तथ्यों व तर्को की कसौटी पर | Jokhim Samachar Network

Thursday, April 18, 2024

Select your Top Menu from wp menus

तथ्यों व तर्को की कसौटी पर

मुख्यधारा की मीडिया का सामना करने से क्यों बचना चाहते है भाजपा के नेता।

उत्तराखण्ड की सत्ता के शीर्ष पर भाजपा के काबिज़ होने के बाद पार्टी हाईकमान के रूप में अमित शाह का राज्य की राजधानी देहरादून का यह दूसरा दौरा पूरी तरह संगठन को समर्पित रहा और इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि अपने इस एक दिवसीय कार्यक्रम के माध्यम से अमित शाह ने पार्टी कार्यकर्ताओ में पूरी तरह से जान फूॅकने की कोशिश की। हाॅलाकि यह कहा जाना मुश्किल है कि पार्टी हाईकमान के रूप में उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून के इस दौरे के बाद सत्ता पक्ष के विधायको व मन्त्रियों का गाहे- बगाहे छलकने वाला आक्रोश कुछ कम होगा भी या नही और खाली पड़े दो मन्त्रीपद व संवेधानिक दायरे में आने वाले दायित्वों को लेकर स्पष्ट दिखने वाली बैचेनी के परिपेक्ष्य में उनके द्वारा किस तरह के निर्देश जारी किये गये होंगे लेकिन अमित शाह के इस दौरे को लेकर भाजपा के तमाम वरीष्ठ व कनिष्ठ कार्यकर्ताओं द्वारा ओढ़ी गयी चुप्पी यह इशारा कर रही है कि इस एक दिवसीय तूफानी दौरे के दौरान कुछ न कुछ ऐसे निर्णय लिये गये है जिनसे भाजपा के कार्यकर्ताओं का विश्वास बढ़ा हुआ दिख रहा है। यह माना कि राजनीति में इस तरह की गोपनीयता का कोई अर्थ नही है और जनमत को भाजपा के पक्ष में करने के लिऐ उत्साहित कार्यकर्ताओं की कार्यशैली व अन्दाज़ से कुछ ही दिनो के अन्तराल के बाद यह अहसास खुद-व-खुद हो जायेगा कि भाजपा की आगामी रणनीति क्या है लेकिन इस बार अमित शाह के इस दौरे के बाद भाजपा समर्थको व कार्यकर्ताओं द्वारा अपने माननीय अध्यक्ष के सम्मान में आयोजित किसी भी कार्यक्रम की फोटो सोशल मीडिया में शेयर करने में की जा रही कंजूसी को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस बार भाजपा के लोग अपनी पहचान छिपाते हुऐ मोदी की दोबारा सत्ता में वापसी की रणनीति पर काम कर रहे है। हो सकता है कि हमारा अन्दाजा़ पूरी तरह गलत हो और कड़क मिजाज़ नेता माने जाने वाले अमित शाह ने अपनी सभा में उपस्थित कार्यकर्ताओं को इतना मौका ही न दिया हो कि वह कार्यक्रम से पहले अथवा कार्यक्रम के दौरान किसी भी तरह की अदाकारी अथवा अतिसक्रियता दिखाते हुऐ इस तरह के फोटो सेशन को अंजाम दे सकें लेकिन जिस तरह बैठक शुरू होने से ठीक पहले तमाम पत्रकारों व केमरामेंनों को सभास्थल से बाहर कर दिये जाने की खबरें सामने आ रही है उनसे यह साफ होता है कि इस बार भाजपा की रणनीति में कुछ ना कुछ ऐसा जरूर है जिसे वह समय से पहले अपने विपक्षियों या जनता के सामने नही आने देना चाहती। शायद यहीं वजह है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का यह वर्तमान दौरा बहुत ज्यादा हो-हल्ले वाला या फिर तड़क भड़क भरा नही दिखा और पिछली बार अमित शाह के आगमन की तैयारी में ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देने वाली सरकारी मशीनरी इस बार जरूरत से भी ज्यादा शान्त दिखीं लेकिन इस खामोशी के पीछे छिपा हुआ शोर यह अहसास कराने के लिऐ काफी है कि आगामी लोकसभा चुनावों में उत्तराखंड की पाॅचो-पाॅच लोकसभा सीटे भाजपा की झोली में डालने के लिऐ आतुर दिख रहे अमित शाह अपने इस हाॅलिया दौरे के माध्यम से उत्तराखंड भाजपा के तमाम वरीष्ठ नेताओ को यह इशारा दे गये कि हार अथवा संगठनात्मक फूट के परिणाम कितने ज्यादा गम्भीर हो सकते है। हाॅलाकि राष्ट्रीय अध्यक्ष के इस कार्यक्रम से भाजपा के साथ सम्बद्ध तमाम पूर्व मुख्यंमन्त्रियों द्वारा बनायी गयी दूरी प्रदेश भाजपा में उच्च स्तर पर दिख रही गुटबाजी़ की ओर भी इशारा करती है और ऐसा प्रतीत होता है कि अपने टिकट कटने की सम्भावनाओ से नाराज़ उत्तराखण्ड के यह तमाम नेता आगामी लोकसभा चुनावों से सम्बन्धित रणनीति बनाये जाने के परिपेक्ष्य में आहूत की गयी इस बैठक में अनुपस्थिति दर्ज करवाकर अपनी असहमति व्यक्त करना चाहते हो लेकिन यह भी हो सकता है कि भाजपा हाईकमान ने किसी खास रणनीति के तहत इन तमाम दिग्गजो को इस बैठक से दूरी बनाकर रखने को कहा हो और जमीनी कार्यकर्ताओं से सीधे मुखातिब होकर अमित शाह यह अन्दाज़ा लगाना चाहते हो कि वास्तव में इन बड़े नेताओ जो कि वर्तमान में या तो सांसद है या फिर अपने अथवा अपने परिवार के लिऐ आगामी चुनावो में टिकट चाहते है, की वास्तविक एंव ज़मीनी हकीकत क्या है। यह भी हो सकता है कि हाल ही में सामने आये गुजरात से जुड़े काॅेंपरेटिव घोटाले को लेकर अमित शाह व उनके शुभचिन्तको का यह अनुमान हो कि अगर सरकार द्वारा राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनके इस कार्यक्रम को ज्यादा तबज्जो दी जाती है तो मीडिया का एक हिस्सा गड़े मुर्दे उखाड़ने वाले अन्दाज़ में भाजपा संगठन व सरकार पर कई तरह की तोहमते लगा सकता है और समाचारों व अन्य माध्यमों से यह तथ्य जनता के बीच चर्चाओं का विषय बन सकता है कि नोटबन्दी के दौरान गुजरात के काॅेपरेटिव बैंक के माध्यम से जमा किये गये सात सौ पचास करोड़ रू. लगभग के पुराने नोट आॅखिर किसके थे। यह तो तय है कि इस वक्त भाजपा संगठन व सरकार की ओर से उठाये जाने वाले हर कदम को फॅूक-फॅूक कर रख रही है और अपनी इस बैठक माध्यम से भी अमित शाह मीडिया के एक हिस्से अर्थात छोटे एंव मझोले समाचार पत्रो की ताकत को नकारते हुऐ अपने कार्यकर्ताओं को सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने की सलाह देते नज़र आते है। हाॅलाकि यह कहा जाना मुश्किल है कि भाजपा के नेताओ का छोटे व मझोले समाचार पत्रो से क्या बैर है या फिर देश के प्रधानमन्त्री समेत भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अथवा भाजपा के अन्य तमाम बड़े नेता अपने राजनैतिक दौरो व प्रस्तावित कार्यक्रमो के दौरान मीडिया के एक बड़े हिस्से से रूबरू होना अथवा उनक सवालो का जबाब देना क्यों पसन्द नही करते लेकिन अगर तथ्यों को आधार बना या फिर भाजपा की कार्यशैली का संम्पूर्ण अवलोकन कर इन तमाम प्रश्नो पर विचार किया जाये तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि विगत् लोकसभा चुनावों के दौरान जनता से किये गये वादे व घोषणायें पूरी करने में नाकाम रही भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार यह अच्छी तरह जानती है कि एक बार फिर जनमत संग्रह के लिऐ जनता के बीच जाने की स्थिति में मीडिया का एक हिस्सा आम आदमी की बात या फिर ऐसे ही कुछ अन्य नामो से इस तरह के सवालात जरूर उठायेगा। इसलिऐं चुनाव के मोर्चें पर जाने से पूर्व यह माहौल बनाया जाना जरूरी है कि राजनीति के मैदान में मीडिया के इस हिस्से की कोई अहमियत नही रह गयी है ओर जनता सोशल मीडिया पर पूरा भरोसा करते हुऐ बिना सर-पैर के तर्को व जातिगत् वैमनस्यता को बढ़ावा देने वाले तथ्यो को ही सच मानकर अपना नेता या प्रधानमन्त्री चुनने जा रही है। हमने देखा कि भाजपा ने बड़ी ही चालाकी के साथ पिछले आम चुनाव से पहले ‘‘ इमेज बिल्डिग‘‘ का एक माहौल बना विज्ञापनो व अन्य माध्यमों से एक नेता को प्रधानमन्त्री पद के दावेदार के रूप में आगे किया तथा फिर एक नियोजित अन्दाज़ में मतदाताओं का भावनात्मक शोषण कर सत्ता पर कब्जे़दारी की रणनीति रची गयी। इस सारे खेल में पूॅजीपति के कब्जे़ वाले मीडिया के एक बड़े हिस्से को अपने साथ मिलाकर सरकार सच को अपने तरीके से प्रस्तुत करने अथवा मनगणन्त आकड़ो का सहारा लेकर मतदाताओं को भरमाने की रणनीति पर काम करती रही और खबरों की तह तक जाने वाले खोजी मीडिया अथवा सच को जनता के सामने रखने की मुहिम को ही अपना पेशा माने वाले पत्रकारों व छोटे समाचार पत्रो का मनोबल तोड़ने के लिऐ सरकार ने डीएवीपी व आरएनआई के माध्यम से नियमो में बड़े हेर-फेर कर मीडिया के इस हिस्से को अपने बस में करने का प्रयास किया लेकिन पत्रकार जगत के एक बड़े हिस्से ने झुकना स्वीकार करने के स्थान पर टूट जाना मुफीद समझा और लगभग बन्दी की कगार पर खड़े तमाम छोटे व मझोले समाचार पत्रो का एक बड़ा हिस्सा इस वक्त अपनी बन्दी की कीमत पर मोदी सरकार की खामियाॅ व कारगुजारिया जनता के बीच लाने के लिऐ प्रयासरत् है। अमित शाह को असल डर इसी तबके से है और एक कुटिल रणनीतिकार के रूप में वह यह नही चाहते कि उनके द्वारा जनता के बीच फैलाये जाने वाले भ्रमजाल से सम्बन्धित कोई खबर तर्को एंव तथ्यो की कसौटी में कसते हुऐ जनता की अदालत में प्रस्तुत की जाये। शायद इसीलिऐं उन्होने देहरादून में आयोजित बैठक के दौरान न सिर्फ खुद मीडिया से दूरी बनाये रखी बल्कि अपने सोशल मीडिया के सिपाहियों को भी यह स्पष्ट ताकीद दी है कि वह सूंघ-सूंघ कर खबर हासिल करने वाले तथा तर्को व तथ्यो के आधार पर खबरो का विश्लेषण करने वाले खोजी पत्रकारो से दूरी बनाये रखें।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *