गैरसैण में आहूत विधानसभा सत्र के दौरान उठा स्थायी या ग्रीष्मकालीन राजधानी का मुद्दा
भूकम्प से हिले उत्तराखंड में इस समय सियासी गहमागहमी का माहौल है और सरकार द्वारा गैरसैण में आहूत विधानसभा सत्र के बाद विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष में भी खुद को उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान चर्चाओं में आए गैरसैण का हितैषी साबित करने की होड़ लगी हुई है लेकिन यह कोई नहीं बताना चाहता कि राज्य निर्माण के इन सत्रह वर्षों के भीतर प्रदेश में कांग्रेस व भाजपा की सरकारों के अलावा तथाकथित रूप से क्षेत्रीय हितों की पेरोकार उत्तराखंड क्रांति दल की भी सरकार में भागीदारी के बावजूद प्रदेश की तमाम सरकारें मूलभूत सुविधाओं को जुटाने में असफल क्यों रही। यह माना जा सकता है कि सीमित संसाधनों के जरिए राज्य के विकास की चुनौती को स्वीकार करने वाली नवगठित राज्य की सरकारों व इन सरकारों के गठन के लिए जिम्मेदार जनप्रतिनिधियों की अपनी-अपनी प्राथमिकताएं व एजेंडे रहे होंगे और हर सरकार या मुख्यमंत्री के पास अपने कार्यकाल की कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियां व फैसले भी होंगे लेकिन सवाल यह है कि तथाकथित रूप से उत्तराखंड की जनता या फिर राज्य हित की बात करने वाली सरकारें इस प्रदेश की जनता को एक अदद स्थायी राजधानी क्यों नहीं उपलब्ध करा पायी और वह कौन से कारण रहे जिनके चलते न सिर्फ पहाड़ में तेजी से हो रहे पलायन को अनदेखा किया गया बल्कि पेयजल व्यवस्था, सुचारू रूप से बिजली, जन स्वास्थ्य व जन शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी यहां की स्थानीय जनता को मरहूम रखा गया। हमने देखा कि चुनाव दर चुनाव इस राज्य की जनता से बड़े वायदे हुए और स्थानीय जनता ने भी विकास के दिवास्वप्न को देखने के लिए स्थानीय राजनैतिक ताकतों की अपेक्षा राष्ट्रीय राजनैतिक दलों पर भरोसा करना ज्यादा फायदेमंद समझा लेकिन इन सत्रह वर्षों में उन विषयों को किसी ने भी नहीं छुआ जो राज्य आंदोलन के दौरान प्रमुखता से उठाए जाते थे। नतीजतन राजधानी गैरसैण बनाए जाने जैसे तमाम भावनात्मक मुद्दे अब औचित्यहीन होते जा रहे हैं और तेजी के साथ खाली होते जा रहे पहाड़ के गांव एक अलग किस्म की समस्या को जन्म देने वाले प्रतीत हो रहे हैं। यह ठीक है कि राज्य सरकार ने विभिन्न मदों के माध्यम से धनराशि स्वीकृत कर पहाड़ी क्षेत्रों व सुदूरवर्ती ग्रामीण अंचलों में अनेक योजनाएं व विकास कार्य के प्रयास किए लेकिन नेताओं, नौकरशाहों व ठेकेदारों के गठजोड़ ने यह पैसा राज्य के निचले स्तर तक पहुंचने ही नहीं दिया। नतीजतन कागजों में ही योजनाएं बनी व कागजों में ही पूरी होकर बंद हो गयी और अगर कहीं किसी राजनैतिक जरूरत या फिर जनान्दोलन को देखते हुए गैरसैण के विधानसभा भवन की तरह कोई आधारभूत ढांचा बनाने की मजबूरी हुई भी तो नेताओं व अफसरशाही के तालमेल से इसे मौज-मस्ती का एक जरिया बना दिया। गैरसैण में उत्तराखंड की राजधानी बनाए जाने की मांग उठने के कई कारण थे और राज्य आंदोलन के दौरान यह माना गया था कि इस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियां ही इसकी प्रमुख वजह हैं लेकिन वर्तमान में जब राज्य का एक बड़ा हिस्सा पर्वतीय, दुरूह और विपरीत परिस्थितियों वाला हो तो नेताओं व नौकरशाहों से यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि वह अपनी रियाया की परेशानियां व स्थानीय हालातों को अच्छी तरह जाने। आज हवा-हवाई उड़ते नेता और वातानुकूलित बंद कमरों में बैठकर व्यापक जनहित के विषयों की चर्चा करते नौकरशाह, इस बात का प्रतीक हैं कि पिछले पच्चीस सालों में जमाना तेजी से बदला है और बदले हुए समय के अनुसार सूचनाओं का आदान-प्रदान व दूर कहीं बैठकर पूरे प्रदेश अथवा देश की हुकूमत पर नजर रखना या फिर उसे संभाल पाना अब कठिन नहीं है। लिहाजा इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार बहादुर देहरादून में बैठे या फिर गैरसैण में और न ही जनसामान्य के एक बड़े हिस्से को किसी भी प्रदेश अथवा देश की राजधानी के चक्कर काटने की जरूरत है लेकिन गैरसैण एक मुद्दा है और राज्य की राजनीति में सक्रिय लगभग हर राजनैतिक दल अपने तरीके से इस मुद्दे का फायदा उठाना चाहता है। हमने देखा कि राजधानी गठन को लेकर बने तमाम आयोगों व कमेटियों की रिपोर्टों को दरकिनार कर पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा किस प्रकार देहरादून को तजरीह दी गयी और फिर एकाएक ही गैरसैण को लेकर चर्चाओं का दौर शुरू हुआ लेकिन इन चर्चाओं के बीच गैरसैण में मंत्रीमंडल की बैठक आहूत करने से लेकर टैंटों में विधानसभा सत्र चलाने का दौर तक पूर्ववर्ती सरकार के मुखिया अथवा सत्तापक्ष ने कभी यह स्पष्ट नहीं किया कि आखिर राजधानी को लेकर उनकी मंशा क्या है। इस दौर में करोड़ों की लागत लगाकर एक विधानसभा भवन गैरसैण में खड़ा कर दिया गया और ठीक चुनावी वर्ष में सत्तापक्ष द्वारा आगामी बजट सत्र को नयी-नवेली विधानसभा में आहूत किए जाने का संकल्प भी प्रस्तुत किया गया लेकिन राजधानी के मसले पर सत्तापक्ष खामोश रहा और किसी भी चुनावी सभा या खुले मंच में राज्य की स्थायी राजधानी चुनावी चर्चा का विषय नहीं बनी। खैर सत्ता परिवर्तन हुआ और नयी सरकार अस्तित्व में आयी लेकिन पूर्ण बहुमत के जोश व आर्थिक जरूरतों को देखते हुए बजट शीघ्र प्रस्तुत किए जाने की जल्दबाजी के चलते पुराने संकल्पों को यों ही दरकिनार कर दिया गया और अस्थायी राजधानी से राजकाज बदस्तूर चलने लगा। इस बीच सरकार को लेकर हो रही आलोचना व विकास कार्यों को धीमी गति के चलते बढ़ रहे ऋणात्मक चिंतन को देखते हुए सरकार ने एक बार फिर गैरसैण का जिन्न बंद बक्से से बाहर निकाल लिया है और अस्थायी राजधानी या स्थायी राजधानी के साथ ही साथ मैदान बनाम पहाड़ के झगड़े को हवा देने की तैयारियां भी तेज हो गयी हैं। हालांकि सरकार यह मानती है कि गैरसैण में किसी भी तरह के क्रियाकलाप शुरू किए जाने से पूर्व वहां की पेयजल समस्या, सड़क यातायात व अन्य छोटी बड़ी समस्याओं का निस्तारण किया जाना जरूरी है लेकिन सरकारी तंत्र अपनी नौटंकीबाजी के चलते जनता का ध्यान मूल मुद्दों से भटकाने के खेल का अभ्यस्त हो चुका है और जन सामान्य के विकास या क्षेत्रीय समस्याओं को लेकर नीति बनाने से कहीं ज्यादा आसान उसे जनता को उलझाये रखने का खेल लगता है। लिहाजा गैरसैण को लेकर मंथन का दौर जारी है और जनभावनाओं से जुड़े इस मुद्दे को एक फुटबाल की तरह एक पाले से दूसरे पाले में फेंकते हुए भाजपा व कांग्रेस एक भावनात्मक खेल खेलने में जुटे हुए हैं।