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Tuesday, April 23, 2024

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न्यायालय के आदेशों के बाद

क्या एक झटके में ही समाप्त कर दी जायेगी दशकों पुरानी पटवारी पुलिस व्यवस्था
उत्तराखंड के नैनीताल स्थित उच्च न्यायालय ने प्रदेश में लगभग 160 सालों से चली आ रही राजस्व पुलिस की व्यवस्था को अगले छह माह में समाप्त करने के आदेश जारी करते हुए अपराध विवेचना का काम सिविल पुलिस को सौंपे जाने के निर्देश दिये हैं। अपने इस निर्देश में न्यायालय ने कहा है कि पटवारियों व राजस्व अधिकारियों की ट्रेनिंग पुलिस की तर्ज पर नहीं होती और न ही इनके पास अपराध व अपराध स्थल की सही विवेचना के लिए कम्प्यूटर, डीएनए व रक्त परीक्षण, फारेंसिक जांच की व्यवस्था, फिंगरप्रिंट लेने की व्यवस्था जैसे आधुनिक व समुचित संसाधन हैं जिससे अपराध की समीक्षा में परेशानी होती है और इसका पूरा लाभ अपराधी को मिलता है। इसलिए सरकार इस छह माह की अवधि में पटवारी क्षेत्रों में रेगुलर पुलिस की व्यवस्था करे। न्यायालय के निर्णय से स्पष्ट है कि इस अवधि के बीत जाने के बाद राजस्व पुलिस द्वारा कोई भी रिपोर्ट दर्ज नहीं की जायेगी और न ही राजस्व पुलिस द्वारा सम्बंधित मामलों की जांच ही की जाएगी। न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा है कि एक सर्किल में कम से कम दो थाने होने चाहिए और थाने का संचालन कम से कम सब इंस्पेक्टर दर्जे के पुलिस अधिकारी द्वारा किया जाना चाहिए। वर्तमान में लगभग एक करोड़ आबादी वाले उत्तराखंड में मात्र 156 थाने हैं और इन थानों में से अधिकांशतः राज्य के चार जिलों क्रमशः नैनीताल, ऊधमसिंहनगर, हरिद्वार व देहरादून के मैदानी इलाकों में स्थित है। यहां यह तथ्य भी काबिलेगौर है कि सिविल पुलिस के कार्यक्षेत्र में आने वाले राज्य के इस बड़े क्षेत्रफल में न सिर्फ अपराध व अपराधियों की भरमार है बल्कि पुलिस के तमाम वरीष्ठ अधिकारियों समेत छोटे-मोटे सिपाही तक पर अपराधियों से मिलीभगत व अपने निजी फायदे के लिए थानों की खरीद-फरोख्त तक के आरोप लगते रहते हैं और इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि राज्य बनने के बाद इन सत्रह वर्षों में न सिर्फ इन तमाम थाना क्षेत्रों में अपराध संख्या को लेकर भारी इजाफा देखा गया है बल्कि आंकड़ों पर गौर करने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पुलिस के संज्ञान में आने वाले अधिकांश मामलों का खुलासा करने व सही अपराधी को सजा दिलाने के मामले में हमारी व्यवस्था पूरी तरह असफल दिखती है लेकिन इस सबके बावजूद स्थानीय जनता का विश्वास पुलिस पर बना हुआ है और कानून व्यवस्था कायम रखने समेत अपराधों व अपराधियों तक पर लगाम लगाने के मामले में वह पुलिस पर भरोसा करती है। न्यायालय ने इसी भरोसे को आगे बढ़ाते हुए पटवारी पुलिस की तमाम जिम्मेदारी व व्यवस्था रेगुलर पुलिस को सौंपने के आदेश जारी किए हैं और अब यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार इस दिशा में क्या कदम उठाती है। अगर सरकारी तंत्र की बात करें तो यह पहली ही नजर में स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक संसाधनों की कमी से जूझ रही उत्तराखंड सरकार अभी नये कर्मचारी भर्ती करने की स्थिति में नहीं हैं और पूर्व से स्थापित थाना क्षेत्रों में होने वाली पेट्रोलिंग व ट्रेफिक सम्बंधी व्यवस्थाओं के लिए पहले से ही होमगार्ड व पीआरडी के दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों पर निर्भर इस प्रदेश की पुलिस व्यवस्था से अगर यह उम्मीद की जाय कि वह अगले छह माह के भीतर पूरे चुस्त-दुरूस्त वाले अन्दाज में पहाड़ों की सुरक्षा व्यवस्था व अपराधों की रोकथाम का सिलसिला सम्भाल लेगी, तो यह एक बेमानी होगी। ऐसी हालत में सरकार के पास विकल्प है कि वह उच्च न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ अपील करे और इस मामले को लेकर सामयिक या पूर्ण राहत की उम्मीद करे या फिर मौजूदा व्यवस्था में ही सेंध लगाते हुए अपने कुछ कर्मचारियों व अधिकारियों को दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्रों में चैकी व थानों का निर्माण कर वहां स्थानान्तरित करे। मौजूदा हालातों के देखते हुए सरकार द्वारा दूसरे विकल्प पर विचार किए जाने की संभावना ज्यादा है क्योंकि अगर सरकार न्यायालय के फैसले के खिलाफ उच्च स्तरीय अपील पर जाती है तो जनता के बीच यह संदेश जाने की संभावना है कि सरकारी तंत्र अपनी रियाया की सुरक्षा व अपराध रोकने के लिए किए जाने वाले प्रयासों को लेकर प्रयत्नशील नहीं है और न्यायालय के स्पष्ट आदेशों के बावजूद सरकार अपनी जिम्मेदारी से बचने के चोर दरवाजे तलाश रही है लेकिन सवाल यह है कि क्या पहले से ही कर्मकारों व निचले स्तर के अधिकारियों के आभाव से जूझ रही हमारी पुलिस व्यवस्था अपने मौजूदा संसाधनों के बलबूते इतनी बड़ी जिम्मेदारी सम्भाल पाएगी और मैदानी क्षेत्रों में तैनाती के दौरान ही सुविधाजनक व कमाई वाले थानों व चैकियों में जमे रहने के लिए कई तरह के जुगाड़ व दबाव बनाने वाले पुलिस विभाग के तमाम निचले स्तर के कर्मचारी व अधिकारी इतनी आसानी के साथ पहाड़ चढ़ने को तैयार हो जाएंगे? यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि अपनी चैबीस घंटे की नौकरी, कम वेतनमान और अन्य तमाम तरह की समस्याओं के खिलाफ पिछले कुछ ही अंतराल में दो बार पुलिस कर्मियों द्वारा बगावती तेवर अपनाते हुए विरोध प्रदर्शन करने अथवा कार्य बहिष्कार को लेकर माहौल बनाने की खबरें आ चुकी हैं और सत्ता के उच्च सदनों में बैठे नेताओं व सत्ता संचालन के लिए जिम्मेदार नौकरशाही ने कर्मचारियों के इस आक्रोश को दोनों ही बार अनुशासन का नाम देकर बेरहमी से कुचला है लेकिन कर्मचारियों की समस्याएं जस की तस हैं। ऐसी हालत में पहले से ही सरकारी कायदे-कानूनों व कार्यशैली को लेकर आक्रोशित पुलिस के कर्मचारियों को अगर जोर-जबरदस्ती अथवा सरकारी आदेशों के अनुपालन का हवाला देकर पहाड़ों की ओर धकेला भी जाता है तो वह व्यापक जनहित में काम कर ही पायेंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। यह माना कि पहाड़ में रोजगार के साधन सीमित हैं और पर्यटन को रोजगार से जोड़ने के लिए पर्यटकों को उनकी सुरक्षा व सुखद यात्रा का भरोसा दिलाना भी जरूरी है। लिहाजा सरकार को आज नहीं तो कल उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों व ग्रामीण इलाकों में रूटीन पुलिस की व्यवस्था सुचारू करनी ही होगी और इसके लिए पहली जरूरत विभाग को तकनीकी रूप से समृद्ध करने की है लेकिन हम देख रहे हैं कि उत्तराखंड सरकार इस दिशा की ओर पूरी तरह से उदासीन दिखाई देती है और तकनीकी व सूचना संचार के इस दौर में भी पुलिस विभाग को तमाम रूटीन किस्म की जांच रिर्पोटों के लिए हफ्तों व महिनों तक इंतजार करना पड़ता है। इसलिए उत्तराखंड के पटवारी पुलिस वाली व्यवस्था के क्षेत्र में सिर्फ रूटीन पुलिस की तैनाती या फिर थाने खोले जाना ही अहम् नहीं है बल्कि इन थाने अथवा चैकियों में पर्याप्त मात्रा में पुलिस बलों की तैनाती और पुलिस के इन जवानों को सुदूरवर्ती थाना क्षेत्रों में रोके रखने के लिए वहां व्यवस्थाओं व जनसुविधाओं का मजबूत होना भी एक बड़ी शर्त है और सरकार के मौजूदा आर्थिक हालात स्पष्ट तौर पर यह इशारा कर रहे हैं कि वह चाहकर भी इन शर्तों को पूरा करने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन उच्च न्यायालय द्वारा निर्गत आदेशों के क्रम में सरकार द्वारा इस दिशा में प्रयास किया जाना और तय समय सीमा के भीतर कुछ तैनातियां किया जाना आवश्यक माना जा रहा है। इसलिए यह स्पष्ट है कि सरकार आधी अधूरी तैयारी के साथ पहाड़ की 160 वर्ष पुरानी पटवारी व्यवस्था में एक ही झटके में बड़ा बदलाव लाने का प्रयास करेगी और एकबारगी के लिए यह महसूस होगा कि मानो सब कुछ ठीक होने की ओर आगे बढ़ रहा हो लेकिन जैसे-जैसे कर व्यवस्था पर दबाव बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे यह तमाम फौरी इंतजाम चरमराकर ढह चुके होंगे और यह निश्चित जानिये कि वह मंजर दिल को दहला देने वाला होगा क्योंकि इन स्थितियों में कानून की रखवाली के लिए जिम्मेदार व्यवस्था खुद ही कई तरह की खामियों से जूझ रही होगी। हम देख रहे हैं कि वर्तमान तक राज्य के चार बड़े जिलों वाले मैदानी इलाकों में विशेष रूप से सक्रिय नजर आने वाली पुलिस अभी भी इन क्षेत्रों में अपराधों की रोकथाम करने व अपराधियों को सजा दिलाने में नाकामयाब दिखती है तथा गाड़ियों के चालान व वीआईपी सुरक्षा के नाम पर यातायात को इधर से उधर डाइवर्ट करने में लगे पुलिस के जवान व इनके वरीष्ठ अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्रों में लगातार घट रहे बड़े अपराधों की वजह का खुलासा करने या फिर नशे के सौदागरों के विकसित तंत्र को तोड़ने में पूरी तरह असफल दिखाई देते हैं। इन हालातों में न्यायालय के आदेशों का अनुपालन करते हुए एक पुरानी परम्परा या सुरक्षा व्यवस्था को एक ही झटके में ध्वस्त कर बिना किसी तैयारी के नयी व्यवस्था की ओर जाना कितना हितकारी होगा कहा नहीं जा सकता लेकिन वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारें व्यापक जनहित को लेकर विशेष रूप से चिंतित भी नहीं हैं बल्कि वह व्यवथाओं के अनुपालन में आगे बढ़ता हुआ दिखना चाहने के साथ ही साथ अपनी वाहवाही चाहती है।

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