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Thursday, April 25, 2024

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अराजकता के इस माहौल में

यह एक बड़ा सवाल है कि क्या सिर्फ कानूनी प्रावधानों या फिर कठोर सजा के डर को माध्यम बना सम्भव है बलात्कार जैसी सामाजिक समस्या का समाधान।
बारह साल से छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार के मामले में अपराधी को फांसी दिए जाने का सरकारी फैसला वाकई ऐतिहासिक है तथा यह भी काबिलेगौर है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में हुई मंत्रीमंडल की एक आपात बैठक में महिला दुष्कर्म के मामले में न्यूनतम् सजा सात वर्ष से बढ़ाकर दस वर्ष करने का प्रावधान किया गया है लेकिन यह एक अहम् सवाल है कि क्या सिर्फ सजा की अवधि बढ़ाकर या फिर सजाये मौत के प्रावधान को मुकम्मल कर इस तरह के घटनाक्रमों पर रोक लगायी जा सकती है और अपराधी को जेल के पीछे धकेल देने या फिर उनके लिए सजाये मौत का ऐलान करने मात्र से पीड़ित महिलाओं व लड़कियों को न्याय मिल सकता है। हालांकि कानून इससे ज्यादा और कुछ नहीं कर सकता तथा पिछले कुछ वर्षों में बढ़े बलात्कार के मामलों व इन अपराधों के चलते समाज में उपजे आक्रोश को देखते हुए कानून बनाने वाली संसद व जनप्रतिनिधियों ने इस दिशा में प्रयास किए भी हैं लेकिन कानून बनाने या फिर इसे सख्ती के साथ लागू करने मात्र से इस समस्या का समाधान संभव नहीं है और हम यह महसूस कर सकते हैं कि यह एक सामाजिक समस्या है जिससे निजात पाने के लिए समाज को जागरूक व सतर्क किए जाने के साथ ही साथ उन कारणों की भी तलाश करनी होगी जो बलात्कार की विकृत मानसिकता को उकसाते हैं। यह एक कटु सत्य है कि महिला को कमजोर व दोयम दर्जे का नागरिक मानने वाली पुरूषवादी मानसिकता ने उसे हमेशा ही हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है तथा इसे इंसानी कमजोरी ही कहा जायेगा कि उसने अपने धर्मग्रंथों की आड़ लेकर भी जन्नत में हूरें मिलने या फिर ऋषि-मुनियों की तपस्या मेनकाओं व अप्सराओं द्वारा भंग किए जाने की बात स्वीकारी है। वास्तव में यह मेनका, अप्सरा या फिर हूर हैं आम आदमी की साधारण जिन्दगी की वह खूबसूरत महिलाएं हैं जिसे उसकी कल्पनाओं ने जन्म दिया है और अपनी सामान्य दिनचर्या में वह सैक्स पर चर्चा करना या फिर अपनी आने वाली पीढ़ी को इसके गुण-दोष से आगाह करना जरूरी नहीं समझता जिसके कारण आधी-अधूरी जानकारी या चोर बाजार में मिलने वाली सस्ती व तथ्यों से परे पठन-पाठन सामग्री व चलचित्रों के दम पर ज्ञानी बना पुरूष अपनी मानसिकता के आधार पर गलत को भी सही साबित करने में जुट जाता है। यह माना कि पिछले कुछ वर्षों में आयी सामाजिक जागरूकता के परिणामस्वरूप अब लोग खुलेआम बलात्कार जैसे अपराध के खिलाफ खड़े होने लगे हैं तथा बलात्कार की शिकार महिला या बच्ची के परिवार इसे लाज-शर्म अथवा इज्जत से जुड़ा प्रश्न मानने के स्थान पर इस तरह के विषयों पर बने कानून का सहारा लेकर इंसाफ की मांग को लेकर आगे आते दिख रहे हैं लेकिन लम्बी कानूनी प्रक्रिया व इस तरह के अपराधों को धार्मिक स्वरूप देकर अपराधी का महिमामंडन करने की कोशिशें अपने हक के लिए लड़ रहे महिला संगठनों व पीड़ित महिलाओं को हताश या निराश करते हैं। हम यह देख और महसूस कर सकते हैं कि बर्बर अतयायियों ने जब भी किसी सभ्यता व संस्कृति को अपना निशाना बनाया है तो महिलाएं व लड़कियां उनका सबसे आसान शिकार रही हैं तथा युद्ध के नाम पर होने वाले इस अमानुषिक अत्याचार को सही व नीति संगत ठहराने के लिए इन तरीकों को अपनी जाति व विचारधारा के प्रसार की संज्ञा दी गयी है और बदले देश, काल व परिस्थिति के हिसाब से शोषण की यह प्रक्रिया अनावरत् रूप से जारी है लेकिन अब समय धीरे-धीरे बदल रहा है और कुछ लोग इस अन्याय व अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने लगे हैं। नतीजतन इस तरह के अपराधों को समाज के एक हिस्से द्वारा जायज ठहराये जाने की कोशिशों के बावजूद सरकारी तंत्र इन तमाम विषयों को लेकर मजबूत कानून बना रहा है और लड़कियों व महिलाओं को केवल उपभोग मात्र की वस्तु समझना अब बीते दिनों की बात होती जा रही है लेकिन यह स्थितियां बहुत विकट हो जाती हैं जब छोटी व निरीह बच्चियां इस तरह के अपराधों का शिकार होती दिखती हैं और अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति कर पाने में अक्षम या फिर दुधमुंही बच्चियों के साथ होने वाले इस तरह के अपराधों के मामले में यह सवाल स्वाभाविक रूप से सामने आता है कि तेजी से बदलती परिस्थितियों के बीच अभिभावक किस पर भरोसा करें व किस पर न करें। हालांकि सख्त कानूनों के अस्तित्व में आने के बाद यह उम्मीद की जानी चाहिए कि इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के बाद अपराधी मानसिकता वाले लोगों के बीच भय का माहौल जन्म लेगा और देश के हर हिस्से में महिलाएं व बच्चियां खुद को सुरक्षित महसूस कर पायेंगी लेकिन सवाल यह है कि जब बलात्कार या अन्य महिला अपराधों को धार्मिक रंग देने का प्रयास किया जाये या फिर कानूनी प्रावधानों की आड़ लेकर महिला या बच्ची को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हुए विरोधी पक्ष को फंसाने की साजिशें की जाने लगे तो इन परिस्थितियों में कानून क्या कर लेगा। यह कहना आसान है कि कानून को उसका काम करने देना चाहिए तथा भावावेश व जल्दबाजी में उठाये गये कदम अक्सर ही गलत फैसलों को जन्म देते हैं लेकिन जब सवाल समाज को एक दिशा व एक पूरी पीढ़ी को न्याय देने का हो तो कुछ तरह की जल्दबाजियां जायज भी मानी जा सकती हैं और ज्वलंत मुद्दों व राष्ट्रहित से जुड़े विषयों के मामले में तो सरकार के मजबूत अंगों व अहम् हिस्सों ने खुद ही आगे आकर अपना स्पष्टीकरण प्रस्तुत करना चाहिए। यह माना कि पिछले दिनों कश्मीर में जो कुछ हुआ उसे लेकर देश व समाज के अलग-अलग वर्गों में अलग-अलग कारणों से आक्रोश का माहौल है तथा कुछ राजनैतिक कारणों से समाज के दो तबके एक ही घटनाक्रम को लेकर एक दूसरे के खिलाफ सीना ताने दिख रहे हैं लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक बच्ची की नृशंस हत्या हुई है और उसकी मौत के कारणों में बलात्कार की सम्भावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। इन हालातों में जो लोग यह मानते हैं कि एक बच्ची की हत्या या बलात्कार कर साजिशों को अंजाम दिया जा रहा है तो उन्होंने साजिशकर्ताओं के नामों का खुलासा करते हुए अपने कथनों के समर्थन में तथ्य जनता व अदालत के सम्मुख प्रस्तुत करने चाहिए या फिर कानून को अपना काम करने देना चाहिए लेकिन अफसोसजनक है कि हत्या व बलात्कार के इस मामले में दोनों ही पक्षों द्वारा मृतक बच्ची का इस्तेमाल हथियार की तरह किया जा रहा है और घटना के विरोध अथवा आरोपियों को बचाने की कोशिशों में जुटे दोनों ही पक्षों द्वारा अपने-अपने तरीके से अपनी-अपनी बात रखी जा रही है। इन हालातों में जब कोई भी पक्ष दूसरे की भावनाओं को समझने के लिए तैयार न हो और कानून सम्मत फैसलों को भी शक की निगाह से देखा जाने लगे तो किसी भी किस्म के सरकारी फैसले या कानूनी प्रावधान का क्या औचित्य रह जाता है, कहा नहीं जा सकता। अगर जनता या विपक्ष कानूनी फैसलों व अदालती आदेशों को मानने से इंकार कर दे और सत्ता पक्ष अपने राजनैतिक लाभ या हानि के समीकरणों को आधार बना इस तरह की समस्याओं का समाधान करे तो यह परिस्थितियां लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की दृष्टि से ठीक नहीं कही जा सकती। वर्तमान में हो कुछ ऐसा ही रहा है तथा विभिन्न राजनैतिक कारणों से न्यायालयी आदेशों अथवा फैसलों का हिंसक विरोध करती भीड़ यह साबित करने का प्रयास कर रही है कि अविश्वास व गैर जिम्मेदाराना रवैय्ये की हदें पार करते हम लोग ऐसी व्यवस्था की ओर आगे बढ़ रहे हैं जहां अराजकता व भय के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता। सवाल यह कि क्या भय व अराजकता के इस माहौल में संसद द्वारा बनाये जा रहे कुछ नये कानून या फिर विशेष रूप से महिलाओं व बच्चियों के साथ होने वाली बलात्कार की दुर्दांत घटनाओं को रोकने की दिशा में क्रिमिनल लाॅ आर्डिनेंस-2018 कुछ विशेष प्रभाव छोड़ता दिखाई देता है और सत्ता के शीर्ष सदनों में पूर्ण बहुमत हासिल होने के बावजूद सत्ता पक्ष या सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनैतिक लोग वाकई में इस स्थिति में हैं कि सारे देश की जनता अपने नीति-निर्धारकों द्वारा उवाचे गये शब्दों पर अक्षरतः भरोसा कर सके। हम यह देख रहे हैं कि राजनैतिक दलों की सदस्यता बढ़ने के दावों के साथ ही साथ तथाकथित रूप से समर्पित कार्यकर्ताओं की उग्रता बढ़ने के बावजूद आम जनता के बीच नेताओं की विश्वसनीयता कम हुई है और पिछले कुछ अंतराल में लफ्फेबाजी साबित हुई तमाम सरकारी घोषणाओं के बाद जनता के एक बड़े हिस्से ने अपने नेताओं के वादों व दावों को गंभीरता से लेना बंद कर दिया है। लिहाजा यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि सरकार द्वारा बलात्कार के संदर्भ में किए गए कानूनी प्रावधानों के माध्यम से थका देने वाले कानूनी दांव पेंचों के बाद कुछ अपराधियों को कठोर सजा दिया जाना तो संभव हो सकता है लेकिन अपराध पर लगाम लगाना या फिर छोटी बच्चियों व महिलाओं को भयमुक्त जीवन की गारंटी दिया जाना संभव नहीं है। इसके लिए तो सरकारी तंत्र ने आम आदमी का विश्वास ही जीतना होगा और यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि हमारी सरकारी व्यवस्था व राजनैतिक दल इससे कोसों दूर है।

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