एक और जीत दर्ज करते हुऐ भाजपा ने दिया समुचे विपक्ष को झटका जीत के क्रम को आगे बढ़ाते हुए भाजपा ने एमसीडी के चुनावों में भी अपना परचम लहरा दिया है। यह अलग बात है कि इस चुनावी जंग में हार को प्राप्त होने वाले इसे किस तरह से लेते हैं लेकिन अगर राजनैतिक दूरदर्शिता की दृष्टि से देखा जाए तो आम आदमी पार्टी व कांग्रेस समेत तमाम राजनैतिक दलों के लिए यह आत्ममंथन का समय है और भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द सरकार के साथ ही विभिन्न राज्यों की सरकार के अलावा खुद दिल्ली एमसीडी में भाजपा के शासन काल पर लगे विभिन्न आरोंपो के बावजूद सिर्फ एक मोदी के नाम पर भाजपा का हर चुनाव को जीत जाना आश्चर्यजनक भी करता है। हालांकि कुछ राजनैतिक दल इन तमाम जीतो का श्रेय ईवीएम को दे रहे हैं और पिछले दिनों हुई प्रेस कांफ्रेन्स में सामने आयी इवीएम की गड़बड़ी को आधार बना यह कहा जा रहा है कि इस तरह की बहुमत से चुनावों जीत भाजपा की सुनियोजित साजिश का हिस्सा है लेकिन यहां पर स्वाभाविक रूप से यह सवाल भी उठता है कि अगर विपक्षी दल ईवीएम में की जा रही गड़बड़ी को लेकर अश्वस्त है तो इस विषय पर एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन की रणनीति क्यों नहीं बनायी जा रही । यह माना कि केंद्रीय सत्ता की कुंजी भाजपा के हाथ में है और विभिन्न राज्यों में भी भाजपा के सत्ता में होने के कारण उसकी गिनती देश के ताकतवर दलों मे होने लगी है लेकिन सत्ता के मद में चूर होकर एक अधिनायक की तरह व्यवहार करने वाले किसी भी राजनैतिक दल को चेतावनी देने के बहुत से राजनैतिक तरीके है जो अन्ततोगत्वा चुनाव बहिष्कार तक जाते है लेकिन तमाम राजनैतिक दलों द्वारा इस दिशा में कोई कदम न उठाये जाने से यह स्पष्ट है कि उन्हें भी अपने बयानों पर पूरी तरह भरोसा नहीं है या फिर हर चुनावी हार के बाद अपनी खीज मिटाने व कार्य कर्ताओं का मनोबल रखने के लिए चुनावी तौर-तरीको पर संदेह व्यक्त करते हुए ईवीएम पर निशाना साधने का एक फैशन सा हो गया है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछली तीन वर्षाें से केन्दª की सत्ता पर काबिज़ होने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी या भाजपा सरकार की कोई ऐसी उपलब्धि नहीं है जिसे जनकल्याणकारी कहा जा सके बल्कि अगर देखा जाय तो मौजूदा सरकार पूर्व में चल रही तधाकधित रूप से जनकल्याणकारी योजनाओं में कटौती कर या फिर सरकारी योगदान के रूप मे दी जाने वाली छूट (सब्सिडी) देने के रास्तो में परिवर्तन कर सरकारी धन का अपव्यय रोकने के प्रयास ढूंढ रही है और सरकार द्वारा लागू की गयी नोटबन्दी समेत तमाम योजनाओं को देखकर भी ऐसा महसूस होता है कि मौजूदा सरकारी तन्त्र छोटे-छोटे काम धंधो को बन्द कर बड़े पूँजीपतियों वर्ग को बाजार से खेलने का पूरा मौका देना चाहता है लेकिन इसके बावजूद भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ तेज़ी से बढ़ना और चुनाव दर चुनाव राज्यों में उसकी सत्ता का आते जाना आश्चर्यचकित करता है। आश्चर्यमिश्रित इन सफलताओं के बीच एक विशेष तथ्य जिसे समुचा विपक्ष या तो देखना ही नहीं चाहता या फिर देखते हुए भी अनदेखा करने की कोशिश में है, वह यह है कि वर्तमान में भाजपा ने स्थानीय स्तर पर छोटे-छोटे सामाजिक मुद्दे उठा विभिन्न हिस्सों में विभाजित हिन्दुओं की तमाम बिरादियों को एकता के सूत्र में बांधने में काफी हद तक सफलता प्राप्त कर ली है और इस पर भी विशेष रोचक तथ्य यह है कि भाजपा व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की इस सोच ने इस वक्त समाज के युवा तबके को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि देश की आजादी के एक लम्बे समय बाद तक केन्द व राज्यों की सत्ता पर काबिज़ रही कांग्रेस ने सत्ता पर अपनी कब्जेदारी को बनाये रखने के लिए मुसलिम वोट-बैंक की ताकत को हमेशा तरजीह दी और एक विशेष अन्तराल के बाद विभिन्न राज्यों में उपजी क्षेत्रीय राजनैतिक ताकतों (जिनमें से अधिकांश कांग्रेस का ही हिस्सा रही थी) ने स्थानीय जातीय समीकरणों के आधार पर कांग्रेस के इस तिलस्म को तोड़ा लेकिन देर-सवेर यह राजनैतिक दल की मुसलिम वोट-बैंक का मोह नहीं छोड़ पायें और मुसलिम मतदाताओं की सीमित संख्या तथा राजनीति के मैदान में गिने-चुने मुसलिम नेता होने के बावजूद हर चुनाव में मुसलिम मतदाताओं पर प्राथमिकता के आधार से दी जाने वाली तवज्जों ने इस वर्ग को समाजिक प्रतिस्पार्धा का एक कारण बना दिया । हाॅलाकि इस विशेष राजनैतिक तवज्जों ने मुस्लिम समाज के विकास के क्रम को आगे बढ़ाने में कोई मदद नहीं की और सिर्फ वोट-बैंक के तौर पर इस्तेमाल होता रहा मुस्लिम मतदाता देश की आजादी के इन सत्तर सालो बाद भी यह तय नहीं कर पाया कि एक जागरूक देशवासी के रूप में उसके अधिकार व कर्तव्य क्या है ? यहां पर यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि आन्दोलन की पृष्ठभूमि से निकली आम आदमी पार्टी जब तक जुझारू व विद्रोही तेवरों वाले नेताओं का दल था तब तक उसे युवाओ व अन्य सभी वर्गो के मतदाताओं ने खूब पसन्द किया लेकिन दिल्ली की सत्ता सम्भालने के बाद केजरीवाल को भी यह लगने लगा कि देश भर में बिखरें मुस्लिम मतदाताओं का अपने हित में इस्तेमाल कर वह आसानी से अपना एक राष्ट्रीय स्वरूप व पहचान कायम कर सकते हैं और केजरीवाल ने अपना जन सरोकारों के लिये सजग प्रहरी वाला अन्दाज छोडकर सिर्फ मुस्लिम वर्ग की हिमायत को शुरू कर दिया। नतीजतन मोदी के मुकाबले के लिऐ एक बड़ी राजनैतिक ताकत माने जा रहे केजरीवाल भी अपने जमजमाव से पहले ही कमजोर होने शुरू हो गये। वर्तमान में स्थिति यह है कि मोदी देश के एकछत्र नेता हैं और भाजपा हर छोटे-बड़े चुनाव में उनका बखूबी इस्तेमाल कर रही है लेकिन यह सब कितने समय तक चलेगा कहां नहीं जा सकता क्योंकि भाजपा का नीतिनिर्धारक संघ वस्तुतः ब्राहमणों के वर्चस्व वाला संगठन है और जैसे-जैसे उसकी सत्ता पर पकड़ मजबूत होगी वैसे-वैसे भाजपा के भीतर हिन्दू धर्म की अन्य जातियों विशेषकर दलितों के अधिकार कम करने की मांग तेज होने लगेगी जिसके चलते सत्ता के शीर्ष पर काबिज़ नेताओं की मजबूरी होगी कि वह जातिगत् आरक्षण के वर्तमान ढांचे से छेड़छाड़ करे और यही सब कुछ भाजपा को राजनैतिक गर्त की ओर ले जायेगा । हमने देखा कि आरक्षण के विरोध में उठने वाली हर आवाज को संघ का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन मिला है तथा आरक्षण विरोधी आन्दोलन के ही बदले हुए स्वरूप कहे जा सकने वाली जाट, गुर्जर, पाटीदार आदि समुदायों को आरक्षण के दायरे में रखने सम्बन्धी तमाम आन्दोलनों को भाजपा के प्रमुख रणनीतिकार के रूप में संघ की कहीं न कहीं शह रही है। इन हालातों में यह तय है कि अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो देश की राजनीति में मौजूद वर्तमान विपक्षी नेतृत्व के पास वह ताकत नहीं है जो हाल-फिलहाल मोदी की कुर्सी हिला सके और अगर सबकुछ ऐसे ही चलता रहा तो मोदी राज में भाजपा कदम दर कदम जीत के सोपानो पर आगे बढ़ते हुए सत्ता के शीर्ष पदों पर अपनी कब्जेदारी बनाये रखेगी।