कट्टर हिन्दूवाद के नाम पर राजनीति का तालिबानीकरण करने की कोशिशें तेज करने के हो रहे हैं प्रयास।
यह एक बड़ा सवाल है कि क्या उग्र हिन्दूवाद हमें उस तालिबानी संस्कृति की ओर ले जा रहा है जिसकी सम्पूर्ण विश्व में निंदा हो रही है या फिर देश की आजादी के इन सत्तर सालों में तथाकथित धर्म निरेपेक्षता के नाम पर ओढ़ा गया मुस्लिम तुष्टीकरण का लबादा अब इतना भारी हो गया है कि केन्द्र की सत्ता पर काबिज राजनैतिक विचारधारा न सिर्फ इससे छुटकारा चाहती है बल्कि एक रणनीति के तहत हिन्दू मतदाताओं को एकजुट करते हुए अपनी धारा के विपरीत चलने वाले मुस्लिम व समाज के अन्य वर्गों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखना चाहती है जिसके लिए डर का साम्राज्य कायम किया जाना जरूरी है। हमने देखा कि हिन्दू मतदाताओं की एकजुटता के चलते हालिया गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के प्रमुख नेता व वर्तमान अध्यक्ष न सिर्फ मंदिर-मंदिर मत्था टेकते दिखे बल्कि उनकी पार्टी के राजनैतिक प्रवक्ताओं के बीच उन्हें जनेऊधारी हिन्दू साबित करने की एक होड़ भी दिखी लेकिन कांग्रेस या राहुल के इस कृत्य का मुस्लिम समाज के किसी भी हिस्से से विरोध नहीं हुआ जबकि तथाकथित हिन्दूवादी विचारधारा की बात करने वाले सरकार समर्थकों द्वारा राहुल गांधी के इस नव अवतार का न सिर्फ विरोध किया गया बल्कि उनके खानदान व परिवार पर तरह-तरह के आरोप लगाकर उन्हें मुस्लिम अथवा विधर्मी साबित करने की एक होड़ दिखी और ऐसा लगा कि मानो कुछ लोग राहुल के मंदिर जाने या फिर उन्हें जनेऊधारी हिन्दू बताये जाने से परेशान हो गए हो। हालांकि भाजपा से जुड़ी हिन्दूवादी विचारधाराएं व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ समेत उसके तमाम अनुषांगिक संगठन यह मानकर चलते हैं कि आर्यावृत्त पर मुगल आक्रान्ताओं के हमलावर होने से पहले यहां सिर्फ सनातन धर्म का ही बोलबाला था और चक्रवर्ती सम्राटों व छोटे-छोटे राजघरानों के आपसी झगड़ों के चलते ही मुगलों को भारतवर्ष पर आक्रमण करने या राज करने का मौका मिला। भारतीय राजाओं पर किए गए अपने हमलों के दौरान मुगल आक्रान्ताओं ने न सिर्फ इन राजाओं व इनकी रियासतों को लूटा बल्कि मौका मिलते ही तलवार की नोंक पर अथवा अन्य तमाम तौर तरीकों से हिन्दू धर्मावलम्बियों के एक हिस्से को मुस्लिम बनाने में वह कामयाब रहे। लिहाजा भारतवर्ष में रहने वाले तमाम मुस्लिमों के पूर्वज हिन्दू ही थे और इन्हें रजामंदी के साथ या फिर जोर जबरदस्ती हिन्दू धर्मावलम्बियों की तरह व्यवहार करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। भाजपा के सत्ता में आने के बाद इस विचारधारा से सहमत कुछ तथाकथित हिन्दूवादी संगठनों ने बकायदा ‘घर वापसी अभियान’ चलाकर राजनैतिक रूप से इस तरह के कार्यक्रम भी आयोजित किए और यह संदेश देने की कोशिश की गयी कि देश की सर्वोच्च सत्ता पर भाजपा का राज कायम होने के बाद राजसत्ता पर हावी हिन्दूवादी ताकतें मनमाने तरीके से कानून की व्याख्या कर एक नया जंगलराज कायम करने का प्रयास जारी रखेंगी। यह माना कि इस तरह के सांकेतिक प्रयासों के बाद मानवाधिकारवादियों व अन्य संगठनों की पहल पर हरकत में आए कानून ने खुलेआम हो रही इन गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए तमाम तरीकों से सख्ती लागू करने की कोशिश की और दहशत फैलाने के क्रम में आयोजित किए जा रहे इस प्रकार के तमाम कार्यक्रमों पर रोक लगाने के भी प्रयास किए गए लेकिन तब तक गो हत्या के विरोध, लव जेहाद, मुस्लिम तुष्टीकरण या फिर सड़क पर नमाज जैसे तमाम विषयों को उठाकर मुस्लिम समाज के विरूद्ध एक माहौल बनाने का काम शुरू हो चुका था। हालांकि यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इन पिछले सत्तर वर्षों में देश की सत्ता पर काबिज राजनैतिक विचारधारा के विभिन्न राजनैतिक दलों ने तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण को आगे बढ़ाया और राष्ट्रीय अस्मिता पर हमलावर आतंकियों या आतंकवादी विचारधारा को कुछ भटके हुए नौजवानों की संज्ञा देकर अनदेखा करने या फिर इनके खिलाफ सख्त कार्यवाही से बचने की कोशिश की गयी लेकिन वर्तमान में हालात यह इशारा कर रहे हैं कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद कुछ तथाकथित विचारधाराएं भी इसी तर्ज पर आगे बढ़ने या अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास कर रही हैं और अपराध की श्रेणी में आने वाले विभत्स हमलों को विचारधारा का नाम देकर महिमामंडित करने का प्रयास किया जा रहा है। यह ठीक है कि केन्द्र सरकार या फिर सत्ता के शीर्ष पर काबिज भाजपा ने किसी भी मंच से इन हमलावरों या हमलों का समर्थन नहीं किया है और न ही सत्ता के शीर्ष पर काबिज किसी राजनेता ने इस तरह की घटनाओं को न्यायोचित करार दिया है लेकिन सरकार की ओर से किसी भी स्तर पर इन घटनाओं के विरोध अथवा दोषी पक्ष को कानून के दायरे में रखकर सजा दिए जाने की आवाज भी नहीं उठी है जो भारतीय राजनीति का एक काला पक्ष माना जा सकता है और समाज में बढ़ती दिख रही अमानुषिकता व सरकार के इस भेदभावपूर्ण रवैय्ये के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि भारतीय राजनीति का तेजी से बदलता यह अंदाज हमारे समाज को एक अलग माहौल की ओर ले जा रहा है। हो सकता है कि अभी छुटपुट या इक्का-दुक्का रूप में सामने आ रही इन घटनाओं ने समाज के एक बड़े हिस्से को प्रभावित न किया हो और इस प्रकार के तमाम घटनाक्रमों के पीछे छिपी स्थानीय राजनीति व अन्य कारक समाज पर व्यापक असर डालने में सक्षम भी न हो लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी भी राजनैतिक विचारधारा या फिर सत्ता पर कब्जेदारी के आधार पर बढ़ते दिख रहे राजनैतिक प्रभाव के आधार पर किसी भी गुट को इस प्रकार की मनमानी की छूट दी जा सकती है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और यहां का कानून देश के हर नागरिक को अपनी अभिव्यक्ति की आजादी के अलावा अपनी धार्मिक परम्पराओं के अनुपालन व व्यापक जनमत के आधार पर अपनी सरकार चुनने के अधिकार प्रदान करता है लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में राजनीति व धर्म के घालमेल ने परिस्थितियों को संदिग्ध बनाकर रख दिया है और कुछ अतिउत्साही व नवोदित संगठनों की बयानबाजी व गतिविधियां देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा है कि कतिपय एक वर्ग ताकत के बल पर सत्ता पर अपनी कब्जेदारी बनाए रखना चाहता है। सवाल यह है कि क्या हमारा संविधान या फिर संविधान की रक्षा के लिए गठित की गयी स्वतंत्र इकाईयां इन नवोदित संगठनों को इस तरह के अधिकार देने के पक्ष में है? अगर इस प्रश्न का जवाब नहीं है तो फिर इन इकाईयों को स्वतंत्र रूप से आगे आकर देश की जनता को यह भरोसा देना चाहिए कि विचारधारा के नाम पर चल रही तमाम आपराधिक गतिविधियों व समाज को विभक्त करने वाली कार्यवाहियों के विरोध में सरकार कौन-कौन से कदम उठा रही है। हालांकि अभी यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि हम धर्मान्धता के नाम पर एक नए गुंडाराज की ओर बढ़ रहे हैं और कुछ जातिवादी या धार्मिक संगठन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर बलात कब्जे के लिए अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल करते हुए एक नया तालिबानी संस्करण खड़ा करने की ओर आगे बढ़ रहे है। लेकिन हालात इतने अच्छे भी नहीं है कि एक के बाद एक कर सामने आ रहे घटनाक्रमों को योँ ही नजरअंदाज कर दिया जाय और राजनीति के मैदान में सब कुछ जायज है, कहकर राजस्थान में सामने आये हालिया घटनाक्रम को अनदेखा कर दिया जाये।