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Thursday, March 28, 2024

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बेपरवाह अन्दाज में

केन्द्र सरकार ने सदन पटल पर चर्चा के लिए रखा वित्तीय वर्ष 2018-19 का आम बजट
केन्द्र सरकार द्वारा अपना तथाकथित रूप से लोकलुभावन बजट सदन के पटल पर रख दिया गया है और राष्ट्रपति के अभिभाषणों के अनुरूप यह माना जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए यह इस सरकार का अंतिम पूर्ण बजट होगा। अपने इस बजट के माध्यम से सरकार ने किसानों व गरीब वर्ग को लेकर विशेष चिंता व्यक्त है जबकि मध्यम वर्ग को दी जाने वाली सुविधाओं व टैक्स कटौती को लेकर यह बजट मौन दिखता है। ठीक इसी प्रकार राष्ट्रपति के बजट भाषण व वित्त मंत्री जेटली को सुनने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार अपने इस बजट के माध्यम से रोजगार के नये संसाधन पैदा करने के लिए वचनबद्ध है और आगामी वित्तीय वर्ष में सत्तर लाख नये लोगों को रोजगार से जोड़ने की बात भी वित्त मंत्री ने की है लेकिन सरकारी नौकरियों के क्षेत्र में लगातार कम हो रहे अवसरों व नोटबंदी या जीएसटी लागू होने के बाद बाजार में छायी मंदी को देखते हुए यह चमत्कार कैसे होगा, वित्त मंत्री का बजट भाषण इस तथ्य पर प्रकाश नहीं डालता। हालांकि सरकार किसी भी कीमत पर यह मानकर राजी नहीं है कि नोटबंदी या जीएसटी के संदर्भ में लिए गए उसके फैसले के बाद बाजार में मंदी का माहौल है और निजी क्षेत्र में कार्यरत् कर्मचारियों व दिहाड़ी मजदूरों को रोजाना के हिसाब से नई दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है लेकिन अगर आंकड़ों की भाषा में बात करें तो यह स्पष्ट है कि तेजी से बढ़ती पेट्रोल की कीमत, काबू से बाहर होती दिख रही महंगाई और कामधंधे व सही शिक्षा के आभाव में नेताओं व राजनैतिक दलों द्वारा हथियारों की तरह इस्तेमाल किए जाते युवा इस बात का सबूत हैं कि सरकार अपने पिछले फैसलों के माध्यम से हालातों पर काबू पाने में नाकाम रही है। यह माना कि भाजपा के नेताओं और सरकार को यह लगता है कि देश की अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंचाने वाला नोटबंदी व जीएसटी लागू किए जाने का फैसला ऐतिहासिक और उत्सव मनाने योग्य अवसर है तथा सरकार अपने इन चार सालों के कार्यकाल में पूरी तरह ईमानदार साबित हुई है लेकिन अगर आम आदमी के नजरिये से देखें तो उसे अच्छे दिन दूर-दूर तक दिखाई ही नहीं दे रहे और न ही अभी वर्तमान सरकार के कार्यों की समीक्षा का दौर ही शुरू हुआ है जो कि सरकार की ईमानदारी या बेईमानी प्रमाणित की जा सके। हां इतना जरूर कहा जा सकता है कि सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों के चलते जिस तरह कुछ लोगों की पूंजी में एकाएक ही इजाफा हुआ है या फिर तमाम छोटे-छोटे रोजगार के संसाधन बंद कर बड़े पूंजीपति वर्ग को फायदा पहुंचाने की दिशा में सरकार काम करती दिखाई दे रही है, उसे देखते हुए आसानी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मौजूदा सरकार व इसे चलाने वाली विचारधारा सर्वहारा वर्ग को लेकर चिंतित नहीं है। जहां तक किसानों की आय बढ़ाकर दुगनी करने अथवा फसलों का न्यूनतम् समर्थन मूल्य लागत का डेढ़ गुना करने का सवाल है तो सरकार द्वारा प्रस्तुत किए गए बजट में इस संदर्भ में धन का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं दिखता और न ही सरकार अभी तक यह स्पष्ट कर पायी है कि उपरोक्त संदर्भ में सरकार की कार्य योजना क्या है या फिर वह किसानों की उपज को लेकर मोटा लाभ कमाने वाले धंधेबाजों व जमाखोरी के खिलाफ कौन से नये कदम उठाने जा रही है। हमने हमेशा ही देखा है कि किसान को उसकी फसल का पूरा मूल्य नहीं मिल पाता क्योंकि सीजन के दौरान इनकी खरीद-फरोख्त करने वाले व्यापारी व जमाखोर अपनी जरूरत व बाजार की मांग को देखते हुए इनकी कीमत तय करते हैं और अगर किसानों की कुछ फसलों का न्यूनतम् मूल्य निर्धारण कर अथवा फसलों का बीमा कर सरकार उसे आर्थिक सुरक्षा देने का प्रयास करती भी है तो सरकार द्वारा अनुमानित इस लागत मूल्य में किसान के श्रम की कीमत व भूमि का मुआवजा नहीं जुड़ा होता। ठीक इसी प्रकार किसान को मिलने वाले बीजों, खाद, पानी व अन्य व्यवस्थागत् इंतजामों में भी बाजार भाव व सरकार द्वारा अनुमानित कीमत के क्रम में जमीन आसमान का फर्क होता है और सरकार द्वारा की जाने वाली तमाम तरह की घोषणाओं व योजनाओं के बावजूद किसान कर्ज के जाल में फंसता अथवा कर्ज न चुका पाने की स्थिति में आत्महत्या के लिए मजबूर दिखाई देता है। अगर सरकार वाकई में किसानों की आर्थिक दशा सुधारने के संदर्भ में विचार कर रही होती तो उसे देश के ग्रामीण इलाकों में खेती व किसानी के साथ ही साथ तमाम तरह के छोटे व कृषि पर आधारित कुटीर उद्योगों को बढ़ाने व इस तरह प्राप्त उत्पादों को एक नया बाजार देने का प्रावधान अपने बजट के माध्यम से करना चाहिए था लेकिन सरकार इस विषय में न सिर्फ पूरी तरह खामोश दिखाई देती है बल्कि अगर सरकार की योजनाओं पर गौर किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि देश में एफडीआई लागू करने का फैसला ले चुकी सरकारी व्यवस्था अब कृषि क्षेत्र में पूंजी निवेश के नाम पर खेती योग्य जमीनों को कार्पोरेट सेक्टर के हाथों गिरवी रखने की दिशा में आगे बढ़ रही है और अगर ऐसा होता है तो यकीन जानिये कि भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भुखमरी व बेकारी की समस्या की ओर बढ़ रहा है। अब अगर एक बार फिर सरकार द्वारा किए गए बजटीय प्रावधानों की ओर रूख करें तो हम पाते हैं कि सरकार ने अपनी दूसरी बड़ी उपलब्धि के रूप में देश की अधिसंख्य आबादी के एक बड़े हिस्से को स्वास्थ्य बीमा योजनाओं का लाभ देने की घोषणा की है और इस मद में ठीक-ठाक धनराशि स्वीकृत करने का जिक्र भी बजट के माध्यम से किया गया है लेकिन सवाल यह है कि जब सरकार के पास पूरे देश में चिकित्सकीय व्यवस्था देने के लिए एक मजबूत ढांचा व सरकारी अस्पतालों की श्रृंखला मौजूद है तो फिर सरकार इसी माध्यम से आगे बढ़कर जनता को व्यापक जनसुविधाएं प्रदान क्यों नहीं करना चाहती और वह कौन सी वजहें हैं जिनके चलते मौजूदा सरकार की यह मजबूरी बन आयी है कि वह आम आदमी को स्वास्थ्य सुरक्षा बीमा देने के नाम पर मोटी रकम खर्च करे तथा फिर इस रकम का एक बड़ा हिस्सा इलाज के रूप में निजी अस्पतालों को दिया जाये। यह माना कि सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों व अन्य कर्मचारियों का आभाव है तथा यहां हमेशा ही बनी रहने वाली अव्यवस्था, गंदगी और लापरवाही के चलते गरीब से गरीब आदमी भी सामान्य परिस्थितियों में इन अस्पतालों की ओर रूख नहीं करना चाहता लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार ने बजट के माध्यम से प्रावधान की गयी बीमा की इस मोटी रकम का इस्तेमाल अपनी इस पुरानी मशीनरी को सुधारने में नहीं करना चाहिए था और अगर सरकार को यह महसूस होता है कि देश में सुशिक्षित चिकित्सकों की कमी है तो इसके लिए उसे नये मेडिकल कालेजों की स्थापना के साथ तमाम अन्य अवस्थापना सुविधाएं जुटाने की ओर आगे बढ़ना चाहिए था किंतु मौजूदा सरकार की रणनीति से पूरी तरह यह स्पष्ट होता दिख रहा है कि वह शिक्षा और स्वास्थ्य से सम्बन्धित सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निजी हाथों को सौंपने का मन बना चुकी है। अगर सरकारी सूत्रों से मिल रही खबरों को सही मानें तो यह भी स्पष्ट दिखता है कि आम आदमी के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित दिख रही सरकार अभी तक उसे बीमा सुरक्षा दिए जाने के संदर्भ में कोई रणनीति नहीं बना पायी है और न ही वर्तमान तक देश में काम कर रही स्वास्थ्य बीमा कम्पनियों की इतनी क्षमता है कि वह एक साथ इतना बढ़ा बीमा देने के लिए आवश्यक गारंटी जुटा सके। लिहाजा यह तय है कि सरकार की अन्य तमाम घोषणाओं की तरह यह स्वास्थ्य बीमा योजना भी एक चुनावी शगूफा है और इसी वर्ष के भीतर लोकसभा चुनावों के लिए जनता के बीच जाने का मन बना चुकी सरकार लगभग अक्टूबर माह में इसे लागू करने की घोषणा कर चुनावी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का निर्णय ले चुकी है। सरकार के वित्त मंत्री अरूण जेटली ने अपने बजटीय भाषण के लगभग अंत में रेल बजट को भी थोड़ी जगह दी है और उनकी घोषणाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो सरकार भारतीय रेल का कायाकल्प करते हुए आम आदमी को कई तरह की सुविधाओं से नवाजने जा रही है लेकिन सरकार द्वारा घोषित इन तमाम सुविधाओं व रेलवे के कायाकल्प के लिए धन की उपलब्धता किन मदों से होगी और जनसामान्य को व्यवस्थित रेल यात्रा प्रदान करने के लिए नई रेलों का संचालन किस रणनीति के आधार पर किया जाएगा, इन तमाम विषयों पर भारत सरकार द्वारा सदन पटल पर रखा गया मौजूदा बजट मौन दिखता है। सरकार सदन के माध्यम से आम जनता को यह बताने के लिए भी तैयार नहीं दिखती कि पिछले रेल बजट में किए गए प्रावधानों को किस हद तक लागू किया गया और वह कौन से कारण रहे जिनके चलते हमारी मौजूदा व्यवस्था अपनी पूर्व घोषणाओं के तहत स्वीकृत की गयी योजनाओं के लिए आवंटित धन जुटाने में नाकाम रही। यहां पर यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि पूर्ण बहुमत के साथ केन्द्रीय सत्ता के शीर्ष पर काबिज भारत की पूर्ण बहुमत वाली सरकार अपने इस बजट में उन तमाम प्रावधानों को जनता के सामने रखने में पूरी तरह असफल रही जिसके तहत आर्थिक मंदी से जूझ रहे अनेक राज्यों की केन्द्रीय अनुदान व अन्य माध्यमों से समुचित सहायता की जानी चाहिए थी या फिर यह भी हो सकता है कि पूर्व में योजना आयोग के नाम से जानी जाने वाली सरकार की इस व्यवस्था को नीति आयोग में परिवर्तित करने के बाद केन्द्र सरकार ने राज्यों की आर्थिक सुदृढ़ीकरण की व्यवस्था को पूरी तरह बदल दिया हो और तमाम राज्यों की सरकार केन्द्र के इस फैसले से खुश भी हो लेकिन जहां तक आम आदमी का सवाल है तो उसे इस बजट में कुछ भी ऐसा नहीं दिखाई देता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि सरकारी तंत्र या फिर मौजूदा केन्द्र सरकार जनसामान्य के हितों को लेकर चिंतित है। हो सकता है कि सरकार द्वारा सदन पटल पर रखे गए इस बजट का आगामी लोकसभा चुनावों पर कोई असर न पड़े और पूरी तरह जातीय धु्रवीकरण कर जनमत के एक बड़े हिस्से को अपने पक्ष में करने की रणनीति पर काम कर रही वर्तमान केन्द्र सरकार व इसकी नीति निर्धारक भाजपाई विचारधारा राम मंदिर, तीन तलाक, भारतीय अस्मिता, लव जेहाद, गोवंश के सम्मान या फिर तथाकथित उग्र राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों को आगे कर आगामी लोकसभा चुनावों में भी सफलता हासिल करने में कामयाब रहे लेकिन सवाल यह है कि सरकार की नीतियों व अतार्किक फैसलों की वजह से तेजी से खराब होती दिख रही देश की वित्तीय स्थिति और कामधंधों व रोजगार के आभाव में सूनी होती दिख रही आम आदमी की रसोई का सरकार अथवा उसके वित्तीय सलाहकारों के पास क्या जवाब होगा।

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