राष्ट्र निर्माण व बेरोजगारी के खिलाफ संघर्ष के लिए युवाओं को अपनाने होंगे स्वरोजगार
भाजपा के चुनावी चेहरे व देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ‘चाय पर चर्चा’ को मिली ख्याति के बाद इस बार पकौड़ा, राजनीति के केन्द्र में नजर आ रहा है और अनुभवी राजनीतिज्ञों व भाजपा के रणनीतिकारों को लग रहा है कि चाय-पकौड़े का यह तालमेल एक बार फिर विपक्ष को चारों खाने चित्त करने में सफल होगा। हालांकि बेरोजगारी के संदर्भ में दिए गए देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक बयान को देश की युवा पीढ़ी व सुशिक्षित नौजवानों से जोड़ते हुए विपक्ष ने इसे मुद्दा बनाने का प्रयास किया है और देश के विभिन्न हिस्सों में सांकेतिक रूप से खोले जा रहे पकौड़ा बिक्री केन्द्रों के माध्यम से विपक्षी नेता व इनकी युवा एवं छात्र शाखाएं प्रधानमंत्री के बयान की खिलाफत करने की कोशिश कर रही हैं लेकिन एक सामूहिक रणनीति के आभाव में विपक्ष का यह विरोध सरकार के समर्थन में ही जा रहा है और इन अस्थायी पकौड़ा बिक्री केन्द्रों में एक छोटे अंतराल के ही दौरान पकौड़ी बिक्री से एकत्र होने वाली ठीक-ठाक धनराशि यह इशारा कर रही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विचार को व्यक्त करने का तरीका भले ही गलत हो किंतु यह विचार गलत नहीं है। हालांकि यह एक बड़ा सवाल है कि अगर बेरोजगारों की एक बड़ी फौज पकौड़ा तलने में लग जाएगी तो इन्हें खाने व खरीदने वाला ग्राहक कहां से आएगा और इस पकौड़ा उद्योग में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल की उपलब्धता के स्रोत क्या होंगे लेकिन अगर इस तमाम परिपेक्ष्य को कुटीर उद्योगों से जोड़ते हुए देश के प्रधानमंत्री के नेतृत्व में चलायी जा रही मुद्रा योजना व कौशल विकास के दृष्टिकोण से देखा जाय तो प्रधानमंत्री की यह सलाह गलत मालूम नहीं होती बल्कि सही मायने में इसे पूर्ववर्ती सरकारों की कार्यशैली पर एक कटाक्ष की तरह लिया जा सकता है क्योंकि इन सरकारों के ढीले-ढाले रवैय्ये व मनमाने निर्णयों के चलते देश में जो तकनीकी व उच्च शिक्षा संस्थानों की बाढ़ सी आयी है उसने हमारी युवा पीढ़ी को पकौड़े तलने लायक भी नहीं छोड़ा है। यह ठीक है कि मोदी सरकार ने अपने चार सालों के कार्यकाल में इन संस्थानों का शिक्षा स्तर व गुणवत्ता सुधारने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है और न ही वह बैंकों को इस बात के लिए राजी कर पाये हैं कि उनके माध्यम से बेरोजगार युवाओं को बड़े पैमाने पर गारंटी मुक्त ऋण दिया जाए लेकिन इस सबके बावजूद देश में लगातार बढ़ रही बेरोजगारी के लिए मोदी सरकार को ही दोषी नहीं माना जा सकता और अगर यह माना जाए कि प्रधानमंत्री का यह बयान भावावेश या बड़बोलेपन का नतीजा न होकर एक गंभीर बयान था तो हमें यह मानकर चलना होगा कि अपनी सरकार द्वारा चलायी जा रही कौशल विकास की महत्वाकांक्षी योजना से स्वरोजगार पैदा होने की उम्मीदों ने उन्हें आशान्वित किया होगा। अगर एक बार आंकड़ों की भाषा में गौर करें तो हम पाते हैं कि नब्बे के दशक से लगभग 2006 के दशक तक भारत के तकनीकी संस्थानों से शिक्षा प्राप्त युवाओं को सम्पूर्ण वैश्विक बाजार में हाथोंहाथ लिया जाता था और यह वह दौर था जब देश के मध्यम वर्ग ही नहीं वरन् निम्न वर्ग के भी कई युवाओं ने देश-विदेश में अच्छे रोजगार प्राप्त कर अपने कैरियर की ऊंचाईयों को छुआ लेकिन इसके बाद तमाम संस्थानों से बाहर निकली युवाओं की खेप के लिए स्थितियां सुखद नहीं रहीं और वर्तमान परिस्थितियों में लाखों की धनराशि खर्च कर डिग्रियां जुटाने वाले युवाओं के सम्मुख सबसे अहम् सवाल बेरोजगारी का ही है। यह माना कि किसी भी सरकार के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह तेजी के साथ खड़ी होती दिख रही बेरोजगारों की फौज के लिए सरकारी नौकरी के साधन जुटाये और हर बेरोजगार को उसकी शिक्षा पूरी करने के साथ ही रोजगार के बेहतर संसाधन उपलब्ध कराये जाएं लेकिन अगर सरकार युवाओं को स्वरोजगार की दिशा में उत्प्रेरित करते हुए उन्हें आगे बढ़ने का एक मार्ग देना चाहती है तो इसे गलत भी नहीं कहा जा सकता और न ही विपक्ष को सरकार के इस फैसले से ऐतराज होना चाहिए। मौजूदा हालातों में यह एक बड़ा सवाल है कि सरकार अपने शीर्ष नेतृत्व के इस कथन को किस परिपेक्ष्य में लेती है तथा सरकारी योजनाओं व व्यवस्थाओं में किस हद तक बदलाव किया जा सकता है कि उच्च शिक्षा को सीधे तौर पर रोजगार से जोड़ते हुए एक नयी कार्य संस्कृति का उदय किया जाये लेकिन हम देख रहे हैं कि भारत के नौजवान स्वरोजगार को लेकर लगभग उदासीन हैं या फिर यह भी हो सकता है कि हमारी व्यवस्था में मौजूद तकनीकी खामियां एक सामान्य पृष्ठभूमि वाले परिवार को इस दिशा में सोचने ही नहीं देना चाहती। इन हालातों सरकार व विपक्षी दलों को चाहिए कि वह प्रधानमंत्री की ‘पकौड़ा बनाओ’ योजना के व्यापक परिपेक्ष्य को समझे तथा इस व्यवस्था के अनुपालन में आ रही खामियों से सरकार को अवगत कराये। विपक्ष का कर्तव्य है कि वह शासनतंत्र की खामियों और उसकी गलतबयानी को जनपक्ष के समक्ष बेनकाब करे तथा सरकार द्वारा चलायी जाने वाली योजनाओं में परिलक्षित होने वाली कमियों से सरकार को भी अवगत कराये लेकिन यह अफसोसजनक विषय है कि देश के तमाम विपक्षी राजनैतिक दल सिर्फ विरोध की राजनीति कर रहे हैं और उन्हें युवाओं व देश के भविष्य की कोई चिंता नहीं है। यह एक बड़ा सवाल है कि अगर देश की युवा पीढ़ी, छात्र और बेरोजगार देश के प्रधानमंत्री की पकौड़ा बनाओ योजना से सहमत नहीं हंै तो विभिन्न छात्र संगठनों व युवाओं के सामाजिक संगठनों द्वारा प्रधानमंत्री के इस बयान का वैसा विरोध क्यों नहीं हो रहा जैसा कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह का आरक्षण के संदर्भ में मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के फैसले का हुआ था और देश के समस्त शिक्षण संस्थान जो अपने छात्रों को रोजगार दिला पाने वाली शिक्षा देने में असमर्थ साबित हो चुके हैं वह एक झटके में यह क्यों नहीं कह पा रहे कि उनकी अकर्मण्यता के चलते उन्हें तत्काल प्रभाव से बंद कर दिया जाना चाहिए। रहा सवाल पकौड़े का तो इसे स्वरोजगार की दिशा में एक सांकेतिक शब्द की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है और देश के प्रधानमंत्री को जनता के बीच यह स्पष्ट करना चाहिए कि उन्होंने नयी पीढ़ी को पकौड़ा बनाने के धंधे या स्वरोजगार की दिशा में लगाने के लिए क्या-क्या प्रावधान किए हैं। अफसोसजनक है कि इस परिपेक्ष्य में किए गए बजटीय प्रावधानों की चर्चा के लिए तैनात सदन में इन विषयों को लेकर कोई चर्चा नहीं है और विपक्ष आधी-अधूरी तैयारी के साथ अपने कुछ पूर्णकालिक राजनीतिज्ञों की सहायता से सड़क के किनारे पकौड़े तलकर प्रधानमंत्री के इस बयान का सांकेतिक विरोध करने में जुटा है जिसका सरकार अथवा तंत्र पर कोई विशेष प्रभाव पड़ता नहीं दिख रहा। हालांकि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकार द्वारा पूर्व में लिए गए नोटबंदी व जीएसटी जैसे फैसलों के बाद देश में बेरोजगारी एवं आर्थिक मंदी बढ़ी है तथा कई पुराने उद्योगों व चलते हुए नजर आने वाले काम-धंधों में हुई छटनी के चलते रोजगार के संसाधन सीमित होते नजर आ रहे हैं लेकिन इस समस्या का समाधान क्या है और वह कौन से तरीके हैं जिन पर अमल कर वर्तमान सरकार या फिर चुनावों के बाद राजसत्ता पर काबिज होने वाली सरकार बेरोजगारों की इस फौज के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान ला सकती है, इन विषयों पर चर्चा के लिए कोई तैयार नहीं है और न ही देश की बेरोजगारी एक बड़ी समस्या के रूप में चुनावी मुद्दा बन पायी है। देश के प्रधानमंत्री ने अपनी पकौड़ा नीति के बहाने इस बढ़ी समस्या की ओर देश की जनता एवं विपक्ष का ध्यान खींचने का प्रयास किया था और विपक्ष के पास यह एक बड़ा मौका था जिसका फायदा उठाते हुए सरकार को घेरा जा सकता था लेकिन इसे भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि यहां गंभीर विषयों को व्यापक जनचर्चा का विषय बनाने के स्थान पर विपक्ष भावनात्मक मुद्दों की तलाश में रहता है और कोई भी राजनैतिक दल बेकारी की समस्या के स्थायी समाधान की ओर नहीं बढ़ना चाहता। नतीजतन बेरोजगार व पढ़े-लिखे युवाओं की फौज लगातार बढ़ती जा रही है और राष्ट्र निर्माण के लिए संकल्परत् इस युवा शक्ति के गलत तरीके से इस्तेमाल के चलते हमारी अर्थव्यवस्था को दोहरा नुकसान होता दिखाई दे रहा है।