एस्मा लगाये जाने व वेतन रोकने के आदेशों से और ज्यादा तेज होगा उच्च शिक्षा क्षेत्र में कर्मचारियों व छात्रों का आंदोलन
उच्च शिक्षा विभाग में निदेशक समेत कुछ उच्चाधिकारियों व प्रवक्ताओं के निलम्बन को लेकर कर्मचारी वर्ग आक्रोश में है और सरकार के इस फैसले के खिलाफ उत्तराखंड के उच्च शिक्षा से जुड़े कर्मचारी संगठनों ने राज्य के तमाम महाविद्यालयों समेत निदेशालय में तालाबन्दी व हड़ताल शुरू कर दी है। हालांकि सरकार ने भी इस हड़ताल के विरूद्ध सख्त रवैया अपनाते हुए हड़ताली कर्मचारियों पर एस्मा लगाने व उनके वेतन की कटौती करने का ऐलान किया है लेकिन यह तय दिखता है कि अगर राज्य सरकार ने कर्मचारियों के विरूद्ध एस्मा के तहत कार्यवाही की तो आन्दोलन की आग और फैलेगी तथा उच्च शिक्षा विभाग के अतिरिक्त अन्य सरकारी विभागों के कर्मचारी भी अपने आन्दोलनरत् साथियों के सहयोग व समर्थन में इस आन्दोलन में भागीदारी करेंगे। लिहाजा यह तय है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हालात पहले से ज्यादा बदतर होंगे और अपनी वार्षिक परीक्षाओं के लिए तैयारी कर रहे छात्र-छात्राओं को एक नये तरह के संकट का सामना करना पड़ेगा। यह तथ्य भी किसी से छुपा नहीं है कि सरकार द्वारा की गयी निलम्बन की इस कार्यवाही के पीछे पूरी तरह राजनैतिक कारण छिपे हुए हैं और इस पूरे मामले को हल्द्वानी छात्रसंघ के चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है जिस कारण कांग्रेस समर्थित छात्र-संगठन एनएसयूआई भी विश्वविद्यालय कर्मियों के इस आन्दोलन में कूद पड़ा है और अगर यह सब कुछ ऐसे ही चला या फिर सरकार ने आन्दोलनरत् कर्मियों के विरूद्ध सख्त कार्यवाही करने का प्रयास किया तो छात्रों को अपनी परीक्षाओं व शैक्षिक सत्र बाधित होने के नाम पर खुलकर इस आंदोलन को उग्र बनाने का मौका मिल सकता है जो युवा छात्रों के भविष्य या फिर सरकार की सेहत के लिहाज से किसी भी कीमत पर ठीक नहीं कहा जा सकता लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि प्रदेश के माननीय शिक्षा मंत्री इन तमाम तथ्यों से बेखबर हैं और उन्होंने इस बेवजह के मामले को तूल देकर एक नयी आफत मोल ली है। यह माना कि सरकार का दायित्व है कि वह राज्य के तमाम शैक्षणिक संस्थानों को राजनैतिक हस्तक्षेप से दूर रखे और ऐसा माहौल बनाये कि शिक्षा के इन मंदिरों में सिर्फ व सिर्फ ज्ञान की बात हो लेकिन यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि भाजपा भी अपनी छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के माध्यम से प्रदेश के तमाम विश्वविद्यालयों के कार्यकलापों व छात्र संघ चुनावों में दखलंदाजी करती रही है और राजनीति की प्रथम सीढ़ी माने जाने वाले इन संगठनों पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए नेताओं की आपसी खींचतान या फिर विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं की थुक्का फजीहत कोई नयी बात नहीं है। यह पहला मौका है जब सरकार ने चुनावों के इस विषय को गंभीरता से लिया है तथा एक महाविद्यालय में गलत तरीके से प्रवेश लेने वाली एक छात्रा के प्रवेश को चुनावी मौके पर निरस्त न करने से नाराज एक शिक्षा मंत्री ने अपने अधीनस्थों के खिलाफ इतनी बड़ी कार्यवाही को अंजाम दिया है लेकिन अगर तथ्यों की गंभीरता पर गौर किया जाय तो कर्मचारियों की नाराजी सिर्फ अपने साथियों व अधिकारियों के निलम्बन से ही नहीं है बल्कि वह अपने विभागीय मंत्री की कार्यशैली व राजकाज से जुड़े छोटे-छोटे मुद्दों पर बेवजह की दखलंदाजी से खफा हैं और आंदोलन का मोर्चा खोले अधिकांश कर्मचारी संगठनों का मानना है कि अगर निलम्बन के इस मामले में इस मामले में मंत्री जी व उनके मुंहलगों की टीम को बिना किसी रोक टोक के अपनी मनमर्जी करने का मौका मिलता है तो आगे आने वाले समय में हालात और भी ज्यादा खराब हो सकते हैं क्योंकि पहली बार मंत्री बने धन सिंह रावत राजकाज के तौर-तरीकों से अन्जान होने के साथ ही साथ इस पूरी व्यवस्था को अपनी लाठी से हांकने की इच्छा रखते हैं। लिहाजा कर्मचारी वर्ग का आक्रोश चरम् पर है और वह किसी भी हद तक जाकर अपने साथियों की बहाली के साथ ही साथ सरकारी कामकाज में निचले स्तर पर की जा रही मंत्रीजी के चमचों की दखलंदाजी रोकने के लिए आर-पार की लड़ाई लड़ने का मन बनाये हुए हैं। हो सकता है कि विभागीय मंत्री को यह महसूस होता हो कि विभाग का मुखिया होने के कारण उन्हें अपनी जांच व सूचनाओं के आधार पर फैसले लेने व कार्यवाही करने का पूरा हक है तथा मौजूदा हालातों में आंदोलनरत् कर्मचारियों, को वेतन कटौती व एस्मा आदि का डर दिखाकर उन्हें काम पर वापिस जाने के लिए तैयार करना या फिर उनकी बात सुने बिना इस हड़ताल को समाप्त करना आसान है लेकिन अगर सरकार चलाने की नीयत से देखा जाये तो उच्च शिक्षा विभाग के एक बड़े हिस्से व तमाम महाविद्यालयों में चल रही यह तालाबंदी किसी भी तरह से सरकार के हक में नहीं कही जा सकती और अगर सरकार चाहती तो वह ज्यादा आसानी के साथ इन तमाम विषयों को निपटाने के उपाय ढूंढ सकती थी लेकिन विभागीय मंत्री की जल्दबाजी ने विपक्ष को एक हथियार सौंप दिया है तथा आईएसबीटी हल्द्वानी को पूर्व प्रस्तावित स्थान से हटाने के फैसले से पहले ही सरकार से नाराज चल रही इंदिरा हृदयेश को छात्रों व कर्मचारियों के बहाने इस पूरे मामले में हस्तक्षेप करने व विधानसभा में अपनी नाराजी दिखाने का मौका मिल गया है। जहां तक सरकार की मुश्किलों का सवाल है तो यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि राजधानी देहरादून के पत्रकार व वकील पहले ही कई मुद्दों पर सरकार से नाइत्तेफाकी व नाराजी प्रदर्शित कर चुके हैं तथा गैरसैण के मुद्दे पर आंदोलनरत् सामाजिक संगठनों के समूह हालिया विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिले पूर्ण बहुमत के बावजूद जनता के बीच सरकार की नकारात्मक भूमिका बनाने में कामयाब रहे हैं। ठीक इसी क्रम में यह जिक्र किया जाना भी आवश्यक है कि अभी हाल ही में सरकार के एक शासनादेश के माध्यम से शिक्षकों के कई पद समाप्त हो जाने के चलते युवाओं व बेरोजगारों में भी आक्रोश है तथा विभिन्न विभागीय संगठन व टेªड यूनियन सरकार की मनमानी के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फुकने की चेतावनी पहले ही जारी कर चुकी है। उपरोक्त के अलावा शराब की दुकानों के विरोध में पूरे पहाड़ पर बना सरकार विरोधी माहौल किसी से छिपा नहीं है तथा व्यापक जनहित में कार्य कर रहे तमाम सामाजिक संगठन व पर्यावरणविद् पंचेश्वर बांध व आॅल वेदर रोड के संदर्भ में सरकार के फैसलों से खुश नहीं बताये जाते। इन हालातों में राज्यों के तमाम महाविद्यालयों के कर्मचारी तथा इनमें पढ़ने वाले छात्रों के बढ़े समूह भी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल लेते हैं और यह आंदोलन अगर ज्यादा लम्बा चलता है तो इसका सीधा असर आगामी स्थानीय निकायों व पंचायतों के चुनावों पर पड़ना तय दिखता है और विभिन्न मुद्दों पर सरकार से नाराज दिख रही जनता अगर आगामी लोकसभा चुनावों में जनमत के माध्यम से अपनी नाराजी व्यक्त करती है तो यह तय मानना चाहिए कि मौजूदा सरकार के मुखिया त्रिवेन्द्र सिंह रावत की मुश्किलें भी बढ़ सकती हैं। राजनीति के इस तमाम अंकगणित को समझने के बावजूद अगर उच्च शिक्षा राज्य मंत्री धन सिंह रावत अपनी जिद पर अड़े हैं तो इसके पीछे जरूर कोई बड़ी वजह होगी और एक राजनैतिक परिवेक्षक की नजर से विचार करें तो यह वजह नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश को नीचा दिखाना या फिर उनके सत्ता में न रहने के बावजूद शिक्षकों व छात्रों के एक बड़े वर्ग पर स्पष्ट दिखता उनका प्रभाव तोड़ना मात्र नहीं हो सकती। इन हालातों में यह तय दिखता है कि धन सिंह रावत जानबूझकर अपनी सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं और उनकी इस रणनीति के पीछे कहीं न कहीं संघ के एक कट्टर कार्यकर्ता के रूप में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी स्पष्ट दिखाई दे रही है लेकिन सवाल यह है कि क्या अपनी राजनैतिक ओहदेदारी की इस जंग में इस गरीब पर्वतीय प्रदेश के हजारों छात्रों का भविष्य दांव पर लगाने का विभागीय मंत्री को अधिकार है और तत्काल प्रभाव से निलम्बित बताये जा रहे कर्मचारियों व अधिकारियों का दोष क्या वाकई इतना संगीन है कि इसमें माफी अथवा सुलह-समझौते की कोई गुंजाईश नहीं है।