राजनैतिक लाभ के उद्देश्यों से आजादी के इतिहास व नव भारत निर्माण में नेताओ या राजनैतिक दलो की भूमिका पर सवाल उठाने की बढ़ती प्रवर्ति वाकई चिन्ताजनक।
देश की आजा़दी के इन सत्तर सालो में हमने क्या खोया और क्या पाया, यह एक बड़ा वाजिब सा सवाल है जो वक्त वे वक्त हर आमोखास के मनोमस्तिष्क में आ ही जाता है और सत्ता की राजनीति करने वाले लोग अपने राजनैतिक नफे-नुकसान के हिसाब से इस सवाल की गम्भीरता को कम या ज्यादा करने में जुटे रहते है लेकिन जब दलाई लामा जैसा धार्मिक व्यक्तित्व देश की आजा़दी के वक्त सर्व सम्मति से लिये गये कुछ फैसलो पर सवालिया निशान उठाते है तो एक भूचाल सा आ जाता है। हाॅलाकि इस विषय पर गम्भीर चर्चा की जानी चाहिऐं कि भारत में शरणार्थी का जीवन बिता रहे दलाई लामा व उनके अनुयायियों को इस देश के आन्तरिक मामलो में किस हद तक हस्तक्षेप अथवा बयानबाज़ी करनी चाहिऐं और अगर अन्र्तरराष्ट्रीय स्तर के आध्यामिक नेता होने के नाते वह कोई बयान देते भी है तो क्या उन्हे इस सम्पूर्ण परिपेक्ष्य में तथ्य व सबूतो को सामने रखकर अपनी बात को स्पष्ट नही करना चाहिऐं लेकिन अफसोसजनक है कि देश में मुसलिमों के विरोध की राजनीति कर रहा एक राजनैतिक समूह दलाई लामा के इस बयान को तर्को की कसौटी पर कसे बिना ही ले उड़ा और इसका जिस अन्दाज़ में प्रचार-प्रसार किया गया उससे यह स्पष्ट है कि अपने तत्कालिक राजनैतिक लाभ व देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को वोट-बैंक के रूप में एकजुट रखने के लिऐ नेताओ के इस तबके को अपने इतिहास से छेड़छाड़ करने से भी कोई गुरेज नही है। काबिलेगौर है कि दलाईलामा का यह बयान ऐसे वक्त में सामने आया है जब देश में रोहिग्यां मुसलमानों की घुसपैठ को लेकर राजनैतिक घमासान की स्थिति है तथा काॅग्रेस समेत देश के तमाम विपक्षी राजनैतिक दल मानवीय आधारो पर मुसलिमों की इस बड़ी आबादी की नागरिकता के सवाल पर नम्रता से विचार करनेे के पक्षधर दिखाई देते है। हमें यह भी याद रखना होगा कि चीन के राजनैतिक विरोध के बावजूद दलाईलामा समेत तिब्बत की एक बड़ी आबादी को भारत में न सिर्फ शरण देने बल्कि उनके रहन-सहन व व्यवसाय को लेकर हर तरह की व्यवस्थाऐं सुलभ करवाने के चलते भारतीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी तत्कालीन नेताओ की मंशा पर प्रश्नचिन्ह लगाता रहा है तथा भारत में रहकर अपनी निर्वासित सरकार चला रहे दलाई लामा व उनकी रियाया की आबादी को लेकर आज भी कई सवाल खड़े किये जाते रहे है। इन हालातो में अगर दलाईलामा द्वारा तत्कालीन सरकार के फैसलो पर सवाल खड़े किये जाते है तो इससे उनकी मुश्किलें भी बढ़ सकती है और भारत की आजा़दी के आन्दोलन को लेकर खड़े किये गये सवाल पाकिस्तान के निर्माण से लेकर वर्तमान तक के फैसलो पर प्रश्नचिन्ह लगाते प्रतीत होते है। क्या एक गैर भारतीय द्वारा किये गये इस कृत्य को सहजता से स्वीकार किया जा सकता है और उनके द्वारा राजनैतिक मजबूरी अथवा अन्य किन्ही कारणों से बेवजह उठाये गये इन प्रश्नो को वाकई इतना तूल दिये जाने की आवश्यकता है जितनी कि इनपर चर्चा हो रही है। यह माना कि अपने बयान पर मचे हड़कम्प के बाद दलाईलामा ने अपने शब्दो को वापस लेते हुऐ स्थिति को सम्भालने की कोशिश की है और काॅग्रेस भी इस विषय पर ज्यादा मुखर नज़र नही आ रही लेकिन यह सवाल अपनी जगह कायम है कि क्या भारत में होने वाले हर छोटे-बड़े राजनैतिक परिवर्तन के बाद इतिहास को एक नये नज़रिये से देखे जाने की जरूरत है और देश की सत्ता पर काबिज राजनैतिक विचारधारा वाकई यह कहने की स्थिति में है कि देश की आज़ादी के बाद लम्बे समय तक सत्ता पर काबिज रहे राजनैतिक दलो ने इस राष्ट्र के समग्र विकास की दृष्टि से कुछ काम ही नही किये। यह हो सकता है कि भारत -पाक बटॅवारे के वक्त कुछ राजनैतिक कारणो से तत्कालीन मुसलिमों की एक बड़ी आबादी को सीमा के उस पार जाने के लिऐ मजबूर न किया गया हो और वर्तमान में सीमापार से घुसपैठ करते बताये जा रहे तथा कथित बग्लादेशियों अथवा रोहिग्ंयाओ की एक बड़ी आबादी का मानवीय दृष्टिकोण से समर्थन करने के पीछे कुछ लोगो के राजनैतिक स्वार्थ भी छिपे हो लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत की इस पवित्र भूमि पर रहने अथवा गुज़र बसर करने का अधिकार यहाॅ की मुसलिम आबादी के स्थान पर उन तिब्बती शरणार्थियो को ज्यादा है जो अपनी सस्ंकृति व सभ्यता बचाये रखने के नाम पर वर्तमान तक एक समानान्तर व्यवस्था कायम रखने के पक्षधर है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि देश की आजा़दी के वक्त सड़को पर संघर्ष करने वाली एक पूरी पीढ़ी में से अधिकतर लोग अब इस दुनिया में नही है और देश की राजनैतिक सत्ता से लेकर जनसामान्य तक की आबादी में ऐसे लोगो का बाहुल्य है जिन्होने देश की आजादी के आन्दोलन की कहानी को सिर्फ पढ़ा अथवा सुना है। इसलिऐं मनगणन्त फैसलो के आधार पर बिना किसी तर्क अथवा तथ्य के तत्कालीन परिस्थ्तिियों पर सवाल खड़े करना अथवा नेताओ की मनोस्थिति पर सवाल खड़े करना कितना वाजिब कहा जा सकता है इसका फैसला सरकारी तन्त्र को करना चाहिए लेकिन अफसोसजनक है कि अपने राजनैतिक लाभ के लिऐ सत्ता पक्ष इतिहास से जुड़े तथ्य को न सिर्फ तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर रहा है बल्कि सत्ता के उच्च सदनो पर काबिज नेताओ के बयानो से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि राष्ट्र निर्माण के इन सत्तर वर्षो में से अधिकांश समय हमने सिवाय भ्रष्टाचार के कुछ किया ही न हो और राष्ट्रीय अथवा वैश्विक स्तर पर हमें जो भी उपलब्धियाॅ हासिल हुई है उनके लिऐ यह दो-चार सालो का दौर व वर्तमान नेता ही जिम्मेदार हो। यह ठीक है कि तत्कालिक राजनीतिक जरूरतो को देखते हुऐ अथवा जनभावनाओ को साथ लेकर चलने के लिऐ समर्थको का जोश में होना जरूरी है और समर्थको में जोश भरने की नीयत से इतिहास के साथ की जाने वाली थोड़ी बहुत छेड़छाड़ को किसी भी राजनैतिक दल की मजबूरी माना जा सकता है लेकिन अगर हम पूरी तरह इतिहास को नकारने वाली स्थिति में आ जाये और देश की आजा़दी के आन्दोलन से जुड़े तमाम स्वर्णिम पल हमें मायूस करने लगे तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी केे लिऐ क्या सबक छोड़कर जायेंगे, कहा नही जा सकता। यह माना कि हमारे अग्रजो से राजनैतिक फैसले लेते वक्त कई गलतियाॅ भी हुई होंगी और जल्द से जल्द आजादी पाने के जुनून में या फिर आजादी मिलने के बाद देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने की जल्दबाजी में उन्होने तत्कालीन परिस्थितियों व अपनी समझ के हिसाब से कई गलत या सही फैसले भी लिये होंगे लेकिन वर्तमान दौर में यह एक बड़ा सवाल है कि हम क्या कर रहे है? क्या पिछली सरकारों की खामियाॅ भर गिनाने से या फिर बार-बार घुमा फिराकर तथाकथित भ्रष्टाचार के किस्से उखाड़कर सुनाने भर से मुल्क में तरक्की आ सकती है या फिर देश की आबादी के एक बड़े हिस्से के बीच भय और संदेह का माहौल पैदा कर चुनाव जीत जाने भर से भारत को एक अग्रणी मुल्क बनाया जा सकता है। यह कुछ ऐसे सवाल है जिनका जबाव हमारे राजनेताओं ने आज नही तो कल देना ही होगा और इन सवालो के जबाव की तलाश के लिऐ देश की आजादी के इतिहास एवं आज़ादी के बाद इस सात दशक लम्बे दौर में विभिन्न राजनैतिक दलो व विचारधाराओ वाली सरकार द्वारा लिये गये राजनैतिक फैसलो को जनपक्षीय नज़रिये से देखा जाना जरूरी है लेकिन अफसोसजनक है कि सत्ता को पाने व अपनी कब्जेदारी बनाये रखने की हवस ने हमें इस कदर बेईमान बना दिया है कि हम पुरानी गलतियों को सुधारने के दृष्टिकोण की जगह स्वाधीनता संग्राम के अमर सपूतो की कमियाॅ ढूढ़ने व उनको बदनाम करने की राजनीति कर रहे है। बहुत अफसोस होता है जब नेता सार्वजनिक मंचो पर चढ़कर जनता से ‘‘हम आपके लिऐ क्या-क्या कर सकते है‘‘ जैसा साधारण सवाल पूछने की जगह पिछली सरकार की उपलब्धियों व विकास को ताक पर रखकर यह सवाल उठाते है कि इन सत्तर सालो में देश में क्या हुआ और देश की आजादी के आन्दोलन से लेकर वर्तमान तक कहाॅ-कहाॅ एवं क्या गलतियाॅ हुई लेकिन इन गलतियों को सुधारने का कोई रास्ता उनके पास नही होता और न ही ऐसे लोग अपनी भावी व जनकल्याणकारी योजनाओ को लेकर सचेत ही दिखते है। मौजूदा दौर में आजादी के वक्त हुऐ भारत-पाक बटॅवारे को गलत मानने वालो की एक बड़ी संख्या है तथा इनमें कुछ लोग इस बात से भी सहमत है कि तत्कालीन काॅग्रेस के वरीष्ठ नेता पं0 जवाहर लाल नेहरू ने सत्ता के शीर्ष पर अपनी कब्जेदारी को मद्देनज़र रखते हुऐ महात्मा गाॅधी के साथ मिलीभगत कर इस दुष्कृत्य को अंजाम दिया लेकिन वर्तमान में भारत को एक वैश्विक ताकत घोषित करने के बावजूद इन नेताओ के पास इस भूल सुधार की कोई राह नही है बल्कि इनके बयानो व भाषणो पर गौर किया जाये तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह लोग लोकतान्त्रिक भारत में सामाजिक वैमनस्यता फैलाकर एक और पाकिस्तान के निर्माण की राह में आगे बढ़ रहे हो या फिर इनका इरादा देश की आबादी के एक हिस्से को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखने का हो। हो सकता है कि राजनैतिक तौर पर नेताओ को यह रणनीति सत्ता पर कब्जेदारी में उनकी मददगार साबित हो रही है और मतदाताओं के एक हिस्से को भी यह महसूस हो रहा हो कि इस तरह के छद्म् राष्ट्रवाद के जरिये राष्ट्र को उन्नति के नये शिखरों तक ले जाया जा सकता है लेकिन अगर हकीकत में देखा जाय तो सत्ता पर कब्जेदारी की नीयत से किये जा रहे इस तरह के तमाम कृत्य देश के संविधान की आत्मा पर प्रहार करते हुऐ ही महसूस होते है और संविधान की आत्मा को कचैट कर हम कभी भी आजादी का जश्न नही मना सकते।