छपास का रोग | Jokhim Samachar Network

Friday, April 19, 2024

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छपास का रोग

नेताओं के साथ ही साथ नौकरशाहों व अधिकारियों में भी बढ़ रही है मीडिया में छाये रहने अथवा सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की ललक।
सूचना एवं संचार के इस दौर में समाचारों के नाम पर किया जाने वाला महिमामंडन या फिर अफवाहें व भ्रांतियां फैलाने के लिए खबरों को सनसनीखेज शक्ल देकर प्रचारित करना एक आम बात हो गयी है और समाचारों के प्रसारण की दौड़ में समाचार पत्र के बाद दूसरे व सबसे तेज माध्यम के रूप में सामने आये इलैक्ट्राॅनिक चैनल की लोकप्रियता बढ़ने के बाद तो यह माना जाने लगा है कि पत्रकारों के कुछ समूह अपने फर्ज से समझौता कर कलम या फिर मीडिया की ताकत का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन यह आधा सत्य है जो जनता को दिखलाया जा रहा है और जनता भी यह समझ रही है कि कुछ अदृश्य ताकतें समाचारों के प्रचार-प्रसार से बनने वाले माहौल को अपने पक्ष में करने के लिए कई तरह के भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है। हालांकि सोशल मीडिया के इस दौर में खबरों को छुपाना आसान नहीं रह गया है और न ही यह सम्भव है कि मीडिया मैनेजमेंट के माध्यम से सब कुछ अच्छा ही अच्छा या फिर एकपक्षीय समाचार जनता के सामने प्रस्तुत किया जाय तथा जनता आसानी के साथ इस पर विश्वास कर ले लेकिन सरकारी स्तर पर इस तरह की कोशिशें ज्यादा बढ़ गयी हैं और यह मान लिया गया है कि मीडिया का काम सरकार का गुणगान करना व सरकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाना मात्र है। यहां तक तो फिर भी ठीक था और समाचार पत्रों के प्रकाशन या फिर चैनलों के प्रसारण सम्बन्धी खर्चों को पूरा करने के लिए विज्ञापनों के जरिये होने वाली आय पर निर्भर समाचार पत्रों या चैनलों के मालिकों ने पिछले कुछ वर्षों में एक हद तक हालातों से समझौता भी किया। नतीजतन समीक्षात्मक समाचार और आंकड़ों पर आधारित तर्कों की जगह जोर-जबरदस्ती के दम पर चलने वाली बहस ने ले ली तथा यह माना जाने लगा कि पत्रकार का काम सिर्फ व सिर्फ समाचारों को एकत्र कर जस का तस आगे बढ़ा देने का है लेकिन इधर पिछले कुछ अंतराल में सोशल मीडिया के प्रभावी होकर उभरने की उम्मीदों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ नये आयामों को जन्म दिया और इस माध्यम का उपयोग करने वाला हर व्यक्ति खुद को समाचार जगत का खिलाड़ी मानने लगा जिसके कारण हालातों में कई तरह के बदलाव आने की उम्मीद तो जगी लेकिन सोशल मीडिया में चर्चित होने वाली खबरों अथवा तथ्यात्मक टिप्पणियों के संदर्भ में कोई प्रभावी नियमावली न होने के कारण आयी झूठ की बाढ़ ने आम आदमी को एक बार फिर समाचारों के संकलन को लेकर विश्वसनीय व पुराने माध्यम की ओर मोड़ा तथा शक की निगाह से देखी जाने वाली तमाम खबरों अथवा चर्चाओं की प्रमाणिकता की पुष्टि के लिए आम आदमी एक बार फिर समाचार पत्रों की विश्वसनीयता पर भरोसा करता प्रतीत हुआ। वर्तमान में किसी भी खबर या संदिग्ध समाचार को लेकर होने वाली चर्चाओं में यह एक सामान्य सा सवाल हो गया है कि क्या यह अखबार में छपा है? इस मायने में देखें तो हम यह कह सकते हैं कि समाचार पत्रों को लेकर सरकार की टेढ़ी होती दिख रही दृष्टि के बावजूद सामान्य जनता के बीच अखबारों की विश्वसनीयता कायम है और कई तरह के किन्तु-परन्तु के बावजूद नेता व सरकारी तंत्र अपने से जुड़ी खबरों को समाचार पत्रों में स्थान दिलाने के लिए बेचैन दिखाई देते हैं। इसके लिए लगभग हर छोटे-बड़े नेता ने अपनी सामथ्र्य अथवा सरकार द्वारा उसे प्रदत्त किए गए बजट के हिसाब से अपना गुणगान करने व अपने कार्यक्रमों का विस्तृत ब्यौरा समाचार पत्रों के माध्यम से छपवाने के लिए मीडिया प्रभारियों की नियुक्ति की है और सरकार ने तो सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग या फिर इससे मिलते जुलते तमाम नामों से इस काम के लिए अधिकारियों की पूरी फौज जुटा रखी है लेकिन अगर भाड़े के इन टट्टुओं की सम्पूर्ण कार्यशैली व इनके द्वारा मीडिया में प्रसारित किए जाने वाले समाचारों की तथ्यात्मक आधार पर विवेचना करें तो हम पाते हैं कि समाचारों के नाम पर सरकार अथवा नेता की जय-जयकार करने वाले इन तथाकथित मीडिया प्रभारियों का पूरा ध्यान अपनी रोजी-रोटी बचाने के लिए किए जाने वाले यशोगान तक सीमित रहता है जिसका जनहित से कोई लेना-देना ही नहीं है। नेताओं, राजनैतिक दलों अथवा सत्ता के उच्च पदों पर बैठे नीति-निर्धारकों का यह व्यवहार तो एक बार के लिए समझ में आता है क्योंकि राजनैतिक दृष्टि से बार-बार जनता के बीच जाने की मजबूरी उन्हें इस तरह की कार्यशैली अपनाने या फिर दिखावे के लिए मजबूर करती है लेकिन नौकरशाहों की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है और न ही किसी सरकारी कर्मचारी अथवा अधिकारी की सेवा शर्तों में यह प्रावधान है कि जनता अथवा जनसेवक बिना किसी गंभीर आरोप के उसे तंत्र से बाहर का रास्ता दिखा सकता है किंतु इधर पिछले कुछ समय से देखने में आ रहा है कि अधिकारी भी अब नेताओं की तरह ही व्यवहार करने लगे हैं अर्थात् दूसरे शब्दों में इसे कहें तो हम यह कह सकते हैं कि नौकरशाहों में भी नेताओं वाले अन्दाज को अपनाने व छपास का रोग बढ़ता जा रहा है और वह समाचारों की सुर्खियों में बने रहने के लिए अपनी सेवा शर्तों के अनुरूप व्यवहार व कामकाज करने की जगह सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का प्रयास करने लगे हैं। हम देख रहे हैं कि पिछले कुछ अंतराल से विभिन्न जिलों के शीर्ष पदों पर तैनात अधिकारी जनचर्चाओं में बने रहने अथवा सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए स्कूलों में जाकर पढ़ाने, खेतों में फसल काटने अथवा ऐसे ही अन्य सामान्य दिनचर्या वाले कामकाज के माध्यम से समाचारों में बने रहकर सुर्खियां बटोरने का प्रयास कर रहे हैं और यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि जनता को नौकरशाहों का यह अन्दाज पसंद आ रहा है तथा किसी भी अधिकारी के स्थानान्तरण अथवा अन्य स्थिति में उसके कार्यकाल की चर्चा होने इस तरह के प्रयासों की विशेष रूप से सराहना भी की जाती है लेकिन सवाल यह है कि क्या अपनी इस तरह की शोशेबाजियों के साथ एक अधिकारी अपनी उन तमाम वृहद जिम्मेदारियों का निर्वहन कर सकता है जो संवैधानिक गुण अथवा दोष के आधार पर चलने वाले शासन अथवा सत्ता ने उन्हें सौंपी है। क्या यह ज्यादा बेहतर नहीं है कि अधिकारी द्वारा किसी एक स्कूल में पढ़ाने अथवा कक्षाएं लेने के बजाय अपने जिले की उन समस्याओं का विस्तृत रूप से आंकलन किया जाय जिनके चलते जिले के तमाम स्कूल अध्यापकविहीन हैं या फिर सरकार के आधीन आने वाली व्यवस्थाओं से जनता का विश्वास उठता जा रहा है। ठीक यही सब सार्वजनिक मंचों से गीत गाते हुए या फिर खेतों में फसल काटते हुए फोटो या वीडियो बना सोशल मीडिया में डालने वाले अथवा अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की मदद से इस तरह के कार्यक्रमों से जुड़ी खबरें प्रकाशित करवाने के लोभ पर संवरण न कर पाने वाले अधिकारियों द्वारा किया जा रहा है लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह के कृत्यों को अंजाम दे अथवा सस्ती लोकप्रियता हासिल कर शासन तंत्र को कोई फायदा पहुंचाया जा सकता है या फिर अधिकारी वर्ग इस तरह के सभी निर्माण के माध्यम से सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं को प्रभावित करने और उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास कर रहा है। प्रथम दृष्ट्या तो यही लगता है कि इस तरह की चर्चाओं का व्यापक जनहित में कोई महत्व नहीं है और न ही इससे अधिकारियों की कार्यशैली पर ही कोई प्रभाव पड़ता है। इसलिए शासन तंत्र की बागडोर संभालने वाले वरीष्ठ नौकरशाहों को चाहिए कि वह बिना वजह की जाने वाली इस तरह की कवायद पर रोक लगाये और अपने अधीनस्थों को यह सलाह दे कि वह कर्मचारी सेवा नियमावली के ही अनुरूप आचरण करे।

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