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Wednesday, April 24, 2024

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कार्यवाही की डर से

हाल-फिलहाल के लिए शान्त होता दिख रहा है उत्तराखंड सरकार में बगावत का शोर
उत्तराखंड सरकार के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत और उन्हीं की पार्टी के एक विधायक कुंवर प्रणव सिंह चैम्पियन के बीच चल रही तनातनी में मामला बहुत आगे तक जाने की संभावना नहीं दिखाई दे रही क्योंकि सम्बंधित विधायक को कारण बताओ नोटिस जारी किए जाने के बावजूद भाजपा के नेताओं का रवैय्या उनके प्रति नरम है और संगठन भी इस सारे प्रकरण को तूल देने के स्थान पर मामले के पटाक्षेप का पक्षधर दिखाई दे रहा है। हालांकि इस पूरे प्रकरण में एक बात बड़े स्पष्ट रूप से सामने आयी है कि वर्तमान मुख्यमंत्री को पूरी तरह भाजपा हाईकमान का वरदहस्त प्राप्त है और हाल-फिलहाल उनकी कुर्सी को भी कोई खतरा नहीं है लेकिन सवाल यह है कि असंतोष के फूटते स्वरों के बीच हाईकमान का डर या फिर संगठन विरोधी गतिविधियों के चलते सामने दिख रहे अंजाम का खतरा प्रदेश के सम्मानित जनप्रतिनिधियों को किस हद तक काबू में रख पायेगा और अपने एक वर्ष की उपलब्धियों को जनता के बीच रखने की तैयारियों में जुटी सरकार अपने विधायकों व मंत्रियों के साथ बेरूखी का इजहार करते हुए किस अंदाज में जनता के साथ सीधे संवाद करेगी। यह ठीक है कि चैम्पियन प्रकरण में कुछ विधायकों व भाजपा के अन्य बड़े नेताओं की नाराजी जिस तरह सामने आयी उसके मूल में सत्ता के शीर्ष पदों पर कब्जेदारी की जंग छुपी हुई है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि सदन में मिले दो-तिहाई से अधिक बहुमत के चलते मंत्रीपद से महरूम रह गए कई वरीष्ठ विधायकों में अपने नेताओं के इस निर्णय को लेकर नाराजी है जबकि पूर्व में राज्य का नेतृत्व कर चुके कुछ चेहरे तथा सरकार बनाने व चुनाव जीतने में अहम् भूमिका निभाने वाले कुछ नाम स्वयं को राज्य के शीर्ष पद का दावेदार मानते हुए सरकार विरोधी गतिविधियों को हवा दे रहे हैं लेकिन हालात यह इशारा भी कर रहे हैं कि राज्य की जनता भी सरकार के रवैय्ये से खुश नहीं हैं और सरकार के गठन होने के तत्काल बाद लगभग पूरे राज्य में हुए शराब विरोधी आंदोलन से लेकर वर्तमान में गरमाये हुए दिख रहे गैरसैण राजधानी तक के हर मुद्दे के पीछे सरकार की असफलता की कहानी छिपी हुई है। यह माना कि मोदी लहर पर सवार भाजपा के तमाम छोटे-बड़े नेता राज्य के हर चुनाव को जीतने का दावा कर रहे हैं और बाजार में छायी मंदी की खबरों के बीच भाजपा के लिए आजीवन सहयोग निधि के रूप में ठीक-ठाक धनराशि का जुगाड़ कर उन्होंने यह संकेत देने की कोशिश भी की है कि विपक्ष द्वारा किए जा रहे दुष्प्रचार के बावजूद सरकार व संगठन की लोकप्रियता कायम है लेकिन अगर हकीकत में देखा जाये तो भाजपा के अधिकांश कार्यकर्ता व समर्थक सरकार के वर्तमान रवैय्ये से खुश नहीं हैं और दायित्वों के बंटवारे या फिर राजकाज से जुड़े कार्यों में समर्थकों को अहमियत न देने के अलावा उन्हें वर्तमान सरकार की बेरूखी से भी नाराजी है। यह चर्चा आम है कि मुख्यमंत्री को अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं व विधायकों से मिलने का समय नहीं है और मीडिया के अवांछित प्रश्नों से बचने के लिए उन्होंने सचिवालय परिसर में पत्रकारों का प्रवेश प्रतिबंधित करने के साथ ही साथ सरकार से जुड़ी घोषणाओं व प्रश्नों की जवाबदेही के लिए एक मंत्री को सरकार का प्रवक्ता नियुक्त किया हुआ है लेकिन इस सबके बावजूद शीर्ष नेताओं व हाईकमान का आशीर्वाद उन्हें हासिल है और इसी आशीर्वाद के चलते वह लाख विरोध के बावजूद अपनी कुर्सी पर कायम हैं जबकि उनके विरोधी अपना अस्तित्व बचाने के लिए दांये-बांयें जगह ढूंढ रहे हैं या फिर चैम्पियन की तरह सवालों के घेरे में आने का इंतजार कर रहे हैं। उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद अस्तित्व में आयी जनहितकारी सरकारों में अंतर्विरोध, बगावत या फिर अपने ही नेता के खिलाफ झण्डा उठाने की मुहिम कोई नयी नहीं है और न ही इस तथ्य को नकारा जा सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को कायम रखने का दम भरने वाले हमारे सम्मानित जनप्रतिनिधि सत्ता के शीर्ष पदों को हासिल करने के बाद पूरी बेशर्मी के साथ निहित स्वार्थों की लड़ाई लड़ने में जुट जाते हैं लेकिन इस सबके बावजूद यह कहने में कोई हर्ज नहीं दिखता कि उत्तराखंड की सत्ता पर अब तक काबिज रही राजनैतिक विचारधाराओं ने नेता सदन का चयन किए जाने के मामले में जनता अथवा जनप्रतिनिधियों की इच्छाओं का सम्मान करने के स्थान पर अपने निहित स्वार्थों अथवा सम्बंधों को ही प्राथमिकता दी है जिस कारण इस राज्य के सत्ता शीर्ष पर हमेशा ही धमाचैकड़ी सा माहौल रहा है। अगर राज्य बनने के बाद पहली बार जनता के बीच से चुनी गयी सरकार की बात करें तो हम पाते हैं कि इन चुनावों में काफी दौड़भाग करने वाले तथा जनता की नब्ज पहचान कर प्रत्याशी के चयन से लेकर उसकी चुनावी सभाओं तक में अहम् भूमिका अदा करने वाले तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत को दरकिनार कर कांग्रेस के बड़े नेताओं ने पं. नारायण दत्त तिवारी को सत्ता की कंुजी सौंपी जिसका हरीश रावत व उनके सहयोगियों ने पूर्ण विरोध किया और राज्य की पहली ही सरकार को सत्तापक्ष के भीतर से ही तमाम चुनौतियां मिलीं। हालांकि पं. नारायण दत्त तिवारी के बड़े राजनैतिक कद और जनता के बीच उनकी लोकप्रियता को देखते हुए उन्हें एक बार सत्ता की चाबी सौंपने के बाद मुख्यमंत्री पद से हटाया जाना पार्टी हाईकमान के लिए भी नामुमकिन रहा और इसके एवज में हरीश रावत को भी राज्यसभा की सदस्यता एवं अन्य तमाम तरह की सहूलियतें दी गयी लेकिन अपनी ही पार्टी की सरकार व मुख्यमंत्री के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले हरीश रावत ने पद को अहमियत देने के स्थान पर जनता के बीच बने रहना और जनपक्ष को सरकार के समक्ष रखना ज्यादा मुफीद समझा जो उनकी भविष्य की राजनीति के लिए कारगर साबित हुआ। ठीक इसी प्रकार राज्य में बनी पहली अंतरिम सरकार की बात करें तो भाजपा के शीर्ष नेताओं ने सरकार के गठन के वक्त कार्यकर्ताओं पर बेहतर पकड़ रखने वाले भगत सिंह कोश्यारी के स्थान पर नित्यानंद स्वामी को अधिक तवज्जो दी और नवगठित राज्य को एक ऐसा मुख्यमंत्री मिला जिसकी राज्य में अपनी कोई पहचान नहीं थी। नतीजतन सत्ता समीकरणों को देखते हुए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को अपना फैसला बदलना पड़ा और स्वामी के बामुश्किल सात-आठ माह के कार्यकाल के बाद भगत सिंह कोश्यारी मुख्यमंत्री बनाये गए लेकिन एक नेता के रूप में कार्य करने अथवा फैसले लेने के लिए इन्हें इतना वक्त ही नहीं मिला कि यह अपने प्रयासों अथवा कार्ययोजनाओं को जनता के बीच ले जा पाते। इसके बाद जब दोबारा प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी तो हाईकमान ने एक बार फिर भगत सिंह कोश्यारी को दरकिनार करते हुए फौजी पृष्ठभूमि के मेजर जनरल खंडूरी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया और तथाकथित रूप से ईमानदार इस नेता ने सरकार चलाने व योजनाओं को बनाने के मामले में जनप्रतिनिधियों व अपने मंत्रियों पर विश्वास करने के स्थान पर नौकरशाही पर भरोसा करना ज्यादा बेहतर समझा जिसके चलते न सिर्फ नौकरशाही की मदद से भ्रष्टाचार के कई मामलों को अंजाम दिया गया बल्कि सारंगी जैसा एक नाम राजनैतिक प्रदर्शनों व सरकार के विरोध का बड़ा कारण बना। इस दौर में भगतसिंह कोश्यारी ने खंडूरी सरकार के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोला और पार्टी हाईकमान को मुख्यमंत्री बदलने के लिए मजबूर भी होना पड़ा लेकिन कोश्यारी की जगह निशंक को मुख्यमंत्री बनाया गया। यहां पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि कांग्रेस के नेता पं. नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल के बाद निशंक का कार्यकाल भी राज्य के विकास की दृष्टि से बेहतर समय था और अपनी दूरदर्शिता के चलते निशंक सरकार ने लोकप्रियता के कई मुकामों को छूने का प्रयास भी किया लेकिन मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द रहने वाले अनुभवहीन सलाहकार निशंक पर भारी पड़े और राज्य की तीसरी विधानसभा के लिए जनता के बीच जाने से पूर्व ही निशंक को कुर्सी से हटाकर खंडूरी को एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया गया। यह फैसला भाजपा की एक बड़ी भूल साबित हुआ और चुनाव के मैदान में तथाकथित रूप से ईमानदार मुख्यमंत्री भुवनचन्द्र खंडूरी खुद हार गए तथा राज्य में एक बार फिर कांग्रेस ने क्षेत्रीय संगठनों व निर्दलियों की मदद से सरकार बनायी। हालांकि इस बार यह माना जा रहा था कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने के लिए हरीश रावत को ज्यादा चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ेगा और इस पद की लड़ाई में उनका मुख्य मुकाबला दिग्गज महिला नेता इन्दिरा हृदयेश से होगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और कांग्रेस हाईकमान ने विजय बहुगुणा को राज्य का मुख्यमंत्री घोषित किया जिसके एवज में हरीश रावत खेमे के कुछ विधायकों व उनके समर्थकों द्वारा धरना-प्रदर्शनों व अन्य कार्यक्रमों को लम्बे समय तक अंजाम दिया गया और एक लम्बी जद्दोजहद के बाद हरीश रावत की मुख्यमंत्री बनने की हसरत पूरी हुई। हालांकि हरीश रावत के इस कार्यकाल में भी उनके सलाहकार हावी दिखे और सत्तापक्ष को एक बड़ी राजनैतिक टूट व विधायकों की बगावत का सामना करना पड़ा लेकिन यहां पर यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि अपने तीन वर्षों के कार्यकाल में हरीश रावत इस पर्वतीय राज्य की समस्याओं व पहचान को लेकर चिंतित दिखे और सरकार ने गैरसैण में विधानसभा भवन बनवाने, सत्र आहूत करने व स्थानीय कृषि उत्पादों को बाजार प्रदान करने आदि के संदर्भ में कई ऐसे ठोस फैसले लिए जो राज्य की आर्थिकी को लेकर महत्वपूर्ण साबित हो सकते थे लेकिन मोदी लहर और कांग्रेस में हुए विभाजन के चलते कांग्रेस बुरी तरह चुनाव हार गयी और राज्य में पहली बार दो-तिहाई बहुमत वाली सरकार बनी। इस सरकार के गठन के वक्त यह माना जा रहा था कि इस बार राज्य में राजनैतिक स्थिरता कायम रहेगी और भाजपा हाईकमान जनभावनाओं के अनुरूप जनता के बीच से चुने गए विधायकों को अपना नेता चुनने का मौका देगा लेकिन यहां भी दिल्ली के नेताओं की मनमानी साफ दिखाई दी और भाजपा हाईकमान ने विधायकों पर अपनी मनमर्जी थोपते हुए त्रिवेन्द्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया। यह ठीक है कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत का चुनाव विधायकों के बीच से किया गया था और संघ के खांटी प्रचारक के रूप में अपनी हाईकमान तक पहुंच का उन्हें फायदा भी मिला लेकिन एक मुख्यमंत्री के रूप में त्रिवेन्द्र सिंह रावत अपने विधायकों व मंत्रीमंडल के साथ तालमेल बनाने में नाकामयाब दिखे और अपने कार्यकाल के पहले ही साल में वह भी विधायकों के बागी तेवरों से जूझते नजर आये। यह माना कि टीएसआर सरकार को इस बगावत से कोई फर्क पड़ता नहीं दिख रहा और सरकार के विरूद्ध बयानबाजी के आरोपी विधायक को संगठन की ओर से कारण बताओं नोटिस जारी किए जाने की खबरों व टीएसआर के रवैय्ये से यह भी स्पष्ट है कि केन्द्रीय सत्ता व संगठन का वरदहस्त उनके साथ है लेकिन सवाल यह है कि यह बेहतर तालमेल कब तक बना रहेगा और स्थानीय स्तर पर जनता के बीच जवाबदेह विधायक व अन्य जनप्रतिनिधि कब तक सरकार की नाकामियों को छुपाते हुए उसके सवालों का जवाब देने से कतराते रहेंगे। हो सकता है कि टीएसआर सरकार के विरूद्ध उठते दिख रहे बगावत के सुरों को कुछ नेताओं की मुख्यमंत्री बनने की चाहत ने हवा दी हो या फिर सरकार में खाली दो मंत्री पद व अनेकों दायित्वों को न भरे जाने से कुछ विधायक व तमाम नेता सरकार से नाराज हों लेकिन इस नाराजी के पीछे छिपी जनप्रतिनिधियों की हताशा बड़ी स्पष्ट दिख रही है और जो लोग बेहतरी की तलाश में अन्य दलों को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे उन्हें अपनी चुनावी जीत के बावजूद अपनी दयनीय स्थिति का अहसास हो रहा है। इन हालातों में चैम्पियन की बगावत या फिर निशंक की चाय पार्टी का कोई असर पड़ता हाल-फिलहाल भले ही न दिखाई दे और कुछ समय के लिए राजनैतिक तौर पर ‘‘आॅल इज वैल’’ का सा माहौल महसूस हो लेकिन यह तय है कि विधायकों का दर्द एक बार फिर जल्द वापस दिखाई देगा क्योंकि उन्हें सरकार के हितों के साथ ही साथ जनहित के प्रति भी चिंतित दिखना आवश्यक है और यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि अपने इस एक साल के कार्यकाल में भाजपा के अधिकांश विधायक यह महसूस कर रहे हैं कि इस एक वर्ष के दौरान सरकार के कार्यकलापों व सरकारी फैसलों में अनिश्चितता के माहौल के चलते उनकी लोकप्रियता में तेजी से गिरावट महसूस की जा रही है।

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