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Thursday, March 28, 2024

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आंकड़ों की भाषा में

पलायन आयोग के जरिये झलकी सरकार की चिन्ता एक बेईमानी।
उत्तराखंड के नवगठित पलायन आयोग से छनकर आ रही खबरों को अगर सही मानें तो पहाड़ों में हो रहा पलायन कोई विशेष चिंता योग्य विषय नहीं है और आंकड़ों के आधार पर निकाले गये निष्कर्ष के अनुसार पहाड़ों पर हो रहे पलायन की दर राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप ही है। हालांकि पलायन आयोग द्वारा इन विषयों पर विस्तृत रिपोर्ट अभी प्रस्तुत नहीं की गयी है और यह माना जा रहा है कि इस मामले में चिंता व चिंतन योग्य तमाम विषयों को समाहित करते हुए आयोग अतिशीघ्र अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर देगा लेकिन जो खबरें आ रही हैं उन्हें अगर विश्वास योग्य माना जाये तो हम पाते हैं कि आयोग राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में नये कस्बे व आबादी क्षेत्रों के अस्तित्व में आने की ओर इशारा कर रहा है तथा वर्ष 2011 के बाद पहाड़ से पूर्व में पलायन कर चुके लोगों की घर वापसी की उम्मीदें बढ़ती प्रतीत हो रही हैं। यह तो पता नहीं कि आयोग ने यह निष्कर्ष किस आधार पर निकाला है और राज्य के दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार हो रहे पलायन को रोकने के लिए आयोग की ओर से क्या सुझाव दिये जाने हैं लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य में गठित अन्य तमाम आयोगों अथवा कमेटियों की तरह पलायन आयोग को अपना कार्य करने के लिए समय विस्तार की आवश्यकता नहीं है और आयोग द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली रिपोर्ट सरकार को विशेष राहत प्रदान करने वाली हो सकती है। सरकारी नजरिये से देखें तो आयोग का यह आंकलन सरकारी तंत्र के लिए नई योजनाओं के निर्माण में सहायक हो सकता है तथा सरकार आसानी के साथ पलायन से जुड़े कमजोर पक्ष को आधार बनाते हुए विस्तृत कार्ययोजना तैयार कर सकती है लेकिन यह एक बड़ा सवाल है कि अगर वाकई सब ठीक-ठाक है तो फिर दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में गांव दर गांव सन्नाटा क्यों पसरता जा रहा है और राज्य की सम्पूर्ण विकास दर में प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों का योगदान कितने प्रतिशत है, यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब अभी आना शेष है और यह माना जा रहा है कि पलायन से जुड़े इन तमाम सवालातों पर आयोग की आख्या मिलने के बाद ही सरकार राज्य के मूलभूत विकास को ध्यान में रखकर किसी योजना का निर्माण कर पायेगी। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि उत्तराखंड की संस्कृति के संवाहक व रक्षक माने जाने वाले गांव धीरे-धीरे कर वीरान होते जा रहे हैं तथा राज्य के विकास को लेकर किए जा रहे तमाम दावों के बावजूद पहाड़ों के सीढ़ीनुमा खेतों में सिवाय घास-पतवार के और कुछ भी नहीं हो रहा है। यह माना कि काम धंधे व रोजगार की तलाश में गांव-घरों से देश-विदेश की ओर रूख करना पहाड़ी युवाओं की नियति रही है और अपनी जीवटता व मेहनतकश प्रवृत्ति के चलते उत्तराखंड के पहाड़ी जनमानस ने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अनेक मुकाम हासिल किए हैं लेकिन उत्तराख्ंाड राज्य के गठन तक स्थानीय जनता को अपने क्षेत्रीय विकास व सरकारी कार्यशैली से एक उम्मीद थी और इसी उम्मीद के चलते गांव-घरों या सीमान्त क्षेत्रों से दूरस्थ मैदानी क्षेत्रों को रूख करने वाला नौजवान या कामकाजी व्यक्ति अपने परिवार व अन्य सहोदरों को गुजर-बसर के लिए अपने मूल स्थान अर्थात् गांव में ही रखना पसंद भी करता था लेकिन राज्य बनने के बाद अपनी सरकार से टूटी स्थानीय जनता की उम्मीद ने आम आदमी को हताश व निराश किया है तथा सरकारी कामकाज में बढ़े राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण अध्यापक विहीन होते जा रहे पहाड़ी क्षेत्रों के स्कूल आम जनमानस को मजबूर कर रहे हैं कि वह अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए राज्य से पलायन करें या फिर अपने आस-पास के क्षेत्रों में ही अपनी सुविधानुसार रिहाईश की व्यवस्था कर उन तमाम सुविधाओं को जुटाएं जो वर्तमान में जीवन की नितांत आवश्यकता बन गयी है। हो सकता है कि इस क्रम में दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों से सड़कों के किनारे बन रहे नये शहरनुमा कस्बों या आबादी क्षेत्रों के अस्तित्व में आने के कारण पलायन आयोग को यह महसूस हुआ हो कि स्थितियां उतनी गंभीर नहीं हैं जितनी बतायी जा रही हैं और इस पलायन से किसी जिले के जनसंख्या घनत्व या फिर चुनाव व सीट निर्धारण की दृष्टि से देखे जाने वाले जनसांख्यकीय आंकड़े पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा हो लेकिन हकीकत यह है कि स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप हो रहे इस पलायन ने पहाड़ की आर्थिकी की कमर तोड़कर रख दी है और किसी जमाने में बड़े-बड़े परिवारों के पेट पालने के साथ ही साथ दूरस्थ मैदानी क्षेत्रों में अपने सहोदरों व निकटस्थ सम्बन्धियों के लिए स्थानीय कृषि उपजों की भेंट जुटाने वाले पहाड़ के खेत अब बंजर होते जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि पहाड़ी जनसमुदाय अब नकारा हो गया है और वह काम नहीं करना चाहता या फिर इन पिछले दो दशकों में सरकार ने उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों व दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में ऐसे काम-धंधे व रोजगार जुटा दिए हैं कि स्थानीय जनता को अपनी रोजी-रोटी के लिए पहाड़ के छोटे-छोटे सीढ़ीनुमा खेतों पर मेहनत मशक्कत की जरूरत ही नहीं है लेकिन यह सच है कि जमीन की उर्वरता व स्थानीय जरूरतों के बावजूद लोग अपने खेत व घर छोड़ रहे हैं और खुद को जिंदा रखने के लिए स्थानीय बाजारों के जरिये मिलने वाला महंगा किंतु गुणवत्ताविहीन साजो-सामान व कृषि उत्पाद खरीदना उनकी मजबूरी बन गया है। पता नहीं कि राज्य पलायन आयोग ने इन गंभीर विषयों को अपनी चिंताओं में समाहित भी किया होगा या नहीं और राज्य की जनता के हितों को लेकर सजग होने का दावा करने वाली हमारी सरकार पलायन के मुद्दे पर बहस या विचार करते वक्त उन तमाम कारणों को अपनी चर्चाओं का विषय बनायेगी अथवा नहीं जिनके चलते राज्य की स्थानीय आबादी ने होली-दीपावली तो छोड़िये साल दो साल में देवताओं को पूजने के बहाने भी गांव आना बंद कर दिया है। पहाड़ की अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परम्पराएं हैं तथा पहाड़ों पर देवी-देवताओं के मंदिरों में लगने वाले जागर व तमाम पौराणिक मेलों का अपना अलग महत्व है लेकिन अफसोसजनक है कि सरकार संस्कृति व लोककलाओं को बढ़ावा देने के नाम पर इन तमाम परम्पराओं व आयोजनों का सरकारीकरण करती जा रही है तथा नेताओं की जय-जयकार व चुनावी राजनीति की दृष्टि से स्थानीय जनमानस को एक साथ एकत्र देख बौखलाहट में तब्दील होती दिख रही जनप्रतिनिधियों की महत्वाकांक्षाओं ने आम आदमी को इन आयोजनों से विमुख करने का काम किया है। उपरोक्त के अलावा दूसरा सबसे बड़ा कारण शराब है। सरकारी राजस्व को बढ़ाने के नाम पर स्थानीय नेताओं व जनप्रतिनिधियों द्वारा दिया जाने वाला शराब माफिया व व्यवसायियों को संरक्षण पहाड़ की जड़ों को खोखला कर रहा है तथा पहाड़ ही में पले-बसे व पहाड़ के शांत जनजीवन को हर प्रकार से उपयुक्त मानने वाले बड़े-बुजुर्ग अब यह नहीं चाहते कि उनकी अगली पीढ़ी शराब के बढ़ते प्रचलन से प्रदूषित हो चुके इस माहौल में ज्यादा लम्बे समय तक टिक कर अपना भविष्य बर्बाद करे। नतीजतन पहाड़ के गांव वीरान होते जा रहे हैं और दूर देशों या मैदानी इलाकों में जा बसे पहाड़ी मूल के लोगों ने अपनी जरूरतों व लगाव के बावजूद पहाड़ न आने का मन बना लिया है लेकिन इस सबके बावजूद सरकार अथवा सरकारी संरक्षण में काम कर रहा आयोग अगर यह कहता है कि राज्य में पलायन को लेकर सामने आ रहे आंकड़े निराश नहीं करते तो यह तय है कि या तो एक बड़ा झूठ जनता के सामने प्रस्तुत करने की तैयारी पूरी हो चुकी है या फिर सरकार द्वारा गठित इस आयोग ने धरातल पर काम ही नहीं किया है। अगर सरकार वाकई में पहाड़ से हो रहे पलायन को लेकर चिंतित है और वह चाहती है कि दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्रों के ग्रामीण इलाके एक बार फिर से गुलजार हो तो इसके लिए सरकार बहादुर ने खुद पहाड़ों की ओर रूख करना होगा। देहरादून के सम्पूर्ण सुविधायुक्त पांच सितारा कमरों में बैठकर इस पहाड़ी राज्य के विकास की योजनाएं नहीं बनायी जा सकती और न ही उड़नखटौले की सवारी कर पिकनिक वाले अंदाज में पहाड़ी जिलों में समीक्षा बैठक आयोजित कर अथवा प्रायोजित भीड़ के माध्यम से जनसभाएं कर आम जनता की समस्याओं को समझा जा सकता है लेकिन सरकार भी मजबूर है क्योंकि उसके पास जनता को देने के लिए आश्वासन के सिवा कुछ नहीं है। हम महसूस कर रहे हैं कि दीमक की तरह इस पहाड़ी राज्य को खोखला कर रहा माफिया-ठेकेदार-नौकरशाह व नेता का गठजोड़ इस राज्य की जनता के हितों अथवा पहाड़ की संस्कृति व सभ्यता को लेकर जरा भी चिंतित नहीं है लेकिन चुनावी राजनीति के दृष्टिकोण से आम आदमी को भ्रम में रखने के लिए आयोगों के गठन व गलत आंकड़ों के माध्यम से भ्रमजाल को बनाये रखने के प्रयास जारी हैं।

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