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Friday, March 29, 2024

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राजनीति के खेल में

हथियार की तरह इस्तेमाल किए जा रहे हैं दलित व अन्य गरीब जनसमुदाय
वर्ष-2018 के पहले ही दिन महाराष्ट्र के पुणे जिले में विजय दिवस के आयोजन हेतु एकत्र हुए सैकड़ों दलित संगठनों व उनके हजारों समर्थकों के साथ ऐसा क्या हुआ कि पूरा महाराष्ट्र जल उठा, यह एक जांच का विषय तो है ही साथ ही साथ महाराष्ट्र सरकार व देश की सुरक्षा को लेकर बड़े-बड़े दावे करने वाले गुप्तचर संगठनों के लिए भी एक बड़ा सवाल है। हालांकि सैकड़ों वर्षों तक दबाये गए व सवर्ण उत्पीड़न से पीड़ित दलितों के इस आक्रोश प्रदर्शन में नया कुछ भी नहीं है और न ही यह कोई पहला घटनाक्रम है जो एकाएक ही सामने आया है लेकिन अगर राष्ट्र की अन्दरूनी सुरक्षा व आम आदमी के अधिकार की हैसियत से बात करें तो यह एक गंभीर घटनाक्रम है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि कुछ राजनैतिक ताकतें इस तरह की घटनाओं का इस्तेमाल अपनी राजनैतिक हैसियत व वोट बैंक बढ़ाने के लिए करती रही है। यह ठीक है कि समग्र हिन्दुत्व की बात करने वाली भाजपा या फिर मराठा गौरव को विषय बनाकर चुनाव मैदान में उतरने वाली शिवसेना व मनसे जैसी राजनैतिक ताकतों को इस तरह के घटनाक्रमों से नुकसान ही पहुंचता है और हिन्दू मतदाताओं को तेजी के साथ एकजुट कर राजनीति के मैदान में लंबी कब्जेदारी के लिए खुद को तैयार कर रही भगवा सेनाओं से यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि वह दलितों को सवर्णों से दूर करने वाले विषयों को उठाकर स्वयं अपने पैरांे पर कुल्हाड़ी मारने का प्रयास करेंगे लेकिन दलित समुदाय को संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण सम्बंधी अधिकार के विरोध में उठने वाले स्वरों तथा भारतीय संविधान के रचियता अम्बेडकर की मंशा को लेकर उठाये जाने वाले सवालों को देखकर यह अहसास तो होता ही है कि देश के सवर्ण मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग आज भी दलितों के विरोध में है और पहले कमजोर व असहाय मानी जाने वाली दलित जातियां अब न सिर्फ अपने अधिकारों व सम्मान को लेकर सजग हैं बल्कि सत्ता में भागीदारी मिलने के बाद उन्हें अपने हकों के लिए सड़कों पर संघर्ष करने से भी कोई गुरेज नहीं है। हालांकि यह कहना कठिन है कि संविधान में विशेष व्यवस्था के माध्यम से दलितों को दिए गए आरक्षण के अधिकार ने निम्न वर्ग व दलित जातियों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने में मदद की है और आरक्षण की व्यवस्था लागू होने के बाद इन पैंसठ-सत्तर सालों में हम दलितों को उनका सम्मान वापस दिला पाने में सफल रहे हैं लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि देश की आजादी के बाद दलित नेताओं के राजनीति की मुख्यधारा में आगे आने के बाद इस समुदाय की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ी है और दैनिक जीवन में दिखाई देने वाले सामाजिक भेदभाव व छुआछूत के मामलों में तेजी से कमी आयी है। इन हालातों में जब दलित समुदायों के साथ छेड़छाड़ या सामूहिक हमले जैसा कोई वाकया सामने आता है तो इस प्रकार के तमाम घटनाक्रमो के राजनीति से प्रेरित होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता और न ही इस तथ्य को स्वीकार किया जा सकता है कि समाज का एक हिस्सा आज भी मनुवादी वर्णव्यवस्था के आधार पर स्वयं को श्रेष्ठ साबित कर समस्त विकास संबंधी योजनाओं व संसाधनों पर अपना कब्जा चाहता है लेकिन अगर इस तरह के घटनाक्रम पूर्व नियोजित व राजनीति से प्रेरित हों तो हालातों को संभालना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर हो जाता है। सरकार अगर चाहे तो वह रोजगार के बेहतर संसाधन जुटाकर इस वैमनस्यता व राजनैतिक कारणों से जन्म लेने वाले सामाजिक विघटन पर आसान रोक लगा सकती है और समाज के सभी वर्गों के लिए उनकी योग्यता एवं अनुभव के आधार पर नये कार्य क्षेत्रों का सृजन कर मानव सभ्यता को एक बड़े संकट से उबारा जा सकता है लेकिन सत्ता की राजनीति करने वाले राजनैतिक दल यह नहीं होने देना चाहते और न ही सरकार के पास इस वैमनस्यता अथवा साम्प्रदायिक व जातिगत् तनाव को दूर करने का कोई उपाय ही है। शायद यही वजह है कि देश की राजनैतिक व्यवस्थाओं में भागीदारी कर सत्ता के सर्वोच्च पदों को प्राप्त करने वाला दलित सामाजिक व आर्थिक रूप से सम्पन्न होने के बावजूद भी दलित ही बना रहना चाहता है और अपने पद व राजनैतिक अस्तित्व को बचाए रखने के लिए उसे किसी भी मौके पर अपना दलित कार्ड खेलने से कोई परहेज नहीं होता जबकि राजनीति के शीर्ष पदों व सत्ता पर पहले से ही कब्जेदारी बनाये चले आ रहे सवर्ण समुदाय के कतिपय नेताओं व अधिकांश युवा वर्ग द्वारा यह महसूस किया जा रहा है कि आगे बढ़ने के समान अवसर मिलने के बावजूद उनके साथ सामाजिक व राजनैतिक रूप से अन्याय किया जा रहा है और इस अन्याय के लिए संविधान के दायरे में रहकर की गयी आरक्षण की विशेष व्यवस्था ही जिम्मेदार है। अगर गौर से देखें तो देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले जातिगत् अथवा धार्मिक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान उसी गरीब व निचले तबके का होता है जिसके पास रोजगार के पुख्ता संसाधन नहीं हैं और इस तबके में समाज के लगभग सभी धर्म, जातियों या सम्प्रदायों के लोग शामिल होते हैं लेकिन नेता अपने-अपने राजनैतिक समीकरणों के हिसाब से इन दंगों से फायदा उठाने में कामयाब रहते हैं और व्यापक जनहित में कई तरह के कायदे कानूनों का अनुपालन करते हुए सामाजिक सुरक्षा का दावा करने वाली सरकार इस तरह के घटनाक्रमों पर चुप्पी साधकर बैठ जाती है। यह माना कि किसी भी सरकारी तंत्र के लिए आरक्षण के पुराने प्रावधानों को एकदम से समाप्त कर सबको समानता के अधिकार देना तथा जातिगत आधार के स्थान पर आर्थिक दृष्टिकोण को सामने रखते हुए नए नियमों को बनाना आसान नहीं है और न ही समाज में व्याप्त धर्मान्धता, रूढ़िवाद व अन्य कुरीतियों को सिर्फ कानून के बलबूते समाप्त किया जाना सम्भव ही है लेकिन हम यह महसूस कर सकते हैं कि पिछले सत्तर वर्षों में जातिवादी वैमनस्य व छुआछूत को छोड़कर जितना आगे बढ़ा जा चुका है उससे आगे बढ़ने के लिए हमारे नेताओं ने अपनी सोच और चुनावी राजनीति के तौर तरीके बदलने होंगे। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि जातिवादी आरक्षण व्यवस्था की खिलाफत अथवा समर्थन में लाख भाषणबाजी के बावजूद हमारे राजनैतिक दल जब चुनाव मैदान में उतरते हैं तो उचित प्रत्याशियों का चयन करते वक्त से ही जातीय, भाषायी व धार्मिक समीकरणों का पूरा ध्यान रखा जाता है और बड़े से बड़ा नेता मतदाताओं के बढ़े वर्ग को अपने पक्ष में झुकाने के लिए इन तमाम समीकरणों को इस्तेमाल करने या फिर अपने चुनावी भाषणों में इनका जिक्र करने से नहीं चूकता जबकि विभिन्न सम्प्रदायों, जातियों, गोत्रों या फिर उपजातियों को आधार बनाकर खड़े किए गए तमाम फर्जी अथवा मजबूत संगठन इन तमाम नेताओं की निजी सेना की तर्ज में अपने-अपने तर्कों के साथ अलग-अलग नेता व राजनैतिक दलों के साथ खड़े नजर आने लगते हैं। नतीजतन विकास अथवा व्यापक जनहित से जुड़े मुद्दे चुनावों के दौरान भी प्रभावी नहीं दिखते और चुनाव जीतने के बाद नेताओं की प्रतिबद्धता अपने निर्वाचन क्षेत्र की तमाम जनता के प्रति न दिखकर तमाम जातीय संगठन व किसी एक राजनैतिक संगठन के प्रति दिखती है जिसके चलते किसी जाति विशेष अथवा समुदाय के बीच भड़के आक्रोश के क्षणों में यह जनप्रतिनिधि अपने राजनैतिक दायित्व को ठीक तरह से पूरा करने में असफल दिखता है। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि भारतीय एकता व सम्प्रभुता के लिए खतरा कुछ विदेशी ताकतें भारतीय जनसमुदायों की आर्थिक तंगहाली का फायदा उठाते हुए धन की मदद से इस तरह के धार्मिक अथवा जातीय दंगों को अंजाम तक पहुंचाने में कामयाब रहते हैं और दंगों की मदद से अराजकता का माहौल कायम कर चुनाव नतीजों को प्रभावित करने व अस्थिरता को कायम रखने का खेल लगातार खेला जाता रहा है लेकिन हमारा मानना है कि हमारे नेता व सत्ता की राजनीति करने वाले राजनैतिक दल अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए सोची-समझी साजिशों के तहत इस तरह की हरकतों को अंजाम देते हैं तथा भारतवर्ष पर लम्बे समय तक राज करने के लिए अंग्रेजों द्वारा अपनायी गयी बांटो और राज करो की नीति को अब और ज्यादा बेहतर तरीके से समाज के बीच प्रस्तुत कर हमारे नेता व राजनैतिक दल सत्ता के शीर्ष पदों पर अपनी कब्जेदारी सुनिश्चित करने में जुटे हुए हैं। माना कि यह तमाम तरकीबें भारतीय लोकतंत्र एवं एक आजाद मुल्क के लिए एक खतरा है और पुणे के कोरेगांव भीमागांव से शुरू हुए इस हालिया जातीय संघर्ष जैसे तमाम घटनाक्रम एक सभ्य मानव समाज के लिए धब्बा होने के साथ ही साथ देश के निम्न व मध्यम आय वर्ग के लोगों के लिए रोजगार के संकटों से जुड़े सवाल भी खड़े करते हैं लेकिन प्रश्न यह है कि क्या सत्ता की राजनीति करने वाले नेता व राजनैतिक दल अपनी हरकतों से बाज आएंगे?

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