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Friday, March 29, 2024

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हो-हो होलक रे

लोकपरम्पराओं व लोकपर्वों से कटती नजर आ रही है हमारी युवा पीढ़ी
जीवन की आपाधापी और तेजी से बढ़ रही महंगाई की खबरों के बीच मात्र सरकारी अवकाश बनकर रह गए हमारे तीज-त्यौहारों का आकर्षण लगातार खोता जा रहा है और समाज पर हावी होती जा रही बाजारवादी संस्कृति के बीच होली के रंग सिर्फ चलचित्रों व फिल्मी संगीत तक सीमित होते नजर आ रहे हैं। तेजी से बदल रही परम्पराओं और कुछ नया करने की होड़ में तीज-त्यौहारों के आयोजन के पीछे छिपी अवधारणाओं को नकारती युवा पीढ़ी जब अपनी संस्कृति व समाज से विमुख दिखती है तो एक अफसोस तो अवश्य होता है लेकिन यह विचार भी मन में जरूर आता है कि परम्पराओं व संस्कृति के प्रति इस विमुखता को लेकर असल जिम्मेदार कौन है तथा वह कौन से कारण हैं जिनके चलते समाज के एक बड़े हिस्से में अपनी प्राचीन अवधारणाओं व परम्पराओं को लेकर उत्साह लगातार कम हो रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि समाज में तेजी से बढ़ा शिक्षा का स्तर व हमारी शिक्षा पद्धति इस बदलाव के लिए जिम्मेदार है तथा जलवायु परिवर्तन के चलते महसूस की जा रही पानी की कमी व होली के त्यौहार के बदलते स्वरूप के चलते इसमें इस्तेमाल किए जाने वाले तमाम तरह के कच्चे-पक्के रंग व कीचड़ या गोबर समेत अन्य गंदगी साम्प्रदायिक सद्भाव व आपसी मेलजोल के इस त्योहार के प्रति आमजन की उदासीनता का एक बड़ा कारण है लेकिन सवाल यह है कि क्या यही हमारे पौराणिक व परम्परागत् त्यौहारों का वास्तविक स्वरूप है और अगर नहीं तो इसमें आये इस बदलाव को लेकर असल जिम्मेदार आखिर कौन है? अगर होली जैसे तमाम पारम्परिक व भारतीय संस्कृति में रंगे-बसे पर्वों के पीछे छिपी दंतकथाओं व प्रेरक कहानियों को नकार भी दिया जाय तो इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि आपसी भाईचारे, मौसम के बदलाव व स्वच्छता से जुड़े तमाम पहलुओं को एक साथ अंगीकार करने वाले हमारे भारतीय पर्वों की संरचना अथवा अवधारणा के पीछे कई वैज्ञानिक तथ्य छुपे हुए हैं और हमारे पूर्वजों ने अपने अनुभवों व तकनीकी शोधों के आधार पर इनमें उन तमाम विषयों को समाहित करने की कोशिश की है जो मानव जीवन की बेहतरी के लिए आवश्यक माने जा सकते हैं लेकिन हमारे तथाकथित रूप से पढ़े-लिखे व सभ्य समाज ने इन तीज-त्यौहारों को महज एक धार्मिक कर्मकांड बनाकर रख दिया है और भारत में अस्तित्व में आयी लोकतांत्रिक सरकारों के बाद सामान्य जनजीवन में तेजी से बढ़े सरकारी हस्तक्षेप व हर सामाजिक क्रियाकलाप में राजनैतिक हस्तक्षेप ने हमारी परम्पराओं व तीज-त्यौहारों को बुरी तरह प्रभावित किया है। यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की परिपक्वता के साथ ही साथ सामान्य जनजीवन व रोजमर्रा के कामकाज में तेजी से बढ़ती जा रही सरकारी हस्तक्षेप की संभावनाओं ने जहां एक ओर सामाजिक ढांचे को संतुलित करते हुए आम आदमी का जीवन आसान बनाया है वहीं दूसरी ओर राजनैतिक सत्ता प्राप्ति की होड़ ने समाज के विभिन्न वर्गों को एक दूसरे से दूर कर एक अजब असमंजसता का माहौल कायम किया है जिसके चलते आजाद भारत में परम्पराओं व लोकपर्वों के अवसरों पर स्वतः स्फूर्त अंदाज में दिखने वाला उत्साह व आनंद गायब होता जा रहा है और इसकी जगह मंचीय संस्कृति व समाज से खुद को हटकर साबित करने की जिद ने ले ली है। हालांकि समाज में आ रहा यह बदलाव हर मायने में गलत नहीं कहा जा सकता और न ही यह माना जा सकता है कि भारतीय संविधान अथवा इसे लागू करने वाली व्यवस्थाओं में कोई ऐसी खामी है कि हमारी परम्पराएं और लोकपर्व अपना आधार खोते जा रहे हैं तथा हम सब स्वयं को अपनी अगली पीढ़ी से कटा हुआ व पथभ्रष्ट महसूस कर रहे हैं लेकिन अगर व्यापक परिपेक्ष्य में देखा जाय तो यह आसानी से महसूस किया जा सकता है कि हम अपनी संस्कृति व सभ्यता की जड़ों को छोड़ रहे हैं और इतिहास गवाह है कि समाज के जिस भी हिस्से ने अपनी परम्पराओं व संस्कृति का निरादर किया है वह सभ्यता अथवा समाज ज्यादा लंबे समय तक अपने अस्तित्व को कायम रखने में नाकाम रहा है। यह ठीक है कि लोक परम्पराओं के निर्वहन में आ रही खामियों को दुरूस्त किया जाना आवश्यक है और बाजारवाद की भागमभाग वाली अर्थव्यवस्था के इस दौर में हर व्यक्ति इतना आजाद भी नहीं रह गया है कि वह त्योहारी आनंद व हर्षोल्लास को महसूस करने के लिए नियत समय से काफी पहले ही इन तीज-त्योहारों की तैयारी में जुट जाए लेकिन अगर हम चाहें तो आसानी के साथ अपनी इन लोकपरम्पराओं को आकर्षक रूप देकर न सिर्फ रोजगार से जोड़ा जा सकता है बल्कि परम्पराओं व रीति-रिवाजों को जिंदा रखते हुए अपनी संस्कृति के अनुरूप आय के नये संसाधन भी जुटाये जा सकते हैं। अगर उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत यह कहते हैं कि ‘बरसाने की होली’ की तर्ज पर हमारे राज्य में भी होली की एक समृद्ध परम्परा व संस्कृति विद्यमान है और इसका प्रचार-प्रसार कर इसे स्थानीय आय व पर्यटन का एक जरिया बनाया जा सकता है तो इस तथ्य में कोई अतिशयोक्ति नहीं मालूम देती लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि हम अपनी परम्पराओं को जीवंत स्वरूप प्रदान करने वाली ग्रामीण संस्कृति व जनजीवन को भी बचाये रखें लेकिन अफसोसजनक है कि संस्कृति के संरक्षण व संवर्द्धन का दम भरने वाली सरकारी व्यवस्था ने स्थानीय लोककलाकारों को मजबूर किया है कि वह प्रकृति की गोद को छोड़कर मंचीय कार्यक्रमों में प्रतिभाग करे और इन मंचीय प्रस्तुतियों के जरिये मिलने वाला सरकारी मानदेय अथवा अन्य व्यवस्थाएं भी इतनी सम्मानजनक नहीं है जिनके चलते हमारी युवा पीढ़ी को लोककला व लोकपर्वों के आयोजन को रोजगार की तरह अपनाने के लिए आकर्षित किया जा सके। यह तथ्य उत्तराखंड ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष के परिपेक्ष्य में सत्य है कि हम एक ग्रामीण परिवेश वाले देश हैं तथा हमारी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा आज भी कृषि समेत अन्य ग्रामीण जनजीवन से जुड़ी गतिविधियों से जुड़ा है लेकिन अफसोसजनक है कि हमारी लोकतांत्रिक सरकारों ने इन पिछले सत्तर वर्षों में इस लोकतांत्रिक परिवेश को तहस-नहस करने में अहम् भागीदारी दी है और अगर सरकारी बयानों व घोषणाओं को सच माना जाये तो ऐसा लगता है कि मानो गांवों का शहरीकरण होना ही विकास की एकमात्र परिभाषा है जबकि अगर सही मायने में देखा जाय तो हमारी शिक्षा व्यवसथा में तेजी से आ रहे बदलाव के बाद ग्रामीण जनजीवन का वर्तमान शहरीकरण ही वह दूसरा बड़ा कारण है जिसने हमारे सामान्य जनजीवन की आपाधापी को बढ़ा हमें अपनी परम्पराओं व संस्कृति से विमुख करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यह माना कि गगनचुम्बी इमारतें और आग उगलते कल-कारखाने वर्तमान परिपेक्ष्य में न सिर्फ विकास के द्योतक हैं बल्कि वैश्विक परिवेश में अपना स्थान बनाये रखने के लिए भी इनकी अहम् आवश्यकता है और देश की तेजी से बढ़ती जा रही आबादी को देखते हुए यह भी सम्भव नहीं है कि हर आदमी को कृषि अथवा उस पर आधारित रोजगार के जरिये अपनी आय के संसाधन जुटाने के मौके मिले लेकिन अगर सरकारी तंत्र चाहे तो सामान्य जनजीवन में हर आमोखास को प्रकृति व उसकी प्रदत्त नेयमतों से जोड़ते हुए आनंद के अनुभव का एक मौका दिया जा सकता है और यही अवसर हमारे मन में त्योहारी उल्लास व उमंग जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अफसोसजनक है कि सरकार अपनी व्यवस्थाओं के अनुपालन के क्रम में गांव को नकार रही है और सरकार द्वारा चलायी जा रही विभिन्न योजनाओं के बावजूद ग्रामीण जनजीवन व परम्पराओं के सिमटने का क्रम न सिर्फ जारी है बल्कि गांवों की आबादी के शहरों की ओर होने वाले पलायन व ग्रामीण जनजीवन में रोजगार के संसाधनों की कमी के चलते हम स्वयं को एक मशीन में तब्दील होता हुआ सा महसूस कर सकते हैं। नतीजतन सिर्फ होली ही नहीं बल्कि हमारे तमाम तीज-त्यौहार लकीर पीटने वाले अंदाज में ढोने की नौबत आ गयी है और हमारी संस्कृति के पुरोधा बने कुछ आधुनिक महागुरू इस अवसर पर पानी को व्यर्थ बर्बाद न करने अथवा चाईनीज समेत अन्य विदेशी उत्पादों का प्रयोग न करने की निशुल्क सलाह देते नजर आते हैं। खैर जो भी है और जैसा भी है वाले अंदाज में आईये एक बार फिर इस समृद्ध परम्परा को अंगीकार करते हैं और होली के इन सतरंगी रंगों में डूबते हुए अपनी संस्कृति व लोकमान्यताओं के संरक्षण की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ाते हैं।
होली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
आपका
संजीव पंत
सम्पादक

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