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Tuesday, April 23, 2024

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बंटवारे की राजनीति

बाबा भीमराव अंबेडकर के जन्मोत्सव पर विशेष
आजाद भारत के संविधान निर्माता बाबा भीमराव अंबेडकर के अवतरण दिवस पर देश के तमाम राजनैतिक दल उन्हें श्रद्धांजलि देते नजर आये तथा ऐसा महसूस हुआ कि मानो राजनेताओं के यह समूह अंबेडकरवादी होने के लिए बेताब नजर आ रहे हों लेकिन इस सारी जद्दोजहद में यह भी अहसास हुआ कि मानो अंबेडकर पूरे भारतवर्ष के नहीं बल्कि सिर्फ देश के दलित व पिछड़े वर्ग के नेता हों और दलितों को अपने पक्ष में खड़ा करने के लिए अंबेडकर के सम्मान व उनकी नीतियों के अनुसरण का दिखावा करना जरूरी हो। उपरोक्त के अलावा बाबा अंबेडकर के इस जन्मदिवस के अवसर पर नेताओं के बीच दलितों के साथ भोजन करने की भी होड़ दिखाई दी तथा कुछ राजनैतिक दलों ने तो इस सहभोज के कार्यक्रम को इस प्रकार प्रचारित किया कि मानो यह देश अथवा दलितों की बड़ी उपलब्धि हो लेकिन इस सारी जद्दोजहद में हम यह भूल गए कि भारत का संविधान इस किस्म के आयोजनों की इजाजत नहीं देता जिसमें देश की दलित व अन्य निचली मानी जाने वाली जातियों को समाज से अलग-थलग दिखाया जाये। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि सत्ता की दौड़ में सरपट भागने को आतुर नजर आ रहे कुछ राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने अपने निजी राजनैतिक फायदे के लिए बाबा अंबेडकर को राष्ट्रनायक की जगह दलितों के नेता के रूप में प्रस्तुत किया और बड़ी ही खूबसूरती के साथ अंबेडकर का महिमामंडन करते हुए वर्तमान राजनैतिक दौर के दलित नेताओं को नकारने का प्रयास किया गया। यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि देश की आजादी के बाद इन पिछले पैंसठ-सत्तर सालों में देश के दलित वर्ग व पिछड़ों को मिले कानूनी अधिकारों व उनकी शिक्षा या अन्य व्यवस्थाओं को लेकर किए गए प्रावधानों के कारण समाज के एक बड़े हिस्से को जागरूकता का अहसास हुआ है और दलितों व अन्य जातिगत् संगठनों की इस जागरूकता के चलते अस्तित्व में आये तमाम क्षेत्रीय राजनैतिक दलों ने जनमत की इस ताकत की मदद से सत्ता के शीर्ष पदों को हासिल करते हुए राष्ट्रीय राजनैतिक समीकरणों को बदलने या अपने पक्ष में करने की सफल कोशिशें भी की हैं। यह एक अलग विषय है कि इस सारी जद्दोजहद के चलते अस्तित्व में आये क्षेत्रीय राजनैतिक दलों द्वारा विभिन्न राज्यों में बनायी या चलायी गयी सरकारें कितनी सफल या असफल रही हैं और जनमत की इस ताकत के कारण अस्तित्व में आये गठबंधन की राजनीति के दौर से भारतीय लोकतंत्र को कितना नफा या नुकसान हुआ है लेकिन अगर सामाजिक सामंजस्य व राजनैतिक स्वीकार्यता की दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि बहुजन समाज व दलित-मुस्लिम समीकरण को आधार बनाकर खड़े किए गए यह तमाम राजनैतिक दल कालान्तर में ही सर्व समाज की राजनैतिक दिशा की ओर बढ़ते दिखाई देते हैं तथा समाज के निचले तबकों व पिछड़ी जातियों को उनके मत की ताकत का अहसास कराने में इनका विशेष योगदान रहा है। अब अगर सामाजिक परिवेश में देखें तो हम पाते हैं कि देश की आजादी के बाद से लगातार दलित व पिछड़े वर्गों की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ी है और राजनीति, शिक्षा के क्षेत्र या फिर सरकारी नौकरियों में किए गए आरक्षण के प्रावधान के चलते देश की आबादी के इस बड़े हिस्से की सोच में भी बदलाव आया है लेकिन इस सबके बावजूद हम यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि समाज में छूआछूत पूरी तरह समाप्त हो गया है या फिर कानून की दृष्टि से समान अधिकार प्राप्त देश के सभी नागरिक इस स्थिति में हैं कि वह अपने साथ होने वाले जातिगत् भेदभाव का विरोध कर सकें। देश की आजादी के बाद इन सत्तर वर्षों में तेजी से बदली परिस्थितियों व राजनैतिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए हमारे नेताओं व सत्ता के शीर्ष पदों पर काबिज राजनैतिक दलों को चाहिए था कि वह समय-समय पर हालातों की समीक्षा करते हुए यह तय करते कि आरक्षण के दायरे में आने वाली तमाम जातियों व जनसंख्या को इसका सम्पूर्ण लाभ मिल सके तथा विगत् कई वर्षों से इस लाभ को प्राप्त कर अपना आर्थिक व सामाजिक जीवन स्तर सुधार चुके परिवारों इसके दायरे से बाहर रख अन्य गरीब व शोषित वर्गों को सरकारी योजनाओं का लाभ दिया जाये लेकिन अफसोसजनक है कि वोट-बैंक की राजनीति के खेल ने अम्बेडकर के ‘सर्वजन हिताय’ वाले स्वप्न को साकार नहीं होने दिया और सत्ता के केन्द्र में बने रहने के लिए लगभग हर राजनैतिक दल ने अपने दलित प्रकोष्ठ का गठन कर चुनाव जिता सकने वाले चेहरों की तलाश जारी रखी। लिहाजा संविधान प्रदत्त आरक्षण की बहुआयामी व्यवस्था से देश की जनता के एक हिस्से को फायदा तो पहुंचा और समाज के विभिन्न वर्गों के बीच उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ी लेकिन यह तमाम उपाय वह क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में नाकामयाब रहे जिनकी परिकल्पना बाबा भीमराव अंबेडकर ने की थी और वह उद्देश्य भी पूरे नहीं हो पाये जिनके चलते आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान किया गया था। यह माना कि आरक्षण को समाप्त किए जाने, इसका आधार आर्थिक सम्पन्नता को बनाये जाने या फिर इसके दायरे में कुछ नयी जातियों को समाहित किए जाने जैसी आवाजें वर्तमान में जनता के बीच से सुनाई दे रही है और ऐसा प्रतीत होता है कि आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था के कारण सामाजिक वातावरण व माहौल प्रभावित हो रहा है तथा इसका विरोध करने वाले या फिर इसमें दायरे में शामिल किए जाने की मांग करने वालों के पास अपनी मांगों के समर्थन में अपने आंकड़े व दावे हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या देश की सत्ता पर काबिज राजनैतिक चेहरे अथवा सत्ता की राजनीति करने वाले तमाम राजनैतिक दल वाकई में यह चाहते हैं कि देश के एक कोने में बैठे अंतिम व्यक्ति को उसका अधिकार व न्याय मिल सके और अगर ऐसा होता है तो क्या वजह हैं कि हमारी सरकारें व सत्ता पक्ष-विपक्ष के नेता अंबेडकर की जय-जयकार करने के बावजूद उनकी नीतियों व सिद्धांतों को पूरी तरह अमल में लाने से बचते क्यों दिखाई दे रहे हैं। कैमरों की मौजूदगी में सत्ता एवं संगठन से जुड़े कुछ चमकदार चेहरों के साथ वीआईपी वाले अंदाज में बैठकर दलित भोज का आनंद लेना एक अलग विषय है जबकि एक दलित परिवार की दैनिक समस्याओं को समझना व उनका निदान करना या फिर स्थानीय स्तर पर बाबा अंबेडकर की नीतियों व सिद्धांतों को समझते हुए उनका अनुपालन करवाना एवं सामाजिक सद्भाव कायम करते हुए भेदभाव को समाप्त करना एक अलग मुद्दा है लेकिन हम देख रहे हैं कि राजनैतिक दल बाबा भीमराव अंबेडकर की जय-जयकार मात्र कर मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को दिगभ्रमित करना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें जातिगत् दंगों या अफवाहों से कोई परहेज नहीं है। यह माना कि जातिगत् दंगों को हवा देने या फिर आरक्षण के समर्थन व विरोध में उठने वाली आवाजों को साधने के पीछे नेताओं की अपनी रणनीति है तथा किसी जाति अथवा समुदाय विशेष को आरक्षण के दायरे में रखे जाने अथवा इस दायरे से बाहर किए जाने की मांग का सामाजिक भेदभाव से कोई लेना-देना नहीं है लेकिन यह भी तय है कि इस तरह के आंदोलन या फिर विरोध-प्रदर्शन राजनैतिक शह के बिना सफल नहीं हो सकते और पिछले कुछ अंतराल में तेजी से बदल रही राजनैतिक परिस्थितियों के मद्देनजर हम यह दावे से कह सकते हैं कि राजनैतिक मंचों से बाबा अंबेडकर जैसी महान हस्तियों को बड़ा समाज सुधारक व युग परिवर्तक घोषित करने वाले बड़े चेहरे ही समाज के एक बड़े हिस्से में अपना दबदबा कायम रखने के लिए जातिगत् राजनीति का खेल खेल रहे हैं और राजनीति के इस खेल में सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वाले दंगों या फिर कट्टरपंथ की राजनीति से नेताओं को कोई नुकसान नहीं होता। इसलिए बाबा अंबेडकर के इस 127 वें जन्मोत्सव के अवसर पर हमें संकल्प लेना चाहिए कि अपने हकों व अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए एकजुटता के प्रदर्शन के बावजूद हम न सिर्फ हिंसा से परहेज करेंगे बल्कि अपनी मताधिकार की ताकत का सही व पूरा उपयोग करते हुए मतलबपरस्ती की राजनीति को पटखनी देने का भी प्रयास करेंगे।

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