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Thursday, April 25, 2024

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हमारे नज़रिये से।

नैनीताल की यातायात व्यवस्था व जाम के संदर्भ में उत्तराखण्ड के उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले में कुछ भी स्पष्ट नही लेकिन प्रशासन की नाकामी के चलते शुरू हो गया है आरोंपो और प्रत्यारोपों का नया दौर।

सड़क यातायात को लेकर हो रही परेशानी और पार्किग की लगातार बढ़ रही समस्या को देखते हुऐ उत्तराखण्ड के उच्च न्यायालय ने स्थानीय प्रशासन को आदेश दिये है कि वह नैनीताल शहर में आये दिन लगने वाले जाम से बचने के लिऐ बाहरी क्षेत्रो से आ रहे वाहनो को शहर की सीमा से बाहर रोकना सुनिश्चित करे और हल्द्वानी समेत आसपास के रास्तो से नैनीताल में प्रवेश करने से रोक लगायी जाये। यह तो पता नही कि इस आदेश की असल वजह क्या थी और पयर्टन को उद्योग का दर्जा देकर रोजगार के अतिरिक्त संसाधन जुटाने का दावा करने वाली सरकारी व्यवस्था राज्य के उच्च न्यायालय द्वारा किये गये इस आदेश को किस तरह लेती है लेकिन यह सच है कि स्थानीय जनता के एक हिस्से व व्यवसायियों को माननीय न्यायालय का यह आदेश पसन्द नही आया और शहर के भीतर वाहनो का प्रवेश पूरी तरह प्रतिबन्धित किये जाने से नाराज़ व्यापारियों, होटल व्यवसायियों व कुछ अन्य व्यवासायिक समूहो ने सगंठित होकर इस फैसले के विरोध में सड़कों पर उतरकर अपनी बात रखने का प्रयास किया है। हाॅलाकि सांकेतिक जाम या फिर रस्म अदायगी की तौर पर दिये जाने वाले ज्ञापन के अलावा इस विरोध में कुछ भी नया नही था और न ही इस प्रदर्शन में शामिल आन्दोलनकारियों ने अपने प्रदर्शन के दौरान उच्च न्यायालय को लेकर कोई नाराज़ी ही प्रकट की लेकिन कुछ अति उत्साही पत्रकारों व खबर को झटपट आगे सरकाने की दौड़ में आगे निकल जाने को आतुर फेसबुकिया पत्रकारों ने इस छोटे से मुद्दे को लेकर ऐसा माहौल बना दिया कि मानो कौन सा बड़ा बंवडर खड़ा होने वाला है। हद तो यह हो गयी कि जिन लोगो ने कभी नैनीताल देखा ही नही वह भी इस अनमोल धरोहर व प्रकृति संरक्षण को लेकर अपना ज्ञान बघारने लगे और कुछ अतिउत्साही वीरो ने लगे हाथ हाईकोर्ट को ही नैनीताल से हटाने का नारा बुलन्द कर डाला लेकिन पूरे मामले को लेकर असल चर्चा जहाॅ की तहाॅ अटक गयी और एक छोटी बात के बंतगड बन जाने के बावजूद यह तय नही हो पाया कि आधुनिकता की दौड़ में सरपट भागते चले जा रहे हमारे सभ्य समाज ने सुविधा के संसाधनो के उपयोग अथवा बर्बादी में फर्क सीखना चाहिऐं या नही। अगर आप नैनीताल या मसूरी समेत भारत के अन्य कुछ नामी-गिरामी पर्यटक केन्द्रो से थोड़ा बहुत भी परिचित है तो आपने यह महसूस किया होगा कि इधर पिछले कुछ वर्षो में देश की तेज़ी से बढ़ी जनसंख्या व आम आदमी की क्रय शक्ति में हुई बढ़ोत्तरी के चलते इन तमाम पर्यटन केन्द्रो में ऐसे यात्रियों व पर्यटको की बाढ़ सी आयी है जो मनोहारी दृश्यों का अवलोकन करने का लुफ्त उठाने अथवा प्रकृति का आनन्द लेने के स्थान पर इन स्थानो पर घूमने आने के नाम पर अपनी रहीसी की ठसक दिखाने या फिर अपनी भड़ास निकालने वाले अन्दाज़ में अपने पैसे की नुमाईश करने पर ज्यादा विश्वास रखते है। लम्बी-लम्बी गाड़ियो के साथ जीवन की हर दौर में एक दूसरे सें आगे निकल जाने को बेताब यह नये दौर के रहीस पैसे से सबकुछ खरीद लेने की सनक पाले हुऐ कानून को अपनी जेब में लेकर चलने की बात करते है तथा अपने घरोंदो अथवा कार्यालय रूपी ऐशगाहों से बाहर निकलते ही बेतरतीब होती इनकी ज़िन्दगी में सामने वाले के अमनो सुकून की कोई कीमत ही नही समझी जाती। नैनीताल उच्च न्यायालय का फौरी तौर पर व्यवस्थाऐं दुरूस्त करने का फैसला वाकई में इस तरह के रहीसजा़दों की आज़ादख्याली व कानून को जेब में लेकर चलने वाली फितरत पर बड़ी रोक लगाने वाला साबित हो सकता था और अगर इस फैसले के व्यापक असर पर गौर करे तो हमे लगता है कि अगर इस तरह की मंशा व मौज-मस्ती की नीयत के साथ नैनीताल अथवा विस्तार की सीमित सम्भावनाओ वाले पर्यटन केन्द्रो की ओर रूख करने वाले पर्यटको को उनके गंतव्य से थोड़ा पहले रोककर व उनके वाहनो को सुरक्षित रूप से खड़ा करने की ज़िम्मेदारी के साथ राज्य में पहले से ही मौजूद सार्वजनिक सेवाओ (टैक्सी,रोडवेज आदि) के ज़रिये मूल स्थान तक ले जाने की व्यवस्था की जाये तो इससे न सिर्फ स्थानीय स्तर पर रोज़गार की सम्भावनाऐं बढ़ेगी बल्कि जब पर्यटक स्ंवय को वाहनो की मारामारी व रोजा़ना की चिल्लपौ से दूर प्रकृति की गोद में पायेगा तो वाकई उसे उस सुकून का अहसास होगा जिसकी तलाश में आना कुछ लोगो के लिऐ पयर्टन का मकसद होता है लेकिन अफसोसजनक है कि न्यायालय की एक अच्छी पहल वाद-विवाद का विषय मात्र बनकर रह गयी और यह मान लिया गया कि कंकरीट के जंगल में तब्दील हो चुके नैनीताल को अपनी ऐशगाह बनाने में मशगूल कुछ नौकरशाह व कानूनविद् आम आदमी को मजबूर कर रहे है कि वह नैनीताल की ओर रूख करने का ख्याल भी दिल में लाना छोड़ दे। यह माना कि देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाऐं हमें यह इजाजत देती है कि हम एक हद के दायरे में रहकर अपनी समझबूझ के हिसाब से गलत अथवा सही लगने वाले किसी भी फैसले का विरोध या समर्थन करें तथा अपने पक्ष को सत्ता एंव शासन के शीर्ष सदनो तक पहुचाने के लिऐ भी कानून ने हमें कई ताकतो से नवाज़ा है लेकिन इस आज़ादी अथवा संवेधानिक ताकत का यह अर्थ तो नही है कि हम कानून के किसी भी फैसले को तर्क की कसौटी में कसे वगैर अपने निजी फायदे अथवा नुकसान का अन्दाज़ा मात्र लगा हाय-हाय के नारे लगाने लगे और चन्द लोगो के समूह सड़कों पर उतरकर व्यवस्था को इस कदर तार-तार करने पर उतर आये कि हालातों को सुधारा जाना या फिर आम आदमी को राहत दे पाना मुमकिन ही न रहे। किसी भी व्यवस्था के खिलाफ अपना विरोध देश के हर नागरिक को संविधान प्रदत्त अधिकार है तथा इसके गाॅधीवादी तरीके के तौर पर धरने प्रदर्शन, नारेबाजी, अथवा अन्य आंदोलनो को भी जायज़ माना गया है लेकिन इधर पिछले कुछ अन्तराल से देखने को मिल रहा है कि कतिपय सगंठनो व चेहरो ने आन्दोलन को ही अपना पेशा बना लिया है और समय-समय पर दी जाने वाली आन्दोलन की धमकी या फिर ताकत के दम पर सरकारी व्यवस्थाओं को पंगु कर देने की अपनी काबीलियत के चलते यह चन्द चेहरे समाज के बीच समानान्तर सरकार की तरह व्यवहार करने लगे है। हालातों के मद्देनज़र यह समझा जा सकता है कि लाठी के दम पर समाज अथवा व्यवस्था को अपने हिसाब से चलाने की यह प्रवृत्ति लोकतन्त्र के लिऐ हमेशा ही घातक रही है और नैनीताल से जुडे़ हालिया मामले में यह माना जा सकता है कि सही मंशा के बावजूद नैनीताल उच्च न्यायालय के मौजूदा फैसले व इस फैसले के विरोध में सड़कों पर उतरे तमाम संगठनो का रवैय्या इस विषय में ठीक लाठी के दम पर समाज अथवा व्यवस्था को हाँकने वाला ही है। अगर उच्च न्यायालय में शीर्ष पदो पर विराजित हमारे न्यायाधीश वाकई में आम जनता की सुरक्षा से जुड़े विषयो व रोजाना के हिसाब से सड़को पर लगने वाले जाम की स्थिति को लेकर वाकई चिन्तित थे तो क्या यह ज्यादा बेहतर नही होता कि तुरत-फुरत में नैनीताल की ओर रूख करने वाले तमाम वाहनो के शहर में प्रवेश पर रोक लगाने के स्थान पर एक समुचित व्यवस्था द्वारा सरकार को यह सलाह या निर्देश दिया जाता कि वह ऐसी व्यवस्था बनाऐं जिससे रोज़गार की सम्भावनाऐं बढ़ने के साथ ही साथ आम आदमी को राहत भी महसूस हो लेकिन अफसोस माननीय उच्च न्यायालय के निर्देशो का अनुपालन स्थानीय प्रशासन व सरकार द्वारा कुछ इस तरह किया गया कि मानो कानूनविदो को देश के अन्य हिस्सो से नैनीताल की ओर रूख करने वाले पयर्टको से ही कोई एलर्जी हो और फटाफट वाले अन्दाज़ में न्यायालय के इस फैसले का विरोध करने सड़को पर उतरे कुछ बयानवीरों ने विरोध के नाम पर कुछ ऐसा माहौल बनाया कि मानो नैनीताल की असल समस्या पर्यावरण में आ रहा बदलाव , ताल के जल का लगातार नीचे जा रहा जलस्तर या फिर आये दिन लगने वाला जाम न होकर राज्यनिमार्ण के बाद यहाॅ बनाया गया उच्च न्यायालय हो। अफसोस की स्थिति है कि खुद को सुधारने या अपनी आदतो को बदलने के लिऐं हममें से कोई भी तैयार नही है लेकिन हमारा दावा व कोशिश पूरी दूनिया को बदलने की है और हम अपने फैसलो के माध्यम से इस बदलाव को लाने के कृतसंकल्प भी दिखते है।

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