गैरसैण को उत्तराखंड की स्थायी राजधानी घोषित किए जाने के पक्ष में जुट रही युवा आंदोलनकारी ताकतों में दिख रहा है एक नया जोश व जुनून
उत्तराखंड की आंदोलनधर्मी जनता के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन या फिर अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कोई नयी बात नहीं है और न ही यह पहला अवसर है जब एक ही विषय या मुद्दे को लेकर राज्य के विभिन्न कोनों में जनता एकजुट होती दिख रही है लेकिन लंबे अर्से बाद एक बार फिर यह देखने को मिल रहा है कि स्थानीय जनता व सामाजिक संगठन राजनैतिक प्रवृत्ति के लोगों की महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ने के स्थान पर अपने तरीके से अपनी बात कहने निकले हैं और राज्य के विभिन्न हिस्सों में स्वतः स्फूर्त तरीके से खड़ा होता दिख रहा एक आंदोलन एकजुटता के सूत्र में बंधता जा रहा है। हालांकि उत्तराखंड राज्य आंदोलन की तर्ज पर ही यह आंदोलन भी पूर्व निर्धारित नहीं है और इसकी नेतृत्वविहीनता के चलते इसके दिशा व दशा से भटक जाने का भी खतरा है लेकिन विभिन्न मोर्चों पर जमे बैठे युवा आंदोलनकारियों का जोश देखते ही बनता है और सबसे अच्छी बात जो इस आंदोलन को लेकर आशान्वित करती है वह इसमें भागीदारी करने वाले युवाओं की राजनैतिक महत्वाकांक्षा है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि उत्तराखंड राज्य गठन के उपरांत यहां राज करने वाले राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने राजनैतिक कुचक्र के रूप में आंदोलनकारियों की चिन्हीकरण व उन्हें सरकारी नौकरी व पेंशन दिये जाने का शिगूफा छेड़कर नवगठित राज्य को मिलने वाली युवा सोच व विकास की नयी विचारधारा की हत्या का काम किया और यह माना गया कि सक्रिय राज्य आंदोलनकारियों के बीच दिशा भ्रम की स्थिति पैदा कर सत्तापक्ष द्वारा जानबूझकर नेतृत्वविहीनता के से हालात पैदा किए गए लेकिन इन सत्रह वर्षों में एक नयी पीढ़ी अपने अरमानों व विकास की नयी सोच के साथ आंदोलन के नये प्रारूप को लेकर मैदान में है और यह माना जा रहा है कि स्थानीय स्तर पर नित् नयी समस्याओं से जूझ रही व सरकारी कामकाज के तरीके पर सवाल खड़े कर रही इस पीढ़ी के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगा पाना या फिर झूठे सच्चे नारों व वादों से इसे भरमा पाना अब सरकार के लिए आसान नहीं होगा। यह माना कि विभिन्न मोर्चों पर आंदोलन का बिगुल फूंक रहे इस दूसरी पीढ़ी के नेताओं में अनुभवहीनता स्पष्ट झलकती है और एक लंबे आंदोलन के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये उत्तराखंड राज्य की वर्तमान स्थिति को देखते हुए स्थानीय जनता भी नये नारों व युवा नेतृत्व पर एक ही झटके में विश्वास कर पूरी तत्परता के साथ गैरसैण की इस लड़ाई में कूदने को तैयार नहीं है लेकिन जिस अंदाज में उत्तराखंड राज्य के गठन के वक्त हुए परिसीमन पर सवाल उठाये जा रहे हैं और इस पहाड़ी राज्य की सरकारों की कार्यशैली से राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों के विकास व पलायन के मुद्दे गायब दिख रहे हैं, उसे देखते हुए यह दावे से कहा जा सकता है कि अगर हमारे नौजवान इस आंदोलन की कमान ठीक तरह से सम्भाल पाये और उन्हें कदम-कदम पर उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान सक्रिय रही ताकतों का सहयोग व समर्थन मिलता रहा तो शीघ्र ही पूरे राज्य में गैरसैण को राज्य की स्थायी राजधानी बनाने के पक्ष में एक बड़ा जनसैलाब जुटता दिखाई देगा। यह हो सकता है कि धनबल एवं सरकारी ताकत के बल पर चलने वाला सरकारी तंत्र आंदोलनकारी ताकतों को बदनाम करने के लिए कई तरह की शिगूफेबाजी व मनगणंत कथा-कहानियों का सहारा लेकर आंदोलन की धार को कुंद करने का प्रयास करे और गैरसैण को स्थायी राजधानी बनाये जाने के मुद्दे पर कुछ छोटे-बड़े फैसले लेकर आंदोलन को दिशाभ्रमित करने का प्रयास भी किया जाए लेकिन इस वक्त एकजुटता के साथ खड़ी होती दिख रही आंदोलनकारी ताकतों को नकार पाना राज्य की जनता व सरकारी तंत्र दोनों के लिए ही मुश्किल होगा क्योंकि स्थानीय स्तर पर कई छोटी-बड़ी समस्याओं व सरकारी अनदेखी का सामना कर रही जनता को यह समझा पाना किसी भी राजनैतिक दल या विचारधारा के लिए आसान नहीं है कि अगर राज्य में चुनी गयी तथाकथित जनहितकारी सरकारें ठीक तरह से काम कर रही हैं तो एक आम उत्तराखंडी को उसका हक क्यों नहीं मिल पा रहा। एक लंबे अरसे के बाद यह पहला मौका है जब राज्य व केन्द्र में न सिर्फ समान विचारधारा की सरकार है बल्कि उत्तराखंड राज्य गठन का दम भरने वाली भाजपा ही इन दोनों सत्ता के केन्द्रों पर काबिज है और इन सत्रह सालों के अंतराल में उत्तराखंड की स्थानीय जनता यह समझ चुकी है कि सत्ता के शीर्ष पर अपनी कब्जेदारी बनाये रखने के लिए भाजपा द्वारा गठित तत्कालीन उत्तरांचल राज्य में उसे वह सब कुछ नहीं मिल पाया है जो कि वास्तव में एक अलग राज्य के रूप में उत्तरांखड को दिया जाना चाहिए था। देश के प्रधानमंत्री जब अपनी चुनावी सभाओं के दौरान राज्य की जनता को सम्बोधित करते हैं तो यहां के ‘पानी और जवानी’ का उपयोग राज्यहित में किए जाने के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया जाता है लेकिन भाजपा को उत्तराखंड के साथ ही साथ उत्तरप्रदेश में भी मिले सरकार बनाने के मौके के एक वर्ष बाद भी यहां बनी जनहितकारी सरकार इस राज्य के पर्वतीय भूभाग से युवाओं का पलायन रोकने की दिशा में कोई स्पष्ट योजना बनाने के लिए प्रयास करती नहीं दिखाई देती और न ही राज्य के जल संसाधनों पर राज्य की जनता व सरकार की हिस्सेदारी व कब्जेदारी के विषयों को ही राष्ट्रीय मंचों पर उठाने का कोई प्रयास स्थानीय सरकार द्वारा किया जा रहा है। हालातों से स्पष्ट है कि नेताओं की कथनी और करनी में बड़ा फर्क है तथा स्थायी राजधानी गैरसैण के मुद्दे पर जुटता दिख रहा जनता एवं सामाजिक संगठनों का हुजूम इसी कथनी एवं करनी के अंतर के एक परिणाम के रूप में हमारे सामने है। यह माना कि यह लड़ाई आसान नहीं है और संसाधनों के आभाव से जूझ रहे पहाड़ पर राज्य की राजधानी ले जाना व वहां तमाम अवस्थापना सुविधाएं जुटा पाना एक संसाधनविहीन सरकार के लिए टेढ़ी खीर है लेकिन यह मुद्दा सिर्फ गैरसैण के नवनिर्मित भवन में विधानसभा सत्र आहूत करने या फिर बजट सत्र की शुरूआत के लिए राज्यपाल का अभिभाषण कराये जाने मात्र से हल भी नहीं होने वाला और वक्त के गुजरने के साथ ही साथ गैरसैण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग के साथ राज्य में व्यापक शराबबंदी लागू करने व दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर रोजमर्रा की जरूरतों के संसाधन जुटाने के साथ ही साथ राजकाज को बेहतर तरीके से चलाने के लिए छोटी इकाईयों के गठन व इन इकाईयों को सर्वशक्तिसम्पन्न बनाने के साथ ही साथ आम आदमी की राजधानी के लिए होने वाली दौड़ पर अंकुश लगाने की दिशा में प्रयास करने की मांग के भी आंदोलनकारियों के मांगपत्र में जुड़ने की संभावना है। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि राज्य निर्माण के इन सत्रह वर्षों में उत्तराखंड कभी भी सरकार विरोधी आंदोलनों से अछूता नहीं रहा है तथा यहां के कर्मचारियों, युवाओं, महिलाओं व राज्य आंदोलन के दौरान सक्रिय रहे विभिन्न संघर्षशील साथियों समेत राज्य की जनता के एक बड़े तबके ने अपनी स्थानीय समस्याओं व निजी हित की मांगों को लेकर समय-समय पर सरकारी तंत्र को उसकी कार्यशैली व व्यापक जनहित से जुड़े मुद्दों पर चेताने का काम किया है लेकिन यह पहला अवसर है कि सम्पूर्ण राज्य में पूरी एकजुटता व स्वतः स्फूर्त अंदाज में गैरसैण को स्थायी राजधानी घोषित किए जाने की मांग को लेकर जनता हुजूम की शक्ल में सड़कों पर उतर रही है और धरना-प्रदर्शन, क्रमिक व आमरण अनशन या फिर मशाल जुलूस व जनमार्च के रूप में जनता को एकजुट कर आम आदमी की ताकत का अहसास कराया जा रहा है। अधिकांश मोर्चों पर इन तमाम गतिविधियों का नेतृत्व अपेक्षाकृत युवा व देश के तमाम हिस्सों से अनुभव लेकर निकले कर्मठ व संघर्षशील कंधों पर है तथा राज्य आंदोलन के दौरान सक्रिय भागीदारी करने वाली लगभग सभी आंदोलनकारी ताकतें कंधे से कंधा मिलाकर व बिना शर्त वाले अंदाज में इन आंदोलनों को सहयोग व समर्थन दे रही है। संघर्ष के जरिये कुछ हासिल करने को एकजुट दिखते इन आंदोलनकारियों के पास तर्क-वितर्क की ताकत तो है ही साथ ही साथ सूचना संचार के विभिन्न माध्यमों के जरिये व अपने अनुभवों की कलम को धार देकर यह तमाम आंदोलनकारी विचारक अपने आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए देश-विदेश में बसे उत्तराखंडी मूल के परिवारों के साथ सतत् सम्पर्क में भी हैं। लिहाजा इस बार यह कहा जाना मुश्किल है कि राजनीति की कुत्सित विचारधारा या फिर छोटे-मोटे राजनैतिक प्रलोभनों के जरिये इस आंदोलन को तोड़ा जाना या फिर दिशाभ्रमित करना आसान है लेकिन सतर्कता आवश्यक है क्योंकि यह लड़ाई अपने ही लोगों व अपनी ही सरकार के खिलाफ है और यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि सत्ता के शीर्ष पर काबिज अथवा कब्जेदारी के लिए संघर्षशील राजनैतिक हस्तियां साम-दाम-दंड-भेद की नीतियों के इस्तेमाल में पारंगत है जबकि राज्य गठन के शुरूआती दौर से ही पर्वतीय क्षेत्र के विकास को लेकर ऋणात्मक भूमिका में दिखने वाली नौकरशाही अपने ऐशोआराम में खलल पड़ने के डर से यह कदापि नहीं चाहती कि इस पर्वतीय राज्य की स्थायी राजधानी के रूप में किसी पहाड़ी इलाके पर नये सिरे से अवस्थापना सुविधाएं जुटायी जाये।