रक्षक ही भक्षक | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 20, 2024

Select your Top Menu from wp menus

रक्षक ही भक्षक

महिला सुरक्षा व सशक्तिकरण से जुड़े सवालो पर सरकारी व्यवस्थाऐं असफल।

जब रक्षक ही भक्षक बन जाये तो किसी की भी सुरक्षा कीे गारन्टी कैसे दी जा सकती हैै और कोई भी राजनैतिक दल या व्यवस्था यह कैसे सुनिश्चित कर सकती है कि सिर्फ कड़े कानूनो का भय दिखाकर अपराध पर प्रभावी रोकथाम लगायी जा सकती है। यह हम नही कह रहे बल्कि देश का सर्वोच्च न्यायालय भी इस बात पर चिन्ता व्यक्त कर रहा है कि हमारे वहाॅ महिलाओं के साथ छेड़छाड़ व दुष्कर्म के मामले तेज़ी से बढ़े है तथा आकड़ो के हिसाब से यह साफ ज़ाहिर हो रहा है कि ‘‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ‘‘ का नारा देने वाली सरकार के सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने के बाद महिलाओ के प्रति होने वाली हिंसा व अपराध में बेतहाशा वृद्धि हुई है। यह माना कि इस सबके लिऐ सरकार सीधे तौर पर ज़िम्मेदार नही है और कानून अपने हिसाब से काम कर रहा है लेकिन यह कहने में कोई हर्ज नही है कि सरकार कानूनो को कड़ा करने के बावजूद अपराध पर लगाम लगाने में पूरी तरह असफल है और अपनी इस असफलता को छिपाने के लिऐ जनता के बीच धर्म के चश्में को बाॅटने का काम सरकार द्वारा बखूबी किया जा रहा है। सरकार उन कारणों की तलाश में पूरी तरह असफल दिखाई देती है जो महिलाओ के साथ होने वाले बलात्कार अथवा छेड़छाड़ को बढ़ावा देने में पूर्ण भूमिका निभाते है और सरकार के लिऐ ज़िम्मेदार मन्त्रियों व कतिपय अधिकारियों के बयानो से ऐसा प्रतीत होता है कि वह सुरक्षा के बेहतर इन्तज़ामात करने के स्थान पर प्रतिबन्ध लगाकर अपराधो पर रोकथाम लगाने के प्रयास कर रहे है। तथाकथित रूप से आधुनिकता और महिला स्वतन्त्रता की ओर आगे बढ़ रहे भारतीय समाज में अगर ड्रेस कोड, लव जेहाद जैसे नारो के नाम पर महिलाओं को घर में कैद करने की साजिशें अथवा रात में घर से निकलने की पाबन्दी जैसे शब्द गूॅजने लगे तो यह समझ जाना चाहिऐं कि सरकारी तन्त्र अपनी असफलताओं को समाज पर थोपने की कोशिश कर रहा है तथा नेता अपनी ज़िम्मेदारी से बचना चाहता है। वर्तमान में हो यही रहा है और सरकार समर्थक बलात्कार अथवा महिलाओें से छेड़छाड़ जैसे विषयों पर सरकार को मिल रही असफलता पर बात करने की जगह पीड़ित अथवा अपराधी के धर्म को मुद्दा बनाकर अपना फैसला सुना रहे है। अनाथालयों, महिला आश्रम ग्रहो, मन्दिरो, गिरजाघरो अथवा सार्वजनिक स्थलो पर हो रहे महिला उत्पीड़न अथवा अपराध को धर्म के नज़रिये से देखने का नया दौर शुरू हो चुका है तथा ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हम महिलाओं और बच्चो को अपना निशाना बनाकर सदियों पुराने बर्बरता वाले युग में लौट जाना चाहते है। जन सुरक्षा के लिऐ ज़िम्मेदार मानी जाने वाली सरकारें इन ज्वलन्त मुद्दो पर होने वाले जनान्दोलनों के प्रदर्शनो से थोड़ा बहुत चेतती तो है और इन मौको पर सरकारी तन्त्र में थोड़ी सजगता भी दिखाई देती है लेकिन कानूनो एवं सज़ा के प्रावधान को कड़ा कर देना इस समस्या का स्थायी समाधान नही लगता और न ही भारत की कानून व्यवस्था इतनी मज़बूत है कि वह सक्षम अपराधी को त्वरित अदालतों के ज़रिये सज़ा के दायरें में खड़ा कर सके। नतीजतन अपराधी मानसिकता के लोग बेखोफ दिखते है और पुलिस हिरासत के दौरान उनका मुसकुराता चेहरा समाज की मज़ाक उड़ाता प्रतीत होता है। कुछ लोगो का मानना है कि योन अपराधो पर रोक लगाने तथा अनावश्यक छेड़छाड़ से बचने के लिऐ बच्चो को योन शिक्षा के बारे जानकारी दी जानी जरूरी है तथा सुरक्षा को एक उपाय के रूप में अपनाकर रात में अकेले घर से बाहर निकलने, पहनावे में बदलाव लाकर या फिर दोस्तो के साथ आजादी की एक हद का अनुपालन करते हुऐ इस तरह की समस्याओं से बचा जा सकता है लेकिन जब बलात्कार व योन हिंसा के मामले छोटी व अबोध बच्चियों के साथ होते दिख रहे हो और जन सुरक्षा के लिऐ ज़िम्मेदार पुलिस से लेकर पीड़ित महिलाओं के संरक्षण व देखरेख गृह चलाने वाले तमाम ज़िम्मेदार लोग ही इस तरह के अपराधों में संलग्न हो तो योन शिक्षा जैसे विषय तथा महिलाओं को निजी सुरक्षा के संदर्भ में दिया जाने वाला प्रशिक्षण किस हद तक कारगर सिद्ध हो सकता है। समाज के एक वर्ग का यह भी मानना है कि टेलीविजन अथवा चलचित्रों के माध्यम से फैलायी जाने वाली हिंसा तथा योन क्रियाओं को लेकर बाॅटा जाने वाला आधा-अधूरा ज्ञान भी इस तरह के अपराधों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान अदा कर रहा है और सामाजिक रूप से आदर्श माने जाने वाले तथाकथित रूप से बड़े फिल्मकार अथवा उनके नायक-नायिकाऐं रूपहले पर्दे पर व अपने सामान्य जीवन में जो भी हरकतें करते है उनका अन्धानुकरण देश व समाज के लिऐ नित् नयी समस्या पैदा करता है। हालाॅकि सरकारी व्यवस्था के तहत इस तरह की अभ्रदता पर नज़र रखनंे के लिऐ सैन्सर बोर्ड जैसी संवेधानिक सस्ंथा का गठन किया गया है और फिल्म जगत से जुड़ी किसी नायिका अथवा नायक ने इस विषय को लेकर खुले विरोध का साहस अभी किया नही है लेकिन कुछ स्वम्भू संगठन धार्मिक संप्रभुता एवं महिलओं से छेड़छाड़ जैसे विषयो को हवा देकर फिल्म जगत् को अपनी लाठी-डण्डे से हाॅकना चाहते है और इसके लिये मनोरंजन के सस्ते संसाधन व उद्योग का दर्जा प्राप्त आर्थिक विकास की इस रीढ़ को हिंसा के हवाले करने अथवा इसके खिलाफ आन्दोलन का माहौल खड़ा करने में उन्हे कोई हर्ज प्रतीत नही होता। यह अफसोसजनक है कि सामाजिक तौर पर किये जा रहे सुरक्षा के तमाम उपायों के बावजूद योन अपराधो व महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार या छेड़छाड़ की दर लगातार बढ़ रही है और समाज को वैराग्य, सादा जीवन व लोभ मुक्त संसार जैसे प्रवचनो से नवाजने वाले कई तथाकथित सन्त-महात्माओं पर लगातार इस तरह के कृत्यों में संलग्न रहने के आरोप लग रहे है लेकिन सरकारी तन्त्र अपने ‘‘बेटी बचाओ‘‘ के नारे पर एक कदम भी आगे बढ़ाने में असफल है और कानून को कड़ा करने के सरकारी दावो के बावजूद यह कह पाना मुश्किल है कि अपराधी पुलिस अथवा न्याय व्यवस्था से थोड़ा भी डरे हुऐ है। यह माना कि सरकार देश के हर नागरिक के लिऐ निजी सुरक्षा नही मुहैय्या करवा सकती और न ही सड़क के हर मोर्चे पर अथवा खेत-खलिहानों में महिलाओं की सुरक्षा हेतु पुलिस बल मुहैय्या कराया जाना ही सम्भव है लेकिन यह भी सच है कि आंतरिक सुरक्षा के मामलो में हमारी व्यवस्थाऐं दुरूस्त नही है और निर्धारित मानको से कहीं ज्यादा कम संख्या में मौजूद पुलिस बल से यह उम्मीद की जाती है कि वह नेताओ को विशेष सुरक्षा मुहैय्या कराने के साथ ही साथ विभिन्न सामाजिक व राजनैतिक कार्यक्रमों में भी बखूबी अपने दायित्वों का वहन करे। पुलिस सुधार के लिऐ प्रस्तावित तमाम सिफारिशें लागू न होने के साथ ही साथ पुलिस के कार्यक्षेत्र व कार्यशैली में राजनेताओे का प्रभाव साफ दिखाई देता है तथा व्यवस्था में भ्रष्टाचार के गहराई से जड़े ज़माने के चलते कमाई वाले थाने व चैकी में पोस्टिंग के लिऐ बोली लगाये जाने की चर्चाऐं सरेआम सुनाई देती है। इतना सब होने के बावजूद महिला अपराध व बलात्कार जैसे मामले में अगर पुलिस कोई कार्यवाही करती भी है तो लम्बी कानूनी प्रक्रियाओं व सबूत या गवाह के आधार पर आरोपी का सजा से बच जाना अथवा लम्बे समय तक जेल के सीकचों से बाहर रहना एक आम बात मानी जाती है। शायद यही वजह है कि बच्चियों के योन शोषण व बाल आश्रम जैसे सामाजिक कार्य की आड़ में अनैतिक धन्धे करने वाला एक अपराधी अगर बेनकाब होता भी है तो उसके चेहरे पर शिकन नही दिखती बल्कि वह कानून की गिरफ्त में हसते हुऐ यह साबित करने की कोशिश करता है कि अपने कृत्य पर वह कतई शर्मिन्दा नही है। इन हालातों में अगर हम यह कहें कि कड़े कानूनो का डर या फिर मौजूदा हालातो को देखते हुऐ सत्ता के उच्च सदनों द्वारा महिला उत्पीड़न व बलात्कार जैसे मामलो को लेकर किये जा रहे कड़े प्रावधान एक अपराधी मानसिकता वाले व्यक्ति को किसी कृत्य को अंजाम देने से रोक सकते है अथवा अपराध पर लगाम लगाने के स्थान पर महिलाओं को एक दायरें में सिमट कर रहने की नसीहत देकर हम अपनी बेटियों को बचा सकते है तो यह हमारी भूल है। हकीकत यह है कि बच्चियों को इन दुंर्दात भेड़ियों से बचाने के लिऐ हमें खुद ही सजग और जागरूक रहना होगा तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के माध्यम से चुनी गई तथाकथित सरकारों पर यह दबाब डालना होगा कि वह आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था को मज़बूत करने एवं न्याय प्रक्रिया में तेज़ी लाने के लिऐ वाजिब कदम उठाये। अफसोसजनक है कि मौजूदा सरकार इन तमाम मुद्दो पर मौन है और बेवजह की बहस को आगे बढ़ाने की कोशिशें जारी है।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *