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Friday, April 19, 2024

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अव्यवस्था भरे निजाम में

एक जनप्रतिनिधि की असामयिक मृत्यु ने खोली सरकारी दावों की पोल
असामयिक रूप से काल का ग्रास बने उत्तराखंड की थराली विधानसभा क्षेत्र के विधायक मगनलाल शाह को लेकर भाजपा ही नहीं वरन् उत्तराखंड की समस्त जनता शोकग्रस्त है और उनकी मृत्यु को लेकर हो रहे खुलासों के बाद न सिर्फ उत्तराखंड प्रदेश की स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर सवाल उठने लगे हैं बल्कि प्रदेश का हर आमोखास अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंतित नजर आ रहा है। अगर समाचारों व अन्य माध्यमों से मिल रही सूचनाओं को सही मानें तो यह कहा जा सकता है कि जनसामान्य को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने का दावा करने वाली हमारी सरकारी व्यवस्था एक जनप्रतिनिधि के बीमार होने पर उनकी बीमारी के कारणों को जानने में असफल रही और उनकी स्वास्थ्य संबंधी जानकारी लेने के लिए उनसे चिकित्सालय में मुलाकात करने वाले मुख्यमंत्री व भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष समेत तमाम जनप्रतिनिधियों व अन्य नेताओं को यह जानकारी बाद में मिली कि उनकी मृत्यु की असल वजह स्वाइन फ्लू थी जो एक संक्रमण से फैलने वाली बीमारी है। हालांकि मुख्यमंत्री समेत तमाम जनप्रतिनिधियों को सावधानी के तौर पर इस बीमारी से बचने के लिए एंटी डोज दिए जाने की ख़बरें लगातार आ रही हैं और स्थानीय प्रशासन व स्वास्थ्य विभाग भी अपनी इस कमजोरी को स्वीकार कर चुका है लेकिन सवाल यह है कि सरकार इस परिपेक्ष्य में आम जनता के हितों के लिए क्या कदम उठा रही है और दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्र के एक विधायक की मौत के बाद सरकार इस परिपेक्ष्य में कितनी सजग है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल लचर है और बेहतर भवनों के निर्माण व स्वास्थ्य सेवाओं को दुरूस्त करने के नाम पर गाड़ियां व कागजी घोड़े दौड़ा रही सरकारी व्यवस्था को अपने ही संसाधनों पर भरोसा नहीं है लेकिन सवाल यह है कि अव्यवस्था का यह दौर कितना लंबा चलने वाला है और कई चर्चित दुर्घटनाओं व नामी व्यक्तित्वों की बीमारी की स्थिति में उन्हें इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों के स्थान पर निजी व महंगे होटलनुमा पांचसितारा अस्पतालों के हवाले करने वाले प्रदेश के मुख्यमंत्री इस व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए क्या कदम उठा रहे हैं? यह माना कि देश के तमाम हिस्सों में चल रही विभिन्न स्वास्थ्य बीमा योजनाओं व इस परिपेक्ष्य में प्रदेश की पूर्ववर्ती सरकार द्वारा चलायी गयी स्वास्थ्य बीमा गारंटी योजना के बाद स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर सरकारी अस्पतालों के भरोसे रहने की अवधारणा कमजोर हुई है और देश के प्रधानमंत्री द्वारा इस परिपेक्ष्य में किए गए बजटीय प्रावधानांे के बाद यह माना जा रहा है कि अब भविष्य में आम आदमी को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मिलेंगी लेकिन वर्तमान में पूर्ववर्ती सरकार द्वारा लागू यह योजना व इसके संदर्भ में बनाये गए हैल्थकार्ड व्यवस्था का अंग मालूम नहीं होते और विभिन्न बीमारियों की जांच व परीक्षण आदि के संदर्भ में सरकार द्वारा निर्धारित किए गए शुल्क व निजी चिकित्सालयों द्वारा निर्धारित शुल्क में भारी अंतर होने के कारण तमाम बड़े व नामी-गिरामी चिकित्सालयों द्वारा जनसामान्य को अपने यहां भर्ती करने में की जाने वाली आनाकानी की खबरें भी आम हैं। वैसे भी उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में निजी चिकित्सालयों का यह जाल सिर्फ और सिर्फ कुछ मैदानी इलाकों व कस्बाई क्षेत्रों में फैला हुआ है जिसके कारण पहाड़ी क्षेत्रों में होने वाली विभिन्न बीमारियों व संकट की स्थिति के लिए सिर्फ सरकारी चिकित्सालयों का भरोसा है और यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में खोले गए सरकारी चिकित्सालयों में न सिर्फ योग्य चिकित्सकों व अन्य कर्मचारियों का प्रबल आभाव है बल्कि मरीज की तीरमदारी व इलाज आदि के संदर्भ में मुहैय्या करायी जाने वाली सरकारी धनराशि में व्यापक भ्रष्टाचार व गड़बड़ी की संभावनाओं के चलते आम आदमी का स्वास्थ्य भगवान भरोसे है लेकिन सरकार अपनी किसी खामी को मानने को तैयार नहीं है और राज्य गठन के इन अट्ठारह सालों के बाद जब राज्य का एक जनप्रतिनिधि सरकार की चूक व समय पर मर्ज की पहचान न हो पाने के कारण अपना दम तोड़ता है तो सरकारी तंत्र के पास निरूत्तर होने के अलावा और कोई तर्क भी नहीं है। अफसोसजनक है कि सरकार इस सम्पूर्ण परिपेक्ष्य में व्यापक सुधार की गुंजाईश होने के बावजूद भी कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को लेकर ऐतिहात बरतने से आगे नहीं बढ़ पा रही है और आम आदमी की स्वास्थ्य संबंधी व्यवस्थाओं को उसके अथवा भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया है जिसके चलते एक सामान्य परिवार न चाहते हुए भी महंगे इलाज का खर्च बर्दाश्त करने व अकारण ही अपनी जेब कटाने पर मजबूर है लेकिन सरकारी तंत्र पर आम आदमी को हो रही इस असुविधा का कोई फर्क पड़ता महसूस नहीं होता और न ही सरकारी कामकाज में कोई ऐसा बदलाव आता दिख रहा है जिसके उपरांत यह कहा जा सके कि एक जनप्रतिनिधि के बलिदान के बाद सरकार कुछ चेती है। यह माना जाता है कि पहाड़ की स्वच्छ हवा व पानी के साथ ही साथ पहाड़ी जनजीवन में सामान्यतः अपनाया जाने वाला खानपान और एक सामान्य पहाड़ी की मेहनत व मशक्कत भरी जिंदगी के कारण उसके बीमार पड़ने अथवा गंभीर बीमारियों को जन्म देने वाले जीवाणुओं के पनपने की संभावनाएं बहुत कम रहती हैं लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में राज्य के अनियमित विकास के नाम पर बढ़े खनन व प्राकृतिक सम्पदाओं की लूट ने न सिर्फ पहाड़ी दिनचर्या के अहम् अंग माने जाने वाले हवा-पानी को प्रभावित किया है बल्कि बदले वन कानूनों के चलते पर्वतीय क्षेत्रों में बढ़ी बंदरों व जंगली सूअरों की संख्या के साथ ही साथ अन्य जंगली व हिंसक जानवरों ने आम आदमी को मजबूर किया है कि वह खेती पर अपनी आत्मनिर्भरता को छोड़कर बाजारवादी उपभोक्ता संस्कृति को अपने जीवन का आधार बनायें और यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय क्षेत्रों में टूटी-फूटी सड़कों व लचर यातायात व्यवस्था के चलते न सिर्फ गुणवत्तायुक्त खाद्य सामग्री व शाक-सब्जी का आभाव महसूस किया जा सकता है बल्कि नौकरशाही की मिलीभगत के चलते पहाड़ों पर बिक रही गुणवत्ताहीन व नकली वस्तुएं विभिन्न बीमारियों को जन्म दे रही हैं। उपरोक्त के अलावा पर्यटन को व्यवसाय का रूप देकर इसे आय का जरिया बनाने की सरकारी जिद में पहाड़ों के पर्यावरण को लगातार हो रहा नुकसान व देश के प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए स्वच्छता के नारे के बावजूद इस परिपेक्ष्य में व्यापक व्यवस्थाएं व संसाधन जुटाने में नाकाम दिखती सरकारी मशीनरी उन तमाम कारणों को जन्म दे रही है जिनके चलते स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुकूल माने जाने वाले पहाड़ों पर मानव जीवन के लिए नुकसानदेह व जानलेवा बीमारियां अपना घर बनाने लगी हैं लेकिन व्यवस्थाओं की खामी के चलते सरकार इन तमाम विषयों पर गंभीर नहीं है और अब इन खामियों के चलते दिवंगत हुए एक विधायक के बलिदान को नकारते हुए सरकार अपनी कमियां छिपाना चाह रही है। यह ठीक है कि इन तमाम गंभीर विषयों पर रातोंरात कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती और न ही सरकार के पास कोई जादुई छड़ी है कि वह एक ही झटके में पटरी से उतरी व्यवस्था को ढर्रे पर लाने में कामयाब हो जाए लेकिन इन तमाम व्यवस्थाओं को दुरूस्त करने के लिए एक साल के समय को कम भी नहीं माना जा सकता और यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि अपने एक साल के कार्यकाल में सरकार ने इन तमाम व्यवस्थाओं को दुरूस्त करना तो दूर इस संदर्भ में कोई व्यापक कार्ययोजना बनाने का भी प्रयास नहीं किया है। देश में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लागू होने से पहले ही यह माना जाता रहा है कि स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे जनसामान्य से जुड़े महत्वपूर्ण विषय सरकार की अहम् जिम्मेदारी का हिस्सा है और देश की आजादी से भी पहले से लेकर उत्तराखंड राज्य स्थापना तक के एक लंबे अंतराल में ऐसे अनेक वाकये हैं जब सत्ता के शीर्ष पर काबिज अंगे्रजों व लोकतांत्रिक सरकारों ने अपनी इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है लेकिन इधर उत्तराखंड राज्य स्थापना के इन अट्ठारह वर्षों में सरकारी तंत्र इन तमाम संदर्भों के प्रति बेपरवाह नजर आता है और व्यापक जानलेवा बीमारियों के फैलने पर बचाव व जनसुरक्षा के लिए जिम्मेदार सरकारी व्यवस्था सिर्फ विज्ञापनों तक सिमटी दिखाई देती है। कुछ मामलों में तो हालात इतने बदतर नजर आते हैं कि सहज ही यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि हम आम मतदाता के रूप में उस व्यवस्था का अंग हैं जो सरकार बनाने व गिराने या बदलने में अहम् भूमिका अदा करते हैं और खुद को जनता का सेवक बताने वाले हमारे जनप्रतिनिधि या फिर इनके सहयोग व समर्थन से काम करने वाली सरकारें इतनी अकर्मण्य हो सकती हैं कि अपने एक सहयोगी की असामयिक मौत पर भी उनकी आंखें न खुले। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि थराली के विधायक मगनलाल शाह जी की मृत्यु एक ऐसी अनहोनी या दुर्घटना थी जिसे अटल मानते हुए उनके परिजनों व समर्थकों द्वारा इसे स्वीकार कर लिया जाना चाहिए और जनता ने भी अपनी स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं व समय-समय पर विकराल रूप लेती दिखाई दे रही जानलेवा बीमारियों से इलाज व सुरक्षा जैसे संवेदनशील विषयों को ईश्वर के भरोसे छोड़ देना चाहिए लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारी सरकार इस सम्पूर्ण घटनाक्रम की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उनकी मौत के कारणों व इलाज में हुई लापरवाही की वजहों को जानने का प्रयास करने की दिशा में एक कदम भी आगे बढ़ायेगी और इस किस्म की अव्यवस्थाओं के लिए जिम्मेदार अधिकारियों व संबंधित विभाग के खिलाफ किसी भी तरह की कार्यवाही को अंजाम दिया जाएगा।

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