बन्द की राजनीति | Jokhim Samachar Network

Thursday, March 28, 2024

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बन्द की राजनीति

जन सरोकारों व सामाजिक मुद्दों से हटकर जातिगत् आधार पर मतदाताओं की एकजुटता का कारण बनते नजर आ रहे हैं आंदोलन व हड़ताल।
क्या वाकई आरक्षण की समस्या इतनी गम्भीर है कि समाज के दो वर्ग जातिगत वर्ण व्यवस्था के आधार पर एक दूसरे के खिलाफ बन्दूक तानकर खड़े हो जाये या फिर न्यायालय द्वारा किसी कानून में किए गए आंशिक फेरबदल के खिलाफ हिंसक व अराजक भीड़ सम्पूर्ण व्यवस्था को ही चेतावनी देने के अन्दाज में सड़कों पर निकल पड़े। माना कि कानूनों में कुछ खामियां हैं और कोई भी व्यवस्था अपने आधीन मानी जाने वाली जनता के प्रत्येक वर्ग को संतुष्ट भी नहीं कर सकती लेकिन क्या वाकई में जनाक्रोश की असल वजह वही है जो दिखाई दे रही है और सामाजिक बराबरी की दृष्टि से सबको एक समान मानने के कारण अंधा माने जाने वाला कानून व इस कानून के हिसाब से न्याय देने का दावा करने वाली व्यवस्था सबके साथ समानता का व्यवहार करने में सक्षम है। देश के पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अंगीकार करने के बाद हमारे नेताओं व राजनैतिक दलों की सोच में कई तरह के बदलाव आये हैं और व्यवस्था में बने रहने को मजबूर आम जनमानस ने भी इस दौड़ में एक दूसरे से आगे निकलने के लिए कई प्रकार के गलत व सही समझौते किए हैं लेकिन इन समझौतों व राजनैतिक अवसरवादिता का परिणाम क्या होगा और जातिगत् दुराग्रह से बाहर निकलकर सामाजिक समरसता की दिशा में कदम रख रहे देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को अपनी इस चूक की कीमत कैसे चुकानी पड़ेगी, कहा नहीं जा सकता और न ही इस बात की गारंटी दी जा सकती है कि जातिगत् आरक्षण व इससे मिलती जुलती अन्य व्यवस्थाओं के बलबूते समाज के किसी भी वर्ग को सक्षम व प्रभुतासम्पन्न बनाया जा सकता है। देश की लगातार बढ़ती जा रही आबादी के साथ असल समस्या बेरोजगारी की है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि अगर देश की सरकारें यहां मौजूद मानव शक्ति का सही उपयोग करे तो तेजी के साथ प्रगति व विकास के पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है लेकिन सरकार की मंशा आम आदमी का हित करने की प्रतीत नहीं होती और पूंजीवाद की समर्थक राजनैतिक शक्तियां हमेशा की तरह समाज की बांटकर अपना हित साधने में व्यस्त प्रतीत होती है। धर्म, जाति या गोत्र की सामाजिक व्यवस्था से अलग हटकर देखें तो हम आसानी के साथ यह महसूस कर सकते हैं कि अमीर व गरीब के दो वर्गों में बंटे हमारे समाज ने हमेशा ही मेहनतकश वर्ग के हितों की अनदेखी की है और सामाजिक समानता का दावा करने वाली हमारी न्याय व्यवस्था अधिकांश मामलों में गरीब के साथ न्याय कर पाने में असफल रही है लेकिन इस सबके बावजूद सामाजिक समानता लाने का दावा करने वाली तमाम क्रांतियां व आंदोलन हमारे देश में असफल रहे हैं और आम आदमी ने हालातों से समझौता करते हुए अपने भविष्य का फैसला लोकतांत्रिक भारत पर राज कर रहे नेताओं व राजनैतिक दलों पर छोड़ दिया है। यह माना कि सरकार की इस मनमर्जी के खिलाफ वामपंथी विचारधारा व अन्य जनवादी संगठनों ने समय-समय पर आवाज उठायी है और सामाजिक न्याय व आम आदमी की लड़ाई के नाम पर वैचारिक सशस्त्र संघर्ष के प्रयास भी किए जाते रहे हैं लेकिन व्यवस्था में किसी भी तरह का बदलाव सम्भव नहीं पाया गया है और यह महसूस किया जाता रहा है कि हर आन्दोलन या क्रांति के नारे के बावजूद जनअधिकारों की लूट करने वाले चेहरों के अलावा कुछ भी नहीं बदला है। हालांकि मजदूर आंदोलनों के माध्यम से गरीब व निम्न वर्ग को ध्यान में रखते हुए कई प्रकार के कानून व नियम बनाये गये हैं और श्रमिकों की समस्याओं व उनके वेतन आदि भत्तों के संदर्भ में विचार करने के लिए अलग से गठित की गयी अदालतें यह अहसास कराती हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में गरीब व मजलूम व्यक्ति का पूरा ध्यान रखा गया है लेकिन वास्तविकता में स्थितियां इससे इतर हैं और सरकार के तमाम फैसलों व व्यापक जनहित के नाम पर की जाने वाली घोषणाओं के मद्देनजर देखें तो यह प्रतीत होता है कि जनमत के आधार पर चुनी जाने वाली देश की सरकारें धीरे-धीरे कर अपना जनवादी स्वरूप खोती जा रही है। कहने को आरक्षण एक बड़ा मुद्दा है और पिछले कई दशकों से देश की राजनीति इसी मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमती दिख रही है लेकिन हकीकत यह है कि जातिगत् आरक्षण के संदर्भ में देश की आजादी के साथ ही की गयी व्यवस्था के बावजूद हम यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि सरकार इन तमाम माध्यमों से गरीबों, मजलूमों या फिर विभिन्न कारणों से विकास की मुख्यधारा से पीछे छूट चुके अन्य वर्गों के साथ इंसाफ करने की स्थिति में है। जहां तक आरक्षण के विरोध अथवा समर्थन का प्रश्न है तो इसे लेकर समाज के विभिन्न वर्गों के अपने-अपने तर्क हैं तथा इन तर्कों के पक्ष व विपक्ष में कई उदाहरण भी प्रस्तुत किये जाते रहे हैं लेकिन अगर सवाल सरकार की जिम्मेदारी तथा आम आदमी के अधिकार का है तो यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि वोट-बैंक के लालच में जनपक्ष को बेवकूफ बनाने वाले राजनेता व राजनैतिक दल अनेक मामलों में पूंजीपति वर्ग के नफे-नुकसान को ध्यान में रखकर काम करते रहे हैं और यह स्थितियां पिछले ढाई-तीन दशकों में ज्यादा तेजी से बिगड़ी है। ज्वलंत समस्याओं व सरकार की नाकामियों से जनता का ध्यान हटाने के लिए भावनाओं को भड़काकर जनमत के बीच पक्ष-विपक्ष तैयार करना नेताओं का प्रिय शगल रहा है और यह महसूस किया जा सकता है कि जातिगत् अथवा धार्मिक आधार पर बने राजनैतिक दलों के सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने के बाद देश की लोकसभा व राज्यसभा के साथ ही साथ विभिन्न राज्यों की विधानसभा अथवा अन्य छोटी पंचायतों में श्रमिक व मजदूर वर्ग का प्रतिनिधित्व कम हुआ है जिसका सीधा असर राजकाज से जुड़े मामलों व सरकार द्वारा इस वर्ग की दी जाने वाली सहूलियतों पर पड़ा है। सरकारी नौकरियों के साथ ही साथ शिक्षा के क्षेत्र व राजनीति में भी आरक्षण का समर्थन अथवा विरोध करने वाली राजनैतिक ताकतें देश की जनता को सौ फीसदी रोजगार का हक अथवा शिक्षा का अधिकार देने की बात नहीं करती और न ही किसी नेता अथवा राजनैतिक कार्यकर्ता द्वारा जनता को यह बताया जाता है कि निजी क्षेत्र में भी आरक्षण व्यवस्था को लागू करने से पहले सरकार श्रमिक वर्ग के हितों की रक्षा के लिए बने कानूनों को क्यों तोड़-मरोड़ देना चाहती है। एक लम्बी जनतांत्रिक लड़ाई व मजदूर आंदोलनों के बूते मिले आम आदमी के अधिकारों को तेजी से समाप्त किया जा रहा है और रोजगार के नये अवसर तलाशने की दिशा में काम करने का दावा करने वाली सरकारी व्यवस्था संविदा, ठेका मजदूर, अंशकालिक कर्मचारी या फिर तत्कालिक व्यवस्था जैसे नामों से आम आदमी का हक छीनने में लगी है। सरकार का दायित्व माने जाने वाली शिक्षा व्यवस्था व स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल बेहाल है तथा सरकार इसे निजी हाथों में सौंपकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है लेकिन जनान्दोलनों का डर सरकारी तंत्र को मजबूर किए हुए है कि वह इस परिपेक्ष्य में सीधे कोई बड़ा फैसला लेने की जगह चोर दरवाजे से इन व्यवस्थाओं के संचालन हेतु बने सरकारी ढांचे को छिन्न-भिन्न करने की दिशा में आगे बढ़े और इसके लिए समाज के विभिन्न वर्गों के बीच दूरी बनाने व वैमनस्यता को बढ़ावा देने की दिशा में काम शुरू हो गया है। हमने देखा कि हिन्दू बनाम मुसलिम दंगों के अलावा धर्म परिवर्तन के मुद्दे को तूल देने तथा अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का एक बड़ा विभेद पूरा करने के बाद अब हमारे राजनेता व राजनैतिक दल जातिगत् दंगों की ओर बढ़ रहे हैं और समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा आरक्षण की परिधि में शामिल किए जाने की हिंसक मांग के बाद अब जाति विशेष को ध्यान में रखते हुए बने कानूनों में न्यायालय की दखलंदाजी व आरक्षण के विरोध को मुद्दा बनाकर समाज को बांटने का खेल शुरू हो गया है। दंगों के बहाने सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने की कोशिश करने वाले या फिर आंदोलन के जरिये भारत बंद व विरोध की राजनीति करने वाले राजनैतिक दलों व सामाजिक संगठनों से यह कोई नहीं पूछना चाहता कि इस तरह के कृत्यों के पीछे छिपा असल उद्देश्य क्या है या फिर सरकार द्वारा प्रतिवर्ष के हिसाब से नित् कितने रोजगारों का सृजन किया जा रहा है कि झगड़ा इस हद तक बढ़ता जा रहा है। यह महसूस किया जा सकता है कि शिक्षण व्यवस्था में सुधार कर अथवा सामाजिक जागरूकता के माध्यम से आजादी के बाद वाले शुरूआती दौर में जो सामाजिक परिवर्तन व समरसता लाने के प्रयास किए गए थे, उन्हें गलत विषयों पर किए जा रहे आंदोलनों के माध्यम से पलीता लगाने के प्रयास जारी हैं और सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनैतिक विचारधाराएं या फिर विपक्ष अपने राजनैतिक नफे-नुकसान के हिसाब से इस पर पर प्रतिक्रिया दे रहा है लेकिन इस सबकी अंतिम परणीति किस रूप में होगी इसका शायद किसी को अंदाजा नहीं है और न ही नेता व राजनैतिक दल यह मानने को राजी हैं कि अपने तात्कालिक फायदे के लिए समाज में बोया जा रहा यह जहर पूरी की पूरी व्यवस्था को ही चैपट कर रहा है। सवाल दलितों के समर्थन में सफल बंद या आरक्षण के विरोध की राजनीति का नहीं है और न ही यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि दलित आंदोलन के नाम पर अलग-थलग होते दिख रहे मतदाताओं के एक बड़े हिस्से के हिन्दू वोट-बैंक के रूप में एकत्र होने से इंकार के बाद आगामी राजनैतिक समीकरण क्या होंगे तथा देश का मुस्लिम मतदाता इस पूरी रस्साकशी में कहां खड़ा दिखाई देगा। असल सवाल आम आदमी की समस्याओं का है और हम देख रहे हैं कि सत्ता की राजनीति करने वाले लगभग सभी दल इन विषयों पर किसी भी तरह की चर्चा करने से बचना चाह रहे हैं। इन हालातों में उम्मीद की जानी चाहिए थी कि आमजन की समस्याओं व तेजी से बढ़ रही महंगाई या भ्रष्टाचार के मुद्दे सामाजिक संगठनों व गरीब या मजदूर वर्ग की बात करने वाले श्रमिक संगठनों को आगे आना चाहिए लेकिन अफसोस बंद या विरोध की राजनीति में इनका कोई अस्तित्व ही नहीं है या फिर आम आदमी की लड़ाई लड़ने वाले यह लोग इतने हताश व निराश हो चुके हैं कि इन्होंने बेहतरी की उम्मीद ही छोड़ दी है।

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