महाराष्ट्र की महानगर पालिकाओं व जिला परिषदों पर भाजपा का कब्जा
महाराष्ट्र के नगर निकाय चुनावों में भाजपा की जीत यह साबित करती है कि मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा का परचम तेजी से लहरा रहा है और अब उसे महाराष्ट्र में अपना सिक्का चलाने के लिऐ उद्धव ठाकरे या राज ठाकरे जैसे सहारो की जरूरत नही है लेकिन अगर यह कहा जाय कि महाराष्ट्र की जनता द्वारा लिया गया यह फैसला केन्द्र सरकार द्वारा नोटबंदी समेत अन्य तमाम निर्णयों पर जनता की मोहर है तो यह कहना शायद जल्दबाजी होगी क्योंकि स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाने वाले जिला परिषद् व महानगर पालिकाओं के चुनावों में राज्य सरकार की बड़ी भूमिका होती है और इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता महाराष्ट्र के इन चुनावों में मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस व प्रदेश अध्यक्ष रावसाहेब पार्टी का चेहरा भले ही रहे हो पर मोदी व अमित शाह की जोड़ी का इन चुनावों से कोई लेना देना नही है। यह ठीक है कि उड़ीसा के बाद महाराष्ट्र में भी मिली जीत भाजपा के कार्यकर्ताओं के हौसलें बुलन्द करती है और उ.प्र. में शेष अन्तिम दौर के चुनावों में इस जीत के नतीजों को भुनाने की पूरी कोशिश भाजपा द्वारा की भी जायेगी लेकिन हमें इस हकीकत को भी स्वीकारना होगा कि नगर निकायों के चुनावों में मिली यह जीत दिल्ली व बिहार के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली हार पर मरहम नही लगा सकती और न ही इस तरह की छोटी-मोटी जीत को केन्द्र सरकार के फैसलों पर जनता की मोहर का नाम दिया जा सकता है। हमने पहले भी कहा है कि राम मन्दिर, अखण्ड राष्ट्रवाद व राष्ट्रवादी हिन्दुत्व जैसे तमाम मुद्दों को जनता के एक बड़े हिस्से द्वारा ज्यादा लंबे समय तक तवज्जों न दिये जाने के चलते भाजपा के नीति निर्धारक संघ ने अपनी रणनीति बदली है और अब वह हर छोटे-बड़े चुनावों में हिन्दू व मुस्लिम सम्प्रदाय के छोटे-छोटे विभेद जनता के सामने रखकर अपना जनाधार बढ़ाने की रणनीति पर काम कर रहे है। यहीं कारण है कि पहले सिर्फ शहरी व कस्बाई क्षेत्रों तक सीमित दिखने वाली भाजपा अब तेजी के साथ ग्रामीण अंचलों में भी अपना प्रभाव बढ़ा रही है और एक धर्म विशेष के विरोध में उगला गया संघ प्रचारको का जहर अब उड़ीसा व बंगाल जैसे वामपंथी संस्कृति वाले प्रदेश में भी अपना असर दिखाने लगा है। इसके विपरीत महाराष्ट्र में शिवसेना व मनसे के अति मराठा वाद से पीड़त गैर मराठा आबादी का एक बड़ा हिस्सा राज्य में कांगे्रस के कमजोर हो जाने के बाद अपना रक्षक तलाश रहा है और अगर हम यह कहें कि ठीक नगर निकाय चुनावों से पहले शिवसेना का भाजपा से अलग होेना किसी विवाद का नही बल्कि एक रणनीति का हिस्सा था जिसके दम पर भाजपा के लोग गैर मराठा मतदाताओं राष्ट्रवादी कांगे्रेस व कांग्रेस आई में धु्रवीकरण रोकना चाहते थे, तो शायद यह एक गलत वक्तव्य नही होगा लेकिन इन तमाम सुलह सफाईयों के पीछे एक सच यह भी छिपा है कि न सिर्फ भाजपा ने महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनावों में जीत का परचम लहराया है बल्कि महाराष्ट्र व केन्द्र की सत्ता में भाजपा की सहयोगी शिवसेना जीत के इस क्रम में उससे थोड़ा ही पीछे रहकर दूसरे नंबर की हकदार रही है। अब देखना यह है कि अपनी इस रणनैतिक सफलता के बाद उद्धव क्या चाल चलते है और स्थानीय निकाय चुनावों में मिली इस बड़ी जीत के बाद उनके चचेरे भाई राज ठाकरे व खुद उनके मराठा संकल्प में कितनी तब्दीली दिखती है। यह तथ्य किसी से छुपा नही है कि उद्धव व राज ठाकरे अपने राजनैतिक गुरू व बाप-चाचा से इतर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी की दावेदारी के स्वप्न के साथ राजनीति में आये है और राजनीति के इस खेल में भाजपा को पछाड़े बगैर उन्हें यह सफलता हासिल होने वाली नही है लेकिन उद्धव ठाकरे व राज की मजबूरी यह है कि एक सामूहिक ताकत के रूप में भी वह भाजपा को पछाड़ने में सक्षम नही है क्योंकि शिवसेना व मनसे का क्षेत्रवाद भाजपा के छदम राष्ट्रवाद के आगे बौना पड़ जाता है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा की राजनीति के तमाम दिग्गज अपनी इस जीत का जश्न मनाने के बाद भाजपा-शिवसेना के गठबंधन को लेकर क्या निर्णय लेते है और सत्ता का साझीदार होने के बावजूद बाहर खड़े होकर भाजपा के नेताओं व सरकार को गरियाने वाले शिवसेना के शूरवीर अपनी इस जीत के क्या मायने निकालते है लेकिन इस तमाम धमाचैकड़ी से पहले पांच राज्यो के विधानसभा चुनावों के परिणाम जनता के सामने आ चुके होंगे और पंजाब व गोवा की सत्ता पर कब्जेदारी के खेल में प्रभावी हस्तक्षेप करने का मन बना चुके अरविंद केजरीवाल राजस्थान व महाराष्ट्र समेत अन्य छोटे व भाजपा के राजनैतिक कब्जे वाले सूबो में राजनैतिक धमाल मचाने की नीयत के साथ अपने बाजुओं को तोल रहे होंगे। अगर हमारा अंदाजा सही है तो पंजाब, उत्तराखंड, गोवा व मणिपुर समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चुनावी चेहरा बने नरेन्द्र मोदी को इन तमाम राज्यों में अपनी राजनैतिक हार का अंदाजा आ गया है लेकिन अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ायें रखने व अपनी सरकार द्वारा लिये गये नोटबंदी समेत अन्य तमाम फैसलों पर लगातार बढ़ रहे विपक्षी हमलों को रोकने के लिऐ मोदी व अमित शाह की जोड़ी ने उड़ीसा के बाद महाराष्ट्र के स्थानीय निकायों मे मिली वर्तमान जीत को एक हथियार की तरह इस्तेमाल का मन बनाया है और मीडिया के एक हिस्से में अपने ठीक-ठाक दखल व प्रायोजित विज्ञापनों की धमक से ऐसा माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है कि मानो महाराष्ट्र नहीं बल्कि सारे देश की जनता ने एक बार फिर भाजपा के पक्ष में वोट देकर मोदी सरकार के क्रिया कलापों पर मोहर लगा दी हो। पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद भाजपा में अंदरखाने चल रही कसमकस के अलावा आम आदमी पार्टी व अरविंद केजरीवाल की आगामी रणनीतियों के खुलासे के साथ ही साथ शिवसेना व राष्ट्रवादी कांग्रेस समेत बसपा-सपा जैसे तमाम छोटे दलों के राजनैतिक भविष्य का भी निर्धारण होगा तथा आगामी ग्यारह मार्च के बाद ही यह तय किया जा सकेगा कि एक तानाशाह की तरह अपना फैसला जनता पर लादने वाले मोदी अपनी शेष बची राजनैतिक पारी कैसे खेलेंगे। तब तक के लिऐ हम यह फैसला आप पर छोड़ते है कि आप केन्द्र सरकार के नोटबंदी के फैसले को सही ठहराते हुऐ मोदी व अमित शाह की टोली द्वारा आयोजित जश्न में शामिल होते है या फिर पांच राज्यों की जनता के फैसले का इंतजार करते है।