमाम संगठनों को भी ऐसे मौकों पर एक झंडे के नीचे आना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब अपनी खबरों के पैनेपन व सत्य को तथ्यों के साथ जनता के बीच रखने के लिए जानी जाने वाली यह बिरादरी सरकार की कुत्सित नीतियों व माफिया-नेता व नौकरशाह के गठबंधन के समक्ष अपने घुटने टेकने पर मजबूर हो जाएगी। समस्त तथ्यों व तर्कों के आधार पर तथा सम्पूर्ण घटनाक्रम के प्रत्यक्षदर्शी के रूप में यहां पर यह कहने में भी कोई हर्ज प्रतीत नहीं होता कि वर्तमान आर्थिक उदारीकरण के दौर में जब निजी स्वार्थ सार्वजनिक हितों पर हावी होते दिख रहे हैं और कल तक इस पत्रकार बिरादरी के साथ खड़े दिखने वाले एक अदना से पत्रकार ने सत्ता का संरक्षण व पद मिलते ही अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है तो ऐसे गंभीर दौर मंे मुन्ना सिंह चैहान जैसे शालीन व बुद्धिजीवी विधायकों की सदन में उपस्थिति व उनका सत्ता पक्ष का अंग होना हमें आशान्वित करता है और ऐसे आड़े वक्त में जब मुख्यमंत्री से न मिलने देने के विरोध में आक्रोशित पत्रकार बिरादरी कोई बड़ा कदम उठाने पर विचार करती तो इससे पहले ही मुन्ना सिंह चैहान द्वारा स्थितियों की गंभीरता से समझते हुए न सिर्फ मुख्यमंत्री को विकट परिस्थितियों में फंसने से बचा लिया गया बल्कि तथाकथित रूप से चर्चित सचिवालय की चैथी मंजिल के भूतल पर ही वरीष्ठ पत्रकारों की तमाम शिकायत ध्यान से सुनकर उन्हें मुख्यमंत्री के साथ वार्ता कराये जाने का आश्वासन देकर अपने साथ ले जाया गया। हालांकि इस वार्ता के परिणाम बहुत ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहे और व्यवसायी को आवंटित दुकान रद्द करने के साथ ही साथ उसकी जमानत राशि जब्त करने जैसे आदेश जारी करने के स्थान पर सरकार ने पत्रकारों को बहुत हल्के से लिया लेकिन देहरादून के इतिहास में यह शायद पहला मौका था जब प्रेस क्लब जैसे संस्थान को सार्वजनिक रूप से नकारा साबित किया गया। यह ठीक है कि इस तरह के सार्वजनिक संगठनों में विवाद कोई नयी बात नहीं है और हाल ही के दिनों में हुए इस संस्थान के चुनाव तथा चुनाव से ठीक पूर्व असंवैधानिक रूप से किया गया प्रेस क्लब की नियमावली में परिवर्तन यह इशारे करता है कि सरकार का वरदहस्त वर्तमान में भी प्रेस क्लब पर काबिज मठाधीशों के साथ है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में संगठन व संगठन को चलाने वाले कतिपय चेहरे कदापि महत्वपूर्ण नहीं होते और मौजूदा हालातों में अपने एक साथी पर हुए प्राणघातक हमले के बाद आक्रोशित पत्रकारों का बिना किसी पूर्व तैयारी या नियोजित संगठन के आवाह्न के स्वतः स्फूर्त आधार पर इस तरह एकजुट होना यह साबित करता है कि राजधानी देहरादून में प्रेस क्लब जैसी संस्था अब औचित्यहीन साबित हो चुकी है। इसलिए हालातों के मद्देनजर अनुभवी व वयोवृद्ध पत्रकारों से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि संकट की इस घड़ी में वह न सिर्फ इस आंदोलन की कमान संभालते हुए पीड़ित पत्रकार को न्यायोचित मुआवजा व अन्य विधिक कार्यवाही आगे बढ़ाने हेतु मदद किए जाने के संदर्भ में अपने कदम आगे बढ़ाये बल्कि पत्रकारों के हितों को लेकर काम कर रहे तमाम छोटे-बड़े संगठनों को विश्वास में लेते हुए प्रेस क्लब पर काबिज वर्तमान मठाधीशों को भी बाहर का रास्ता दिखाने के लिए पत्रकारों का एक खुला सम्मेलन आयोजित करे। हो सकता है कि कतिपय साथी यह महसूस करते हों कि एक पत्रकार पर हुए प्राणघातक हमले के विरोध में सामने आया पत्रकारों का यह रोष क्षणिक है और जैसे ही परिस्थितियां बदलेंगी या फिर सरकार अपनी फूट डालो और राज करो वाली नीति के तहत विज्ञापन की रेवड़ियां बांटना शुरू कर देगी तो एकता का नारा खंडित होता नजर आएगा तथा अपने सीमित संसाधनों के जरिए गुजर-बसर को मजबूर पत्रकार बिरादरी अपने-अपने संस्थानों या बैनरों की तीरमदारी में जुट जाएगी। कुछ हद तक यह आशंकाएं सही भी प्रतीत होती हैं और पत्रकारों के संगठन ही नहीं आमजन भी यह महसूस करते हैं कि अधिकांश विषयों पर पत्रकारों व उनके संस्थानों की आपस में गलाकाट प्रतिस्पर्धा होती है जिसके कारण उन्हें किन्हीं निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए लंबे समय तक एक झंडे के नीचे एकत्र किया जाना संभव नहीं है लेकिन जब सवाल प्राणों की रक्षा का हो और जान सांसत में आने की स्थिति में बड़े मीडिया संस्थान स्पष्ट रूप से अपने हाथ खींचते प्रतीत हो रहे हो तो अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए जान-माल की रक्षा से एकजुट होना ही एकमात्र विकल्प है तथा यहां पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि एकता के इस नारे को अमलीजामा पहनाने की दिशा में छोटे समाचार पत्र पत्रिकाएं एक अहम रोल अदा कर सकती है क्योंकि उनके पास अपने प्रकाशन व समाचारों के संकलन को लेकर न सिर्फ सर्वाधिकार सुरक्षित हंै बल्कि परिस्थितियां भी यह इशारा कर रही हैं कि प्रतिस्पर्धा के इस दौर में सर्वाधिकार को बचाए रखते हुए सरकारी मनमानी के खिलाफ संघर्ष करने के अलावा उनके पास कोई और विकल्प भी नहीं है।