सत्ता पर कब्जेदारी का अर्थ राजनैतिक लोकप्रियता या व्यापक जनस्वीकार्यता तो कदापि नहीं
भारतीय राजनीति को प्रभावित करने वाले कई कारणों में से एक भ्रष्टाचार की राष्ट्रीय राजनैतिक परिपेक्ष्य में सरकारें बनाने व बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि सत्ता के समीकरणों में जब-जब महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है तो उसमें राजनैतिक भ्रष्टाचार पर चर्चा व सत्ता पक्ष पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हालांकि केन्द्रीय सत्ता पर काबिज राजनैतिक विचारधारा भ्रष्टाचार के इस राष्ट्रीय स्वरूप के लिए लम्बे समय तक सत्ता पर काबिज कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराती रही है और भाजपा के नेताओं के इन बयानों से उत्साहित जनता द्वारा लोकसभा चुनावों के अलावा विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों व अन्य छोटे चुनावों में भाजपा के पक्ष में किया गया मतदान इस परिपेक्ष्य में भाजपा द्वारा किए गए प्रचार पर मूक सहमति की मोहर लगाता भी महसूस होता है लेकिन केन्द्रीय सत्ता पर कब्जेदारी के इन चार वर्षों तथा विभिन्न राज्यों की सत्ता हासिल करने के बाद सरकारी स्तर पर आ रहे राजनैतिक बयान यह साबित करते हैं कि अपनी घोषणाओं व नारों के अनुरूप भाजपा भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश लगाने में नाकाम रही है और अगले लोकसभा चुनावों के लिए जनता के बीच जाते वक्त भी वह देश को इस भुलावे में रखना चाहती है कि आर्थिक भ्रष्टाचार से जुड़े कई मामलों के खुलासे के बावजूद दोषी नेताओं व उद्योगपतियों को जेल भेजने में उसकी नाकामी की असल वजह पिछली सरकार की कार्यशैली ही है। विभिन्न कारणों से सामने आ रहे आर्थिक भ्रष्टाचार के मामलों में दोषियों के खिलाफ प्रभावी कार्यवाही करने से बचती या चूकती भाजपा जनता को यह बताने में भी असमर्थ है कि उसने किन कारणों के चलते पूर्व के आरोपित नेताओं को अपनी पार्टी में जगह देकर महत्वपूर्ण दायित्वों से नवाजा है या फिर वर्तमान सरकार पर लगने वाले कुछ उद्योगपति घरानों को विशेष शह देने के आरोपों के पीछे असल वजह क्या है और सत्ता पक्ष के समक्ष वह कौन सी मजबूरियां हैं जिनके चलते बड़े बैंक घोटालों को अंजाम देने वाले उद्योगपति समूहों के साथ नरमी बरती जा रही है। हालांकि अपने राजनैतिक अभिभाषणों के दौरान नोटबंदी को आर्थिक भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों का मजबूत पक्ष घोषित करने वाला सत्ता पक्ष अपने तर्कों व तथ्यों के आधार पर यह साबित करने में नाकाम रहा है कि राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती दिख रही बेरोजगारी व तेजी से कम होती दिख रही विकास दर पर काबू पाने के लिए उसकी आगामी रणनीति में किन विषयों को समाहित किया गया है और सरकार की शक भरी नीयत के साथ जारी किए जाने वाले तमाम प्रावधानों से आम जनता को हो रहे नुकसान की भरपाई के लिए उसने क्या इंतजाम किए हैं लेकिन किसानों की आर्थिक आय दोगुनी या डेढ़ गुनी कर देने की लोकलुभावन घोषणाओं व रोजगार के नये संसाधन जोड़ने की फर्जी घोषणाओं के जरिये सरकारी स्तर पर मतदाताओं को दिगभ्रमित करने क्रम जारी है। यह माना कि वर्तमान सरकार पर आर्थिक भ्रष्टाचार के बड़े मामले नहीं हैं और खुद को फकीर कहने वाले देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की निजी सम्पत्तियों में बढ़ोत्तरी का कोई ब्योरा उपलब्ध करा पाने में विपक्ष नाकाम रहा है लेकिन सत्ता पक्ष के मजबूत नेता व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के पुत्र की सम्पत्ति में रातों-रात वाले अन्दाज में हुई बढ़ोत्तरी पर सरकार मौन है और राफेल सौदे पर उठाए जा रहे सवालों को लेकर देश के प्रधानमंत्री द्वारा धारण किया गया मौन सरकार को संदिग्ध बना देता है। तमाम तरह की आधुनिक सुख-सुविधाओं से सुसज्जित भाजपा का राष्ट्रीय कार्यालय तथा इसी तर्ज पर देश के तमाम हिस्सों में जिला व राज्य स्तरीय हाईटैक कार्यालय बनाने की भाजपाई कोशिश यह साबित करती है कि अपनी पार्टी को मिलने वाले राजनैतिक चंदे को वैधानिक रूप देने की कोशिशों के बावजूद भाजपा के भीतर सब कुछ इतना उजला नहीं है जितना कि साबित करने की कोशिश की जा रही है और विभिन्न राज्यों की सत्ता के शीर्ष पर कब्जेदारी व अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए भाजपा के कुछ नेताओं द्वारा अपनाये जा रहे हथकंडे यह भी साबित करते हैं कि इस राजनैतिक दल की कथनी व करनी में बड़ा फर्क है लेकिन इस सबके बावजूद भाजपा के नेता व उनके नेतृत्व में चलने वाली केन्द्र व विभिन्न राज्यों की सरकार यह साबित करने में जुटी है कि इन पिछले चार वर्षों में सत्तापक्ष उन गड्ढों को भर रहा है जो खाईयों के रूप में पिछली सरकारों व उनका नेतृत्व करने वाले राजनैतिक दलों द्वारा खोदे गए हैं और मोदी भक्त के रूप में भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने में जुटे संघ व उसके अनुषांगिक संगठनों से जुड़े कार्यकर्ता अपने पक्ष के समर्थन में तर्क व तथ्य दे पाने में असफल होने पर गाली-गलौच व धमकाने वाले अन्दाज से परहेज नहीं कर रहे। उनकी नजर में मोदी की कार्यशैली का निन्दक, राष्ट्र का निन्दक है और देश की जनता के बीच से चुने गए प्रधानमंत्री से देश की जनता को सवाल पूछने का कोई हक नहीं है या फिर यह भी कह सकते हैं कि समय-समय पर अपने ‘मन की बात’ करने वाले देश के प्रधानमंत्री को जनता के मन थाह लेने की फुर्सत ही नहीं है क्योंकि राष्ट्रीय हित में वह अपने विदेश दौरों व अन्य कार्यक्रमों में इतने व्यस्त हैं कि चुनाव से पूर्व किए गए अपने वादे व चुनावी सभाओं के दौरान जोर-शोर से लगाए गए नारे अब उन्हें याद ही नहीं हैं। इतनी कमजोर स्मरणशक्ति के साथ सारे देश का राज-काज सम्भाल रहे प्रधानमंत्री जब देश की जनता व पढ़ी-लिखी युवा पीढ़ी को बेरोजगारी से लड़ने के लिए पकौड़े बनाने की सलाह देते हैं तो लगता है कि अब वाकई अच्छे दिन आने वाले हैं और इन अच्छे दिनों में तलाश में अपने बैंक खातों की ओर रूख करने वाला आम आदमी जब यह देखता है कि बैंकों से मोटी-मोटी धनराशि का गबन कर विदेशों की ओर गमन कर रहे भ्रष्ट व्यापारियों व पूंजीपतियों के सीधे संबंध देश के प्रधानमंत्री व सत्ता पक्ष के नेताओं से हैं तो वह सन्न रह जाता है लेकिन राजनीति में विकल्पहीनता की स्थिति है और जनता वही सब कुछ देखने को मजबूर है जो उसे दिखाया जा रहा है। लिहाजा सामाजिक स्तर पर चल रही उठापटक तथा इसके आम आदमी पर पड़ने वाले प्रभाव के स्थान पर जनता को यह समझाया जा रहा है कि देश को सुरक्षित रखने के लिए हिन्दुत्व को सुरक्षित रखना जरूरी है और तेजी से बढ़ रही मुस्लिमों की आबादी का मुकाबला करने के लिए यह जरूरी है कि हर हिन्दू परिवार अन्य जरूरी कामकाज छोड़कर बच्चे पैदा करने में जुट जाए लेकिन इन नवआगंतुकों के लिए बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की जिम्मेदारी किसकी होगी तथा तेजी से बढ़ रही देश की आबादी को सीमित संसाधनों वाले हिन्दुस्तान में सर्व सुख सम्पन्न बनाने के लिए सरकार किन नई योजनाओं पर विचार कर रही है, यह बताने को कोई तैयार नहीं है। आश्चर्य का विषय है कि हमारे प्रधानमंत्री पूरी दुनिया के देशों के चक्कर लगाने में मशगूल हैं और उनकी हर यात्रा के बाद हमें बताया जाता है कि भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि को चमकाने व अपने देश को विश्वगुरू के रूप में स्थापित करने के लिए इस तरह के सतत् प्रयास जरूरी हैं लेकिन अगर वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि इन पिछले चार वर्षों में भारत न सिर्फ हर पायदान पर नीचे खिसकता महसूस हो रहा है बल्कि अपने निकटवर्ती पड़ोसियों नेपाल, बंग्लादेश, मालद्वीप, भूटान आदि के साथ भी उसके संबंधों में तल्खी आयी है क्योंकि भारत की बदली विदेश नीति के चलते इन तमाम मुल्कों के राष्ट्राध्यक्ष न सिर्फ राजनैयिक तौर पर भारत से दूर हुए हैं बल्कि भारत को रणनैतिक रूप से घेरने में सफल दिख रहा चीन भारत के लगभग सभी पड़ोसी मुल्कों के साथ सैन्य संबंध बनाने व वहां अपनी सैन्य गतिविधियों को बढ़ावा देने में कामयाब रहा है जबकि हम पाकिस्तान के नक्शे कदम पर आगे बढ़ते हुए अपने सैन्य प्रमुखों को राजनैतिक बयानबाजी के लिए उकसा रहे हैं और देश की जनता को वोट-बैंक के तौर पर बांधे रखने के लिए हमें फर्जी सैन्य कार्यवाहियों को जनता के बीच दिखाने या फिर झूठे आंकड़े जनता के बीच रखने में कोई हर्ज नहीं दिखता। भारतीय राजनीति की यह खासियत रही है कि यहां सरकार भले ही किसी भी दल की रही हो लेकिन नेताओं व विभिन्न राजनैतिक दलों से जुड़े कार्यकर्ताओं ने सत्ता के शीर्ष पदों पर काबिज राजनीतिज्ञों व विपक्ष के नेताओं का सम्मान हमेशा कायम रखा है और देश की आजादी की जंग में भागीदारी करने वाले हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को हर मंच पर सम्मान के योग्य माना गया है किंतु इन पिछले चार-पांच वर्षों में एक सुनियोजित रणनीति के तहत न सिर्फ नेताओं की मजाक बनाने की परम्परा विकसित हुई है बल्कि कुछ तथ्यहीन आलेखों व मनगणंत तथ्यों के आधार पर राष्ट्र निर्माण के प्रमुख किरदारों पर कीचड़ उछालने का काम बड़ी तत्परता से किया गया है। नतीजतन वर्तमान में सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं के बयानों व तर्कों पर कोई भरोसा करके राजी नहीं है और यह शायद पहला अवसर है जब लालकिले की प्राचीर से देश के प्रधानमंत्री की तकरीर के बाद हजारों-लाखों की तादाद में लोग उन तर्कों व तथ्यों को गूगल पर सर्च कर पुष्टि करते पाए गए जिनकी घोषणा प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान की गयी थी। यह अविश्वास भरा माहौल लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के नजरिये से ठीक नहीं कहा जा सकता और न ही इस तर्क को स्वीकार किया जा सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के तहत लोकप्रियता का एकमात्र अर्थ चुनावी जीत व सरकार बनाने तक सीमित है लेकिन कुछ लोग देश की जनता से जबरिया यह कबुलवाना चाहते हैं कि मोदी इस सदी के सबसे बेहतर प्रधानमंत्री हैं।