साजिशों के बीच | Jokhim Samachar Network

Thursday, April 18, 2024

Select your Top Menu from wp menus

साजिशों के बीच

तथाकथित रूप से आपत्तिजनक साहित्य व खतरनाक कहीं जा रही चिट्ठियों से है देश के प्रधानमंत्री को जान का खतरा।
ताजा़तरीन खबरो पर अगर यकीन किया जाऐ तो ऐसा प्रतीत होता है कि दूरस्थ ग्रामीण इलाको एंव वनवासी क्षेत्रो तक अपनी धमक रखने वाले नक्सलवादी व माओवादी लड़ाकों ने अब न सिर्फ शहरी इलाको व महानगरों में अपनी पैठ बना ली है बल्कि इनका दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि यह देश के प्रधानमंत्री तक पर आत्मघाती हमला करने की साज़िश रच रहे है। हाॅलाकि प्रधानमन्त्री पर आत्मघाती हमले की सम्भावना या साज़िश को उजागर करने वाले सूूत्र कौन से है और इस सदंर्भ में कुछ संदिग्ध माओवादियों की गिरफ्तारी व उनके लैपटाॅप से बरामद कुछ पत्रो के अलावा खुफिया विभाग को कैान से सबूत मिले है, इन तमाम परिपेक्ष्यों में सरकारी ऐजेन्सियाॅ पूरी तरह मौन है लेकिन यह माना जा रहा है कि आने वाले समय में माओवाद या नक्सलवाद के नाम पर की जाने वाली गिरफ्तारियों की संख्या में तेज़ी आ सकती है और सरकार के इस खुलासे के बाद विभिन्न स्तरो पर सरकार विरोधी आन्दोलनों को हवा दे रहे राजनैतिक या सामाजिक कार्यकर्ताओं के दमन की राह आसान हो सकती है। यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि श्रमिक वर्ग के हितो के लिऐ काम करने वाले तमाम गैैर राजनैतिक संगठनो व मजदूरो या किसानो के अधिकारो की बात करने वाले जनवादी विचारको को अधिकांशतः वामपंथी विचारधारा के नजदीक माना जाता है तथा देश भर में होने वाली हिसंक झड़पो के अलावा शहरी अथवा कस्बाई क्षे़त्रो में माओवाद अथवा नक्सलवाद के नाम पर जितनी भी गिरफ्तारियाॅ होती है उनमें से अधिकांश तथाकथित अपराधी चेहरे या तो स्थानीय स्तर पर कारखानो में हाने वाले मजदूर आन्दोलनो से जुड़े होते है या फिर जनता के सहयोग से किये जाने वाले जनान्दोलनो में इनकी अहम् भागीदारी होती है। कोई भी सरकार या व्यवस्था यह नही चाहती कि जनता उसके द्वारा लिये जा रहे फैसलो अथवा सरकार की नीतियों पर सवाल उठाये और उदारवादी व्यवस्था को अंगीकार करने के बाद तो कारखानेदारों को सरंक्षण देने के नाम पर मजदूर आन्दोलनों को कुचलना सरकार की मजबूरी बन गया है। इन हालातो में श्रमिक वर्ग के हितो की बात करने वाली जनवादी ताकतो को माओवाद या नक्सलवाद के नाम पर गिरफ्तार करना तथा इन पर राष्ट्रद्रोह के मुकदमें लगाकर इन्हे लम्बे समय तक जेल के सींकचो के पीछे डाल देना सरकार के लिऐ सबसे आसान है लेकिन पिछले कुछ अन्तराल में किसानो के बीच बड़ी आत्महत्या की वारदातों से आक्रोशित किसान संगठनो द्वारा एक नियोजित अन्दाज़ में सरकार की नीतियों का विरोध किया जा रहा है और आगामी लोकसभा चुनावों को मद्देनज़र रखते हुऐ समुचे विपक्ष का एक बड़ा हिस्सा भी किसानो के इस आन्दोलन को समर्थन देते हुऐ सरकार की घेराबन्दी करने व उसे असफल साबित करने का प्रयास कर रहा है। इन हालातों में सरकार की मजबूरी है कि वह लगातार तेज़ व उग्र होते जा रहे इस आन्दोलन को तोड़ने के लिऐ कुछ सुरक्षात्मक कदम उठाये तथा विभिन्न मोर्चो व किसान संगठनो को एक मंच पर लाकर इस आन्दोलन को वृहद रूप देने का प्रयास कर रही जनवादी ताकतो को अलग-थलग करने के लिऐ उनपर संगीन आरोप लगा उन्हे जेल की चारदिवारी के पीछे डाल दिया जाये। सरकार इस तथ्य से भी अनिभिज्ञ नही है कि अगर वह सीधे तौर पर मजदूरो अथवा किसानो के आन्दोलनो को तोड़ने का प्रयास करती है तथा उसके लिऐ सख्त कानूनी करवाही अथवा लाठी-डण्डे का सहारा लिया जाता है तो जनता के बीच आक्रोश भड़कना सम्भावित है जबकि छदम्  राष्ट्रवाद की आड़ में आन्दोलनकारी विचारधारा व नेतृत्व को राष्ट्रदोही का तमगा देकर किसी भी आन्दोलन को तोड़ना या फिर सर्वहारा वर्ग के बीच डर पैदा करना आसान है। लिहाजा़ मजदूरो, किसानो व सर्वहारा वर्ग से जुड़े अन्य आन्दोलनो को माओवादी या नक्सलवादी साज़िश का तमगा देकर इन आन्दोलनों से जुड़ी जनवादी विचारधारा को भाकपा (माओवादी) के अर्बन माॅडयूल के विस्तार का दर्जा देकर सरकार के विरोध में उठने वाली आवाजो का गला घोटने की साजिशें की जा रही है। सरकारी तन्त्र यह महसूस कर रहा है कि सरकार की गलत नीतियों व मनमाने अन्दाज़ में लिये गये फैसलो के चलते जनता के बीच सरकार की कार्यशैली को लेकर नाराज़ी बढ़ी है और बेरोज़गारी,महॅगाई, बेकारी व भ्रष्टाचार की मार से त्रस्त आम आदमी सरकार के खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ के साथ बढ़-चढ़कर सुर से सुर मिला रहा है। इन हालातों में सत्ता के शीर्ष पर विराजमान नेताओ को यह महसूस हो रहा है कि वह भावात्मक मुद्दो को उभारकर ही आगामी चुनावों में अपनी यथास्थिति कायम रख सकते है। लिहाजा़ एक तीर से कई शिकार करने वाले अन्दाज़ में देश के प्रधानमंत्री की जान को खतरें में बता ताबड़तोड़ गिरफ्तारियों के ज़रिये जनान्दोलनों का गला घोटने की पटकथा लिख दी गयी है और ऐसा माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है कि मानो मोदी राज को राजनैतिक शिकस्त देने में असमर्थ समुचा विपक्ष अब खून-खराबे के ज़रिये सत्ता को कब्जा़ना चाहता है। यह हो सकता है कि एक बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था के जिम्मेदार पद पर विराजित हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी कुछ अतिवादी संगठनो के निशाने पर हो और देश को आंतक व गृहयुद्ध की आग में झोंकने की मंशा रखने वाली कुछ अराजक ताकते वाकपटुता के धनी इस नेतृत्व का मुुॅह हमेशा के लिऐ बन्द करना चाहती हो लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे देश की आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था इतनी ज्यादा चरमरा गयी है कि एक लैपटाॅप से बरामद कुछ तथाकथित पत्रो मात्र से देश के प्रधानमन्त्री की जान को खतरा हो सकता है या फिर यह सब मौजूदा दौर की ज्वलन्त समस्याओं व जनान्दोलनो से आम आदमी का ध्यान हटाने की एक साजिश मात्र है और सरकार को यह लगता है कि इस तरीके का इस्तेमाल कर वह न सिर्फ जनता की सहानुभूति प्राप्त कर सकती है बल्कि माओवाद व नक्सलवाद के नाम पर सरकार की नीतियों व फैसलो के खिलाफ आवाज़ उठा रही जनवादी ताकतों को भी आसानी से कुचला जा सकता है। यह माना कि इस सदंर्भ में गुप्तचर ऐजेन्सियों द्वारा की गयी तहकीकात के नतीजो को पूरी तरह गलत नही ठहराया जा सकता और श्रमिक आन्दोलन अथवा जनाक्रोश की आड़ में अपना जनाधार बढाने की कोशिश कर रही नक्सलवादी विचारधारा को भी पूरी तरह नकारा नही जा सकता है लेेकिन कम्प्यूटर व कागज पर काम करने वाले कुछ तर्कजीवी विचारको की बिना हथियार व गोला बारूद के हुई गिरफ्तारी के आधार पर हम अगर यह मान ले कि दुनिया की सबसे बड़ी संवेधानिक व्यवस्था का शीर्ष नेतृत्व जो कि हर वक्त विभिन्न चक्रो की सुरक्षा व्यवस्था से घिरा रहता है, इस वक्त खतरे में है तो यह हमारे पूरे तन्त्र की हार होगी और किसी चुनावी जीत अथवा जनता की सद्भावनाऐं हासिल करने मात्र के लिये आज़मायें जा रहे इस तरीके को किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नही किया जा सकता है। हमने देखा और महसूस किया है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के रूप में सत्ता के शीर्ष पर कब्जेदारी से पूर्व व काबिज होने के बाद भी नरेन्द्र मोदी ने अपनी बातो, भाषणो व नारो के मायाजाल में आम आदमी को खूब उलझाया है और विभिन्न चुनावी मंचो से इधर- उधर की बातें व कोरी घोषणाऐं कर वह जनता को अपने पक्ष में करने में कामयाब भी रहे है लेकिन इधर पिछले कुछ अन्तराल में विपक्ष की एकजुटता के चलते जनपक्ष की ओर से उनकी कार्यशैली व सरकार के मौजूदा कार्यकाल पर दागे जा रहे तमाम सवालो का उनके व उनकी विचारधारा से जुड़े राजनैतिक दल के पास कोई जबाव नही है। लिहाजा़ ऐसा प्रतीत होता है कि जनपक्ष के सवालो से बचने के लिऐ एक बार फिर भारतीय जनमानस की उदार प्रवृत्ति व संवेदनलशीलता को ही निशाने पर लेने की साज़िशे शुरू हो गयी है और माओवाद व नक्सलवाद के नाम पर सरकार के विरोध में उठने वाले सुरो को ठण्डा करने या जेल की काल कोठरी के पीछे धकेलने की रणनीति के साथ ही साथ इस पूरे घटनाक्रम को भाजपा के पक्ष में करने के लिऐ एक बड़े खेल की सम्भावनाओं से इनकार नही किया जा सकता । इन पिछले चार वर्षो में तमाम संवेधानिक निकायों का अपनी मनमर्जी से इस्तेमाल करते रहे नरेन्द्र मोदी यह अच्छी तरह जानते है कि राजनीति के खेल में कब और किस तरह व किन मुद्दो को हवा दी जानी है तथा विज्ञापन व अन्य सरकारी उत्कोचों के दम पर खरीदे गये मीडिया की मदद से किस तरह की खबरों को समाज के बीच प्रकाशित व प्रसारित कर जन सामान्य का भावनात्मक दोहन किया जाना आसान है। लिहाजा़ प्रधानमन्त्री पर हमले की साज़िश से जुड़ी खबरों व तथ्यों के मनगणन्त होने अथवा इस तरह की कोशिशेां के ज़रिये वर्तमान दौर की ज्वलन्त समस्याओं से आम आदमी का ध्यान हटाने की सम्भावनाओं से इनकार नही किया जा सकता और न ही यह माना जा सकता है कि सर्वसाधन सम्पन्न राष्ट्र का प्रधानमन्त्री व उसका सुरक्षा चक्र इतना गया-गुज़रा है कि कोई भी एैरा- गैरा बिना आन्तरिक मदद के इसे भेद सके। इन हालातों में यह एक गम्भीर सवाल है कि क्या सरकार यह महसूस कर रही है कि माओवादी या नक्सलवादी विचारधारा उसकी आन्तरिक व्यवस्था में सेध लगा चुकी है या फिर जनसामान्य के बीच सरकार का जुर्मो सितम व संसाधनो की लूट का खेल इतना बढ़ गया है कि उसे हर आमो खास की माओवाद या नक्सलवाद से मिलीभगत की चिन्ता सताने लगी हैं।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *