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Thursday, April 25, 2024

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दो और दो पांच

बंग्लादेशी घुसपैठ पर चिंतित भारतीय सेना प्रमुख के बयान पर निकाले जा रहे हैं कई राजनैतिक निहितार्थ
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि भारत की राजसत्ता पर काबिज वर्तमान राजनैतिक दल की विचारधारा को निर्देशित करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्पष्ट मानना है कि भारत के आर्थिक एवं सामाजिक विकास में मुस्लिम एक बड़ी राजनैतिक बाधा है तथा इस सम्प्रदाय से किसी भी तरह का ताल्लुक रखने वाला वर्ग भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के प्रति आस्थावान नहीं माना जा सकता। हालांकि यह बात कहने में कुछ अटपटी जरूर लगती है तथा देश का संविधान भी इस तरह की धर्म आधारित राजनैतिक व्यवस्था को स्वीकार करने की इजाजत नहीं देता लेकिन राष्ट्रीय राजनैतिक परिपेक्ष्य में कई बार ऐसे अवसर आए हैं जब संघ की विचारधारा से जुड़े लोगों ने देश की मुस्लिम आबादी को अपनी हदों में रहने या फिर पाकिस्तान चले जाने की नसीहत दी है तथा राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की दृष्टि से मुस्लिम वोट-बैंक की राजनीति करने वाले राजनैतिक दलों को खुलेआम देशद्रोही या गद्दार घोषित किया गया है किंतु आजादी के बाद इन सत्तर सालों में यह पहला अवसर है जब देश के एक सेना प्रमुख ने इस परिपेक्ष्य में कोई राजनैतिक बयान दिया है। यह ठीक है कि भारतीय सेना के प्रमुख जनरल रावत ने जो कहा वह बांग्लादेशी घुसपैठियों के संदर्भ में महत्वपूर्ण है और इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि म्यांमार में गहरा रहे राजनैतिक संकटों के बीच देश के पूर्वोत्तर राज्यों में बढ़ रही रोहंग्या मुसलमानों की घुसपैठ का कोई सार्थक समाधान ढूंढे बिना इस समस्या का निदान किया जाना संभव भी नहीं है लेकिन किसी एक राजनैतिक दल की बढ़ती लोकप्रियता व जनाधार के लिए घुसपैठ को जिम्मेदार ठहरा दिया जाना या फिर बिना तथ्यों व साक्ष्यों के किसी भी राजनैतिक विचारधारा की आस्था पर सवाल खड़े करना न्यायोचित नहीं है और अगर यह कृत्य किसी राजनैतिक चरित्र से इतर किसी नौकरशाह अथवा सेना के शीर्ष पद पर काबिज जिम्मेदार अधिकारी द्वारा किया जाता है तो इसे अनदेखा करना या फिर माखौल में उड़ा दिया जाना न्यायोचित भी नहीं है। यह माना जा रहा है कि अपनी अवकाश प्राप्ति के बाद अपने लिए नई भूमिका की तलाश कर रहे जनरल विपिन रावत इस बयान के बहाने संघ की तवज्जो चाहते हैं और उनकी कोशिश मेजर जनरल भुवनचन्द्र खंडूरी व जनरल वीके सिंह की ही तर्ज पर अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की है लेकिन सिर्फ इन तथ्यों व तर्कों के आधार पर जनरल रावत के बयानों को अनदेखा नहीं किया जा सकता और न ही इस तथ्य से मुंह मोड़ा जा सकता है कि बांग्लादेशी घुसपैठिये न सिर्फ म्यांमार व अन्य रास्तों से असम में अपना दबाव बनाते हुए वहां की जनसांख्यिकी समीकरण बदलना चाहते हैं बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों में जन्म ले रहे नये शहरों व असंतुलित विकास के नमूने के रूप में तेजी से पनप रहे कस्बों में अवैध रूप से बनने वाली कालोनियों व सड़कों के किनारे बसने वाली झोपड़पट्टियों के पीछे भी इन बांग्लादेशी घुसपैठियों का बड़ा हाथ है तथा विभिन्न राजनैतिक कारणों व सामाजिक दबावों के चलते इन्हें अब तक बर्दाश्त किया जाता रहा है। हो सकता है कि अपने बयान में बद्रूद्दीन अजमल के नेतृत्व में गठित राजनैतिक दल आॅल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) का नाम लेने अथवा उसकी राजनैतिक लोकप्रियता की तुलना भाजपा के साथ करने के पीछे उनकी कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा छिपी हो और उत्तर पूर्व के इस सियासी अंकगणित को पाकिस्तान व चीन की रणनीति से जोड़ते हुए वह भारत के राजनैतिक परिपेक्ष्य में बन रहे नये समीकरणों के संदर्भ में कुछ संकेत देना चाह रहे हों लेकिन अपने इस बयान में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि पिछले कुछ वर्षों में भाजपा की लोकप्रियता व राजनैतिक विस्तार सम्पूर्ण राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में तेज हुआ है। हालांकि इसके कारणों को लेकर वह स्पष्ट नहीं हैं और न ही उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि भाजपा की इस लोकप्रियता के पीछे उसका राजनैतिक सुशासन अथवा व्यापक जनहित को लेकर चुनावों से पूर्व व्यक्त की जाने वाली चिंताएं जिम्मेदार हैं लेकिन बदरूद्दीन अजमल व उनके राजनैतिक दल की लोकप्रियता की तुलना भाजपा के साथ कर उन्होंने यह भी स्पष्ट करने की कोशिश की है कि परस्पर विरोधी विचारधारा के बावजूद इन दोनों ही राजनैतिक दलों के उद्देश्य व काम करने का तरीका एक ही है और यह दोनों ही दल धार्मिक आधार पर मतदाताओं का धु्रवीकरण चाहते हैं। अगर ऐसा है तो यह परिस्थितियां भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के कतई अनुकूल नहीं कही जा सकती और न ही इस तरह के नापाक इरादों के साथ राजनीति को लेकर प्रयोग कर रही राजनैतिक विचारधाराओं व संगठनों का समर्थन किया जा सकता है लेकिन अफसोसजनक है कि भारतीय राजनीति में धार्मिक व जातिगत् आधार पर मतदाताओं को धु्रवीकृत करने के तरीके तेजी से फल-फूल रहे हैं और सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनैतिक दल विचारधारा के नाम पर मतदाताओं को ध्रुवीकृत करने के अपने प्रयासों व ज्वलंत राष्ट्रीय समस्याओं से आम जनता का ध्यान हटाने की कोशिशों में सफल दिखते हैं। यह माना कि भारत का संविधान इस तरह के राजनैतिक धु्रवीकरण की इजाजत नहीं देता और चुनाव आयोग ने भी इस संदर्भ में स्पष्ट प्रावधानों का उल्लेख करते हुए कठोर नियम बनाये हुए हैं लेकिन चुनावों के दौरान ही नहीं बल्कि सामान्य कामकाज में भी इन नियमों व प्रावधानों की खुलकर धज्जियां उड़ायी जाती हैं और देश के विभिन्न हिस्सों में तेजी से अस्तित्व में आते दिख रहे विभिन्न जाति व धर्म आधारित संगठन अपने-अपने फायदे या नुकसान को दृष्टिगत रखते हुए समय-समय पर ऐसे बयान जारी करते रहते हैं जो देश की एकता व अखंडता के लिए खतरा साबित हो सकते हैं। हालांकि यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि सत्ता की राजनीति करने वाले इन तमाम राजनैतिक दलों के किसी विशेष धर्म अथवा जाति के प्रति झुकाव को देखते हुए यह कहा जाना संभव नहीं है कि इन राजनैतिक दलों पर यदा-कदा लगने वाले पाकिस्तान परस्ती के आरोपों के बावजूद इनकी निष्ठायें संदिग्ध हैं लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रवाद व समर्पण के मायने बदले हैं और सत्ता के शीर्ष पर एक विचारधारा विशेष की कब्जेदारी के बाद यह मान लिया गया है कि देश की मुस्लिम आबादी के हितों व अधिकारों की बात करना एक घोषित अपराध व तथाकथित राष्ट्रवाद का विरोध है। शायद यही वजह है कि देश के कुछ हिस्सों में नियोजित तरीके से हो रही बंग्लादेशी घुसपैठियों की आवाजाही को लेकर चिंतित दिखे राष्ट्र के एक वरीष्ठ सैन्य अधिकारी के बयान को इस तरह राजनैतिक तूल दिया जा रहा है और उनके बयान का राजनैतिक विश्लेषण करने के प्रयासों में जुटा विपक्ष उनके इस बयान के पीछे छिपे राजनैतिक निहितार्थ खोज रहा है। यह माना कि बदरूद्दीन अजमल को एक राजनैतिक दल का मुखिया और भारत का नागरिक होने के नाते इस बात का पूरा हक है कि वह अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति व सत्ता के शीर्ष पदों को हासिल करने के लिए वह तमाम तौर-तरीके आजमाये जो भारतीय मतदाताओं को उनके पक्ष में खड़ा करने अथवा उनकी राजनैतिक लोकप्रियता को नये आयाम देने में कारगर भूमिका अदा करे लेकिन अगर अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए कोई राजनैतिक दल अथवा व्यक्तित्व गैर भारतीयों की मदद लेने का प्रयास कर रहा है अथवा उसकी संदिग्ध गतिविधियों के चलते देश की परिसम्पत्तियों पर अप्रत्याशित अतिक्रमण को बढ़ावा मिल रहा है तो इस संदर्भ में सतर्क होना भी आवश्यक है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत के विभिन्न हिस्सों में तेजी से बढ़ रही बंग्लादेशी घुसपैठियों की आमद के पीछे राजनैतिक शह की संभावनाएं लगातार जताई जाती रही हैं तथा देश के आर्थिक विकास व सामाजिक सामंजस्य पर विपरीत प्रभाव डालने वाले यह घुसपैठिये बहुत ही तेजी के साथ भारत की जनसंख्या का हिस्सा बनते हुए यहां की अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं। यह मुद्दा वाकई गंभीर है और अगर भारतीय सेना का एक उच्च अधिकारी इस विषय पर चिंतित दिख रहा है तो इस समस्या को कतई हल्के से नहीं लिया जा सकता क्योंकि विपरीत परिस्थितियों व अकारण होने वाले धार्मिक उन्माद की स्थितियों से निपटने के लिए सेना को ही मैदान में उतरना पड़ता है। अगर इस घुसपैठ के पीछे किसी विदेशी साजिश या फिर दुश्मन देशों की कोई छिपी रणनीति काम कर रही है तो भारत सरकार द्वारा इन विषयों को लेकर सक्रियता को अपनाया जाना जरूरी है लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत में सदियों से निवास कर रही तमाम मुस्लिम जातियां व अन्य सम्प्रदाय भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है और हम चाहकर भी इन्हें इस मुल्क से बाहर का रास्ता नहीं दिखा सकते। लिहाजा बिना किसी मजबूत साक्ष्य के बदरूद्दीन अहमद या अन्य किसी भी नेता पर आरोप लगाना एक अहमकाना ख्यालात के अलावा कुछ नहीं माना जा सकता।

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