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Saturday, April 20, 2024

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एक मुहिम के तौर पर

हरेला लोक पर्व को आधार बना सरकार द्वारा वष्हद वष्क्षारोपण को अन्जाम दिया जाना वाकई सुखद।

उत्तराखण्ड के लोकपर्व ‘हरेला‘ को मंचीय आयोजनों से बचाते हुऐ एक वैश्विक पहचान देने का पूरा श्रेय उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को जाता है और यहाॅ पर यह कहने में कोई हर्ज नही है कि अगर सरकारी तन्त्र चाहे तो ‘हरेले‘ का यह त्योहार वन संरक्षण व वष्क्षारोपण की दिशा में अहम् भूमिका अदा कर सकता है। हालांकि हरेंले समेत राज्य के तमाम लोकपर्वो, लोककलाओ,लोकविधाओ व अन्य पारम्परिक व्यवस्थाओं को अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान दिलाने के लिऐ कई संस्थाऐं व सामाजिक संगठन दशको से काम कर रहे है और विभिन्न अवसरों पर इन संस्थाओ व सामाजिक संगठनो द्वारा किये जाने वाले आयोजनों ने पीढ़ीयों पहले पहाड़ छोड़ चुके पर्वतीय समाज के बुद्धिजीवियों को अपनी लोककला व सस्ंकष्ति से जोड़े रखने में सफलता भी प्राप्त की है लेकिन उत्तराखण्ड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद राज्य में बनने वाली तथाकथित जनहितकारी सरकारों ने इस ओर कम ही ध्यान दिया, जिसके चलते एक अलग तरह की मंचीय संस्कष्ति पनपने का खतरा लगातार मंडराता दिख रहा है और सांस्कष्तिक संरक्षण व लोक कलाओं को चिरस्थायी बनाये रखने की नीयत से गठित किये गये एक अलग मन्त्रालय के बावजूद हमारे तीज-त्योहार व संस्कष्ति से जुड़े अन्य रोचक पहलुओं को वर्तमान तक राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नही मिल पायी है। यह कहने में कोई हर्ज नही है कि अपने छोटे कार्यकाल में आये अनेक राजनैतिक झंझावातो को झेलते हुऐ हरीश रावत ने न सिर्फ पहाड़ी कष्षि उत्पादों को बाजा़र देने की दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ाये बल्कि उत्तराखण्ड के लोकपर्वो के मानवीय सभ्यता के उत्थान में योगदान को रेखांकित करते हुऐ अपने स्तर पर तमाम प्रयास किये और अब वर्तमान मुख्यमंत्री भी इसी दिशा में आगे‘हरेले‘ को पर्यावरण से जोड़ते हुऐ एक भारी-भरकम लक्ष्य के साथ वष्क्षारोपण के समयबद्ध कार्यक्रम को आगे बढ़ा रहे है। इस कार्यक्रम की सफलता अथवा असफलता पर उत्तराखण्ड का भविष्य पूरी तरह टिका हुआ है क्योंकि राज्य ही नही बल्कि समुचे देश अथवा विश्व में हो रहे पर्यावरणीय असन्तुलन को देखते हुऐ वष्क्षारोपण वर्तमान में समय की माॅग है तथा इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि अगर टीएसआर सरकार व भाजपा के कार्यकताओं के संयुक्त प्रयासो से लगाऐे जाने वाले तमाम वष्क्ष अपना जीवन पा सके तो उत्तराखण्ड की तस्वीर अगले दो-चार सालों में बदल सकती है लेकिन डर है कि कहीं यह सारा कार्यक्रम ही सरकारी भ्रष्टाचार की भेंट न चढ़ जाये और राज्य की राजधानी में स्थित सचिवालय के नजदीक रातोरात लगाये गये पाम के कुछ वष्क्षो की तरह यह सारा का सारा वष्क्षारोपण का कार्यक्रम जनता को मुॅह चिढ़ाता नज़र आये। यह माना कि टीएसआर सरकार द्वारा हरेले के अवसर पर निर्धारित किये गये लक्ष्य को शक भरी निगाहों से देखने का कोई कारण नही है और हरेला पर्व के अवसर पर मिल रहे तमाम शुभकामना सन्देशों के साथ ही साथ इस अवसर पर की जा रही वष्क्षारोपण की अपील को देखते हुऐ ऐसा महसूस हो रहा है कि वर्तमान सरकार के नेतष्त्व में एक नई क्रान्ति का जन्म होने जा रहा है लेकिन सवाल है कि अपनी इस योजना को सफल बनाने तथा एक ही आवहन पर लगाये गये लाखो वष्क्षो की देखरेख के लिऐ सरकार ने कौन सी रणनीति अख्तियार की है, इस परिपेक्ष्य में अभी तक कोई खुलासा नही किया गया है। पूर्ववर्ती हरीश रावत सरकार ने वष्क्षारोपण को प्रोत्साहित करने के लिऐ ‘मेरा वष्क्ष-मेरा धन‘ जैसी तमाम योजनाओं की घोषणा की थी लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद यह तमाम योजनाऐं दूर-दूर तक चर्चाओं में नही है जबकि हरीश रावत व्यक्तिगत् तौर पर काफल पार्टी, आम पार्टी अथवा जामुन पार्टी जैसे आयोजनों के माध्यम से न सिर्फ क्षेत्रीय अस्मिता व पहचान से जुड़े सवालो को उठाने में जुटे है बल्कि अपने निजी प्रयासों से विगत् वर्ष हरेले के अवसर पर भव्य आयोजन को अंजाम दे तथा इस वर्ष विभिन्न स्थानों पर किये गये वष्क्षारोपण व अन्य माध्यमों से उन्होने राज्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को जाहिर किया है। हो सकता है कि उनकी यह राजनैतिक सक्रियता स्ंवय को चर्चाओं में बनाये रखने की एक रणनीति का हिस्सा हो और दो अलग-अलग क्षेत्रो से एक साथ विधानसभा चुनाव हार चुके हरीश रावत अपने नये किरदार व जिम्मेदारी की तलाश में इस किस्म की गतिविधियों को अंजाम देने के लिऐ मजबूर हो लेकिन इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि अपनी राजनैतिक हार के बावजूद उन्होने अपने ठेठ पहाड़ीपन को छोड़ा नही है और न ही वह हालातो के साथ समझौता करते हुऐ अपनी रणनीति व सोच बदलने के पक्षधर दिखाई देते है। इसलियें यह कहना गलत होगा कि सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के बाद हरीश रावत द्वारा स्थानीय कष्षि उत्पादों को जनसामान्य की पहुॅच के नजदीक ले जाने अथवा स्थानीय तीज-त्याहारो व लोक-पर्वो के साथ जनता को जोड़ते हुऐ आगे बढ़ने की जद्दोजहद कोई राजनैतिक दिखावा या मजबूरी थी और मौजूदा सरकार भी हरेले के नाम पर वष्हद वष्क्षारोपण के कार्यक्रमों को अंजाम देकर अपनी राजनैतिक रोटियाॅ सेंकने का प्रयास कर रही है लेकिन यह एक बड़ा सवाल है कि इस तरह की सरकारी कोशिशों में आम आदमी की भागीदारी कैसे बढ़ायी जाये और एक मुहिम के रूप में लगाये गये वष्क्षो को पाल-पोस कर बड़ा करने तक की जिम्मेदारी से जन सामान्य को कैसे जोड़ा जाये? हम यह देख व महसूस कर रहे है कि पिछले कुछ वर्षो में जनता पर्यावरण संरक्षण को लेकर थोड़ा सजग हुई है और देश के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा दिये गये ‘स्वच्छ भारत अभियान‘ के नारे के बाद कई स्ंवय सेवी संगठन पूरी तन्मयता के साथ इस नेक काम में भागीदारी कर रहे है लेकिन यहाॅ पर यह कहने में कोई हर्ज नही है कि एक अभियान के रूप में लगाये गये वष्क्षो की सुरक्षा अथवा स्वच्छता अभियान के दौरान एकत्र हुऐ कचरे के निस्तारण में सरकारी व्यवस्था पूरी तरह असफल है जिससे ऐसा प्रतीत है कि सरकारी तन्त्र सिर्फ और सिर्फ रस्म अदायगी में जुटा हुआ है। इस तथ्य को भी नकारा नही जा सकता कि सरकार द्वारा पूर्व में जारी निर्देशों के क्रम में आम आदमी के निजी जीवन में पाॅलीथीन का उपयोग घटा है और छोटे व्यापारियों व उपभेक्ता वर्ग में इस दिशा में बनाये गये कानूनो को लेकर जागरूकता महसूस की जा सकती है लेकिन विभिन्न बहुराष्ट्रीय कम्पनियों अथवा ग्राहकों की अधिकतम संख्या तक पहुॅचने के लोभ में प्लास्टिक की पैकिंग को बढ़ावा देने वाले उद्योगपतियों पर इन तमाम कानूनो का कोई असर नही दिखता जिसके कारण हमारे पहाड़ी क्षेत्रो के पयर्टन स्थलों व देवपीठो के इर्द-गिर्द प्लास्टिक के ऐसे ढ़ेर बनते जा रहे है जिन्हे आसानी से नष्ट नही किया जा सकता और यह कहने में कोई हर्ज प्रतीत नही होता है कि विभिन्न कम्पनियों द्वारा अपने उत्पादो की पैकिंग के रूप में पहाड़ों की ओर धकेले जा रहे यह पैकेट हमारे पर्यावरण व सस्ंकष्ति को गम्भीर नुकसान पहुॅचा रहे है। सरकार को चाहिऐं कि वह इस दिशा में भी गम्भीर प्रयास शुरू करे तथा उत्तराखण्ड के जंगलो में लगभग प्रतिवर्ष लगने वाली आग से क्षतिग्रस्त होने वाली वन सम्पदा के नुकसान की भरपायी के लिऐ ‘हरेला‘ जैसे आयोजनों को ध्यान में रखते हुऐ वष्क्षारोपण की रणनीति बनायी जाये। यह माना जा सकता है कि पहाड़ो में तेजी से हुऐ पलायन व दैवीय आपदा या जंगली जानवरो के कहर के चलते कष्षि कार्यो से विमुख हुऐ स्थानीय वासियों को साथ लेकर चलना सरकार के लिऐ एक चुनौती है तथा आगामी वर्षो में हर किसान की आय दुगुनी करने के लक्ष्य के साथ काम कर रही भाजपा के लिऐ सीमित वित्तीय साधनो को आधार बना आगे बढ़ना कठिन ही नही बल्कि अंसभव कष्त्य दिखायी देता है लेकिन अगर वर्तमान सरकार राजनैतिक दूराग्रहों को छोड़कर पूर्ववर्ती सरकारों व नेताओ के अनुभवों को आधार बनाकर आगे बढ़ती है तो इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। मुख्यमन्त्री के रूप में अपने कार्यकाल के दूसरे ही वर्ष में त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने वष्क्षारोपण में रूचि दिखाते हुऐ राज्य के लोकपर्व ‘हरेला‘ की प्रांसगिकता को जिस प्रकार समझा व महसूस किया है उससे एक उम्मीद सी बॅधती है और यह कहने में कोई हर्ज नही है कि अगर सरकार इन तमाम विषयों व राज्य की सांस्कष्तिक अस्मिता को एक नई पहचान देने में इसी अन्दाज़ में काम करना स्वीकार करती है तो राज्यवासियों के लिये एक सुखद भविष्य का प्रारूप तैयार किया जा सकता है लेकिन इस महती लक्ष्य को पाने के लिऐ हमें आवश्यकता है अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित नौकरशाही व पहाड़ की दुरूह परिस्थितियों को समझने वाले कर्मकारों की फौज की। परिस्थितियाॅ यह इशारा कर रही है कि यह सरकार का सबसे कमजा़ेर पक्ष है। इसलिऐं सरकार को चाहिऐं कि वह नौकरशाही पर कड़ी लगाम रखते हुऐ निर्धारित लक्ष्य की ओर आगे बढ़े तथा एक पहाड़ी राज्य की सरकार की कार्यशैली व आयोजन के हर अन्दाज़ में पहाड़ीपन की स्पष्ट झलक को जनता के सामने रखे।

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