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Thursday, April 18, 2024

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Dharmam Sharanam Gachhami

राजनैतिक चर्चाओं से हटकर आम आदमी की नब्ज टटोलने निकले हरीश रावत
चुनावी हार के बावजूद लगातार सक्रिय रहने व राजनीति की मुख्यधारा में बने रहने के लिए प्रयासरत् उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत इन दिनों अपने ही लोगों के निशाने पर हैं और सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों से आ रहे बयानों व इकला चलो वाले अंदाज में हो रहे उनके कार्यक्रमों को देखकर यह अंदाजा लगाया जाना मुश्किल नहीं है कि चुनावी हार के बावजूद उत्तराखंड कांग्रेस की अंदरूनी जंग अभी जारी है। हालांकि प्रदेश कांग्रेस के तमाम बड़े नेता व खुद हरीश रावत यह मानकर राजी नहीं हैं कि कांग्रेस के पदाधिकारियों, वरीष्ठ नेताओं व विधायक दल में आपस में तालमेल नहीं है और विभिन्न गुटों में बंटे कांग्रेसी ही इस राजनैतिक दल को समय-समय पर मिलने वाली हार का कारण भी है लेकिन संगठन द्वारा आयोािजत अधिकांश कार्यक्रमों में किसी नेता को बुलाये जाने अथवा न बुलाये जाने पर होने वाली रार तथा कार्यक्रमों के दौरान मंच पर कब्जेदारी या फिर नाम पुकारे जाने को लेकर होने वाले नेताओं के समर्थकों के सार्वजनिक झगड़े इस तथ्य की ताकीद करते हैं कि संगठनात्मक स्तर पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। जहां तक शक्ति प्रदर्शन अथवा व्यापक जनस्वीकार्यता का सवाल है तो इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हरीश रावत कांग्रेस के एक बड़े नेता हैं और उनके निजी अथवा सार्वजनिक कार्यक्रमों के दौरान उमड़ने वाली जनता व कार्यकर्ताओं की भीड़ को देखते हुए यह अन्दाजा लगाया जाना मुश्किल नहीं है कि दो-दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव हारने के बावजूद वह अपनी कार्यशैली व कार्यक्रमों के जरिये खुद को राजनैतिक रूप से जिन्दा रखने में कामयाब हैं लेकिन इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनकी इस राजनैतिक सक्रियता का फायदा उत्तराखंड कांग्रेस को नहीं मिल पा रहा और वर्तमान सरकार की कार्यशैली व तमाम फैसले पर जनपक्ष की ओर से उठ रहे सवालों के बावजूद विपक्ष सरकार को घेरने में पूरी तरह असफल है। यह माना कि इस सबके लिए हरीश रावत ही जिम्मेदार नहीं हैं और अपनी हार के कारणों की तलाश में जनता एवं जर्नादन (ईश्वर) के दरबार में हाजिरी लगाने के लिए उन्हें संगठन से अलग से अनुमति लेने की भी दरकार नहीं है लेकिन अगर कांग्रेस संगठन द्वारा सार्वजनिक स्तर पर किए जाने वाले प्रदर्शनों में उनकी अनुपस्थिति को प्रश्न बनाते हुए सवाल खड़े किए जाएं तो यह साफ जाहिर होता है कि विधानसभा चुनावों से पूर्व पार्टी में हुई एक बड़ी टूट के बावजूद कांग्रेस में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और यह परिस्थितियां कांग्रेस अथवा स्थानीय जनता के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उचित नहीं कही जा सकती क्योंकि विपक्ष के रूप में कांग्रेस के नेताओं पर एक बड़ी जिम्मेदारी है और उनका इस तरह अलग-थलग दिखाई देना या फिर कई धड़ों में बंटकर कार्यक्रमों को आयोजित करना विपक्ष की सामूहिक आवाज को कमजोर करता है। हालांकि हरीश रावत की अपनी राजनैतिक मजबूरियां हैं और उनका राजनैतिक इतिहास इस बात की गवाही देता है कि हर चुनावी हार के बाद वह ज्यादा मजबूत व बड़े नेता के रूप में जनता के सामने आए हैं लेकिन वर्तमान में परिस्थितियां बदली हुई हैं और हालिया विधानसभा के चुनावों के परिणाम यह इशारा करते हैं कि जनता ने कांग्रेस की नहीं बल्कि हरीश रावत की कार्यशैली को नकारा है। इसलिए एक अनुभवी नेता के रूप में हरीश रावत का फर्ज बनता है कि वह एक वरीष्ठ नेता के रूप में सबको साथ लेकर चलें तथा अपनी निजी टीम की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं पर काबू रखते हुए सबको साथ लेकर आगे बढ़ने का प्रयास करें। जहां तक उनके कार्यक्रमों अथवा उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में किए जा रहे भ्रमण का सवाल है तो किसी भी पद पर न रहने के बावजूद सार्वजनिक मंचों व सामाजिक संगठनों से उनको मिलने वाले निमन्त्रण इस तथ्य की ताकीद करते हैं कि पद से हटने या चुनाव हारने के बावजूद उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं है तथा विभिन्न छोटे-बड़े कार्यक्रमों के दौरान उनके साथ फोटो खिंचाने को उत्साहित दिखने वाली जनता यह इशारे भी देती है कि एक नेता के रूप में हरीश रावत उत्तराखंड कांग्रेस को उसकी लोकप्रियता व खोया हुआ सम्मान वापस दिलाने की दिशा में प्रभावी कदम उठाते हुए संगठनात्मक स्तर पर कार्यकर्ताओं में नई जान फूंकने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन उनके कार्यक्रमों को लेकर संगठन के एक हिस्से द्वारा दर्शायी जा रही बेरूखी यह इशारा भी करती है कि कांग्रेस ने एक बड़ी टूट के बावजूद पिछले घटनाओं व घटनाक्रमों से सबक नहीं लिया है और संगठन की ओहदेदारी के तलबगार दिखने वाले तमाम नेता व्यापक जनहित को लेकर सड़कों पर संघर्ष करने के स्थान पर आराम से बैठकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करने के पक्षधर हैं। एक विचारधारा विशेष के इशारे पर कतिपय लोगों द्वारा हरीश रावत द्वारा की जा रही मंदिर जाने की सियासत पर भी प्रश्नचिन्ह लगाने के प्रयास किए जा रहे हैं तथा यह माना जा रहा है कि कांग्रेस के तेजी से कम हुए जनाधार ने कांग्रेस हाईकमान राहुल गांधी समेत तमाम बड़े नेताओं को अपने दलित व हिन्दू धर्मावलम्बियों के प्रति प्रेम प्रदर्शन के लिए मजबूर कर दिया है लेकिन कांग्रेस के तमाम उत्तराखंड स्तरीय नेताओं व संगठन के पदाधिकारियों की इस तरह के कार्यक्रमों में न के बराबर भागीदारी यह इशारा कर रही है कि कांग्रेस से जुड़े तमाम पदाधिकारी भी अपने नेताओं की इस रणनीति से सहमत नहीं हैं और संगठन व इससे जुड़े नेता अपनी कार्यशैली में किसी तरह का बदलाव नहीं चाहते। यह परिस्थितियां कांग्रेस की मजबूती के लिहाज से कतई ठीक नहीं कही जा सकती और न ही मौजूदा राजनैतिक दौर व परिस्थितियां यह इजाजत देती है कि कोई भी राजनैतिक संगठन सिर्फ व सिर्फ चुनावी अवसरों पर सक्रिय दिखे। लिहाजा कांग्रेस के नेताओं ने खुद को जिन्दा रखने के लिए अब एक मंच पर आना ही होगा तथा नींद से जागने वाले अंदाज में कभी किसी सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन अथवा रैली आदि की परम्पराओं से आगे बढ़ते हुए जनता के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए नित नये तरीकों की तलाश करने के लिए अपने अनुभवी व उम्रदराज नेताओं से मार्गदर्शन भी प्राप्त करना होगा लेकिन अफसोसजनक है कि सत्ता अथवा संगठन के पदों की चाह रखने वाले पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ भी इन तौर-तरीकों से परहेज करते दिखाई दे रहे हैं और शायद यही वजह है कि वर्तमान में हरीश रावत अपनी सटीक कार्ययोजना व आयोजनों के बावजूद भी अपने ही दल के कुछ नेताओं के निशाने पर हैं। एक पूर्व मुख्यमंत्री के रूप में हरीश रावत द्वारा किया जा रहा आत्मचिंतन तथा अपनी हार के कारणों की तलाश में गांव-गांव व शहर-शहर भटकते हुए छोटी-छोटी सभाओं या मंदिरों में कीर्तन आदि के माध्यम से जनता के बीच जाने का उनका तरीका कुछ नेताओं को रास नहीं आ रहा है या फिर यह भी हो सकता है कि संगठन के वरीष्ठ पदों पर काबिज होकर कांग्रेस को एक कार्पोरेट कम्पनी के अंदाज में चलाने की इच्छा रखने वाले कतिपय नेताओं को हरीश रावत की इस शैली से अपनी कुर्सी के लिए खतरा पैदा हो रहा हो। खैर वजह चाहे जो भी हो लेकिन हालात यह इशारा कर रहे हैं कि उत्तराखंड कांग्रेस में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा और इतिहास इस तथ्य का गवाह है कि अगर विपक्ष में एका न हो तो सत्तापक्ष को अपनी मनमानी करने या फिर व्यापक जनहित से इतर निर्णय लेने के कई मौके खुद-ब-खुद ही मिल जाते हैं। इसलिए कांग्रेस के राजनैतिक भविष्य के लिहाज से ही नहीं बल्कि उत्तराखंड की जनता व उसके व्यापक परिपेक्ष्य में सोची व विचारी गई उन तमाम जनहितकारी योजनाओं के लिहाज से भी यह जरूरी है कि न सिर्फ आंदोलनों व प्रदर्शनों के दौरान विपक्ष के सभी नेता एक मंच पर दिखें बल्कि संगठनात्मक स्तर पर उन तमाम तौर-तरीकों पर विचार करते हुए छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाने के लिए कार्यकर्ताओं को तैयार किया जाए और यहां पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि एक पूर्व मुख्यमंत्री के तौर पर हरीश रावत द्वारा चलाये जा रहे मंदिर में कीर्तन-भजन व सार्वजनिक कार्यक्रमों में शिरकत जैसे आयोजनों के दम पर ही कांग्रेस एक मजबूत विपक्ष के रूप में खुद को प्रस्तुत कर सकती है।

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