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Thursday, March 28, 2024

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चुनावी मोर्चे पर

हिन्दुत्व व उग्र राष्ट्रवाद को हथियार बना चुनाव मैदान में उतरने को तैयार भाजपा
आम आदमी के संदर्भ में नियमों को कठोर करने व तत्परता से उन्हें लागू करने की पक्षधर दिख रही भारत की केन्द्र सरकार को उम्मीद है कि तेजी से बढ़ रही महंगाई व लगातार कम हो रहे रोजगार के अवसरों के बावजूद देश की जनता उन्हें एक बार और केन्द्र में सरकार बनाने का मौका देगी तथा अपने अगले कार्यकाल में वह उन तमाम योजनाओं के क्रियान्वयन व संचालन पर काम कर पाएंगे जिनकी आधारशिला योजनाओं के प्रारूप व रूपरेखा के निर्माण के तौर पर इस कार्यकाल में रखी गयी है। हालांकि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं व जनमत के आधार पर चलने वाली सरकारों के परिपेक्ष्य में यह कहा जाना आसान नहीं है कि जनता अवश्यमेव रूप में एक बार फिर उसी विचारधारा अथवा सदस्यों का चुनाव करेगी जो एक बार अपना पांच वर्षों का कार्यकाल पूरा कर दोबारा जनता की अदालत में जाने की तैयारी कर रहे हैं या फिर आसान शब्दों में यह कहें कि एक गैर राजनैतिक विश्लेषक के रूप में दावे के साथ यह कहना कठिन है कि मोदी का जादू अभी आगे भी कायम रहेगा और एक नेता व देश के प्रधानमंत्री के रूप में जनता से किए गए वादों पर खरा न उतरने के बावजूद भी देश की जनता उन पर ठीक उसी तरह विश्वास जतायेगी जैसे कि पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान जताया गया था लेकिन जनपक्ष के एक बड़े हिस्से के सर पर चढ़कर बोल रहे मोदी के जादू और उनके तमाम राजनैतिक कार्यक्रमों को मिल रही सफलता व लोकप्रियता को देखते हुए यह तो कहा ही जा सकता है कि विपक्ष के लिए सत्ता प्राप्ति की राह आसान नहीं होगी। लोकसभा के बाद धीरे-धीरे कर राज्यसभा में भी पूर्ण बहुमत की ओर बढ़ रही भाजपा वर्तमान में केन्द्र के अलावा उन्नीस राज्यों की सत्ता पर काबिज है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन तमाम राज्यों में भाजपा को मिले पूर्ण बहुमत या फिर सत्ता में हिस्सेदारी के लिए मोदी कारक के रूप में पूरी तरह जिम्मेदार है। इसलिए अगर केन्द्र के अलावा अन्य राज्यों में प्रस्तावित चुनावों के दौरान भी भाजपा को सफलता मिलती है तो इसके लिए मोदी फेक्टर को ही जिम्मेदार माना जा सकता है और अगर इन तमाम राज्यों में भाजपा को चुनावी हार का सामना करना पड़ता है तो मोदी सरकार हार की जिम्मेदारियों से बच नहीं सकती क्योंकि विभिन्न राज्यों में चुनाव प्रचार की रणनीति तय करने के अलावा सरकार के गठन व मुख्यमंत्री के चयन आदि से जुड़े लगभग सभी फैसलों के लिए मोदी व अमित शाह की जोड़ी की पसंद-नापसंद को भाजपा के नीति निर्धारकों ने लगभग हर राज्य में प्राथमिकता दी है। लिहाजा आने वाले कल में यह देखना दिलचस्प होगा कि जनता का रूझान क्या रहता है और नोटबंदी, जीएसटी लागू होने या फिर हर सरकारी योजना व अनुदान को आधार से जोड़ते हुए हर व्यक्ति को बैंक में खाता खोलने के लिए बाध्य किए जाने व तेजी से बदल रहे बैंकिंग के नियम-कानूनों के बीच जनसामान्य के खातों में हो रही अंधाधुंध कटौती के पक्ष अथवा विपक्ष में जनता का क्या रूझान रहता है। भाजपा के सत्ता पर काबिज होने के बाद से वर्तमान तक कई बड़े पूंजीपति समूहों के मालिक अपना कर्ज वापस करने की जगह रातों-रात विदेश भाग गए हैं और बैंकों की बढ़ती देनदारी व एनपीए खातों की बढ़ती संख्या के चलते बैंकों की हालत वाकई डावाडोल है जिसका असर बाजार पर पड़ना निश्चित जान पड़ता है। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि आर्थिक जवाबदेही की इस संकट की घड़ी में सरकार कौन से नये कदम उठाती है और चुनावी वर्ष माने जा रहे 2018 में जनमत को अपनी ओर रिझाने के लिए सरकार द्वारा कौन से नये कदम उठाए जाते हैं। हालांकि सरकार ने लोकलुभावन घोषणाओं से इंकार किया है और सरकार द्वारा सदन में प्रस्तुत किये गए वित्तीय वर्ष 2018-19 के बजट से भी यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि सरकार आम आदमी को राहत देने के कतई मूड में नहीं है लेकिन बाजार में तेजी से बढ़ती दिख रही महंगाई व बेरोजगारी पर प्रभावी रोक लगाने के लिए तो सरकार ने कुछ उपाय करने ही होंगे और जमाखोरी व मुनाफाखोरी के खिलाफ कड़े प्रावधान करते हुए बाजार की कीमतों पर भी प्रभावी लगाम लगाये जाने की जरूरत पर विचार करना होगा। यह माना कि हालिया मामले में नीरव मोदी के अम्बानी परिवार के साथ निकटवर्ती संबंधों की खबरें मीडिया में आने अथवा देश छोड़ने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में शामिल दिखाई देने के बावजूद भी सरकार इन तमाम विषयों को लेकर चिंतित नहीं है और न ही देश के प्रधानमंत्री अथवा अन्य किसी जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा इस संदर्भ में सफाई या फिर जरूरी वक्तव्य देने के ही प्रयास किए गए हैं लेकिन यह माना जा रहा है कि इस घोटाले के सामने आने के बाद सरकार सतर्क दिखाई दे रही है और उसने बैंकों में पूंजी की उपलब्धता व करोड़पति बकायेदारों के संदर्भ में आंकड़े जुटाने शुरू कर दिए हैं। हो सकता है कि सरकार इस सम्पूर्ण परिपेक्ष्य में कोई बड़ा कदम उठाते हुए आमजन के बीच यह संदेश देने की कोशिश करे कि आर्थिक भ्रष्टाचार के संदर्भ में आ रही इन तमाम बड़ी खबरों के बावजूद आम आदमी सुरक्षित है और सरकार अपनी वसूली के प्रयासों को तेज करते हुए बैंकों को आर्थिक नुकसान से बचाने के लिए कई मजबूत कदम उठा रही है लेकिन हमें इस तथ्य को तो स्वीकार करना ही होगा कि बैंकों के संदर्भ में सामने आ रहे इन बड़े घोटालों के बाद देश की तमाम बैंकिंग एजेंसियां ऋण देने के मामले में सतर्क हो गयी हंै और इस सतर्कता का सीधा असर बैंक द्वारा स्वरोजगार पैदा करने के लिए दिए जाने वाले छोटे ऋणों पर पड़ना निश्चित है। अगर ऐसा होता है तो सरकार द्वारा चलाई जा रही मुद्रा योजना समेत तमाम छोटी-बड़ी योजनाओं के संदर्भ में लोकलुभावन घोषणाओं का अपने निर्धारित लक्ष्य को छू पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है और इस परिपेक्ष्य में सरकार को मिली असफलता देश की युवा पीढ़ी के बीच भाजपा की लोकप्रियता पर ग्रहण लगा सकती है। यह ठीक है कि भाजपा के नीति निर्धारक के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक ने एक तयशुदा रणनीति के तहत महत्वाकांक्षी युवाओं के बीच अपनी पैठ बनाने का काम तेज कर दिया है और भाजपा के संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करते हुए उसके कार्यालयों को हाईटैक करने के अलावा नये कार्यकर्ताओं को जोड़ने तथा राष्ट्रीय स्तर पर चंदा एकत्र करने के साथ ही साथ नये मुद्दों की तलाश का काम तेज हो गया है लेकिन अगर अगला लोेकसभा चुनाव सरकार की उपलब्धियों व उसके द्वारा घोषित योजनाओं के क्रियान्वयन की स्थिति को आधार बनाते हुए होता है तो यह तय है कि सरकार के पास विपक्ष के सवालों का कोई जवाब नहीं होगा। ठीक इसी तरह जनपक्ष से जुड़े सवालों व भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोकपाल के गठन को लेकर अपने इरादे जाहिर कर चुके अन्ना हजारे अगर एक बार फिर आमरण अनशन पर बैठते हैं तो उनका यह आंदोलन सरकार की सेहत की दृष्टि से नुकसानदेह हो सकता है क्योंकि इन स्थितियों में सरकार व सत्ता के शीर्ष पर काबिज भाजपा के लिए यह मुश्किल होगा कि वह चुनावी मौके पर उठने वाले उन तमाम सवालों से बच जायें जो वर्तमान तक गाहे-बगाहे वाले अंदाज में विपक्ष व कुछ अन्य सामाजिक संगठनों द्वारा उठाये जाते रहे हैं लेकिन इस सबके बावजूद भाजपा के नेताओं व संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं का मानना है कि वह लोकसभा चुनावों के लिए जनता के बीच जाते-जाते इन तमाम विषयों से आम आदमी का ध्यान हटाने में कामयाब होंगे और अगला चुनाव पूरी तरह राष्ट्रवाद व मोदी सरकार द्वारा भारत को वैश्विक पटल पर पहचान दिलाये जाने के लिए किए जा रहे प्रयासों को आधार बनाकर लड़ा जायेगा। अगर ऐसा होता है तो यह तय है कि चुनावों से पूर्व जनता के बीच जाने से पहले भाजपा का प्रयास होगा कि वह उग्र हिन्दुवाद का सहारा लेकर भारतीय मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को अपने पक्ष में धु्रवीकृत करने का प्रयास करे तथा कश्मीर समेत देश के तमाम हिस्सों में सर उठा रही अलगाववाद की समस्या का ठीकरा पाकिस्तान के सर फोड़ते हुए राष्ट्रीय स्तर पर यह माहौल बनाया जाय कि पड़ोसी मुल्कों की नापाक नजरों व देश के भीतर पनप रही राष्ट्र विरोधी ताकतों पर काबू पाने के लिए मोदी एक बार और जरूरी है। यह तो वक्त ही बतायेगा कि मोदी सरकार आगामी चुनावों में किन विषयों को लेकर जनता के बीच जाने का मन बना रही है और जनता देश के प्रधानमंत्री द्वारा चुनावी मंच से दिए जाने वाले नारों व उनके भाषणों पर किस हद तक विश्वास करती है लेकिन हालात यह इशारा कर रहे हैं कि आम आदमी की मुश्किलें अभी खत्म नहीं होने वाली क्योंकि सत्ता पक्ष अथवा विपक्ष के पास आम आदमी को राहत देने के संदर्भ में कोई स्पष्ट रणनीति नहीं है।

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