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Friday, March 29, 2024

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आरक्षण की आग।

 

युवाओ जातिगत् समूहो को भड़काकर हिंसक आन्दोलनो को हवा देने के पीछे क्या है राजनेताओ की महत्वाकांक्षा।

गुजरात,राजस्थान और हरियाणा के बाद अब आरक्षण को लेकर महाराष्ट्र में भी घमासान की स्थिति है तथा पटेल, गुर्जर, जाट आदि के बाद अब मराठे भी अपने पिछड़ेपन का हवाला देते हुऐ सरकारी नौकरियों व अन्य सुविधाओ में आरक्षण की मांग को लेकर सड़क पर उतर व्यवस्थाओ को पंगु बना सरकारी तन्त्र को दबाब में लेने का खेल खेलने में जुटे है। हाॅलाकि यह कहना कठिन है कि सरकार आन्दोलनरत् मराठा समुदाय को किस हद तक सतुंष्ट कर पायेगी और आश्वासनों अथवा सुलह समझौतो के आधार पर देर-सवेर खत्म होने वाले इस आन्दोलन के बाद महाराष्ट्र के बेरोज़गार युवाओ को क्या फायदा या नुकसान होगा लेकिन हालात यह इशारा कर रहे है कि वोट-बैंक की इस राजनीति के चक्कर में देश एक ऐसे मझॅधार में फॅसता चला जा रहा है जहाॅ से निकल पाना नामुमकिन नही तो मुश्किल जरूर है और मुश्किल की इस घड़ी में नेताओ का अपने स्वार्थ से अलग हटकर न सोच पाना यह दर्शाता है कि लोकतन्त्र की रक्षा के लिऐ अपने संवेधानिक अधिकारों का उपयोग करने एंव सबको साथ लेकर चलने का दावा करने वाले हमारे जनप्रतिनिधि अपने निजी स्वार्थो की लड़ाई व कुर्सी के मोह में इस कदर डूब गये है कि उन्हे इस संकट का कोई समाधान ही नही सूझ रहा है। अगर आरक्षण को लेकर किये गये संवेधानिक प्रावधानो पर एक नज़र डाले तो हम पाते है कि देश की तथाकथित रूप से दलित व पिछड़ी जातियों के सामाजिक व आर्थिक उत्थान को दृष्टिगत् रखते हुऐ की गई इस संवेधानिक व्यवस्था का देश की आजादी के इन सत्तर वर्षो बाद भी आपेक्षित लाभ नही मिल पाया और न ही सरकार की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त सामाजिक व आर्थिक असमानता को दूर करने के ही कोई गम्भीर प्रयास किये गये। नतीजतन आरक्षण जैसी संवेधानिक व्यवस्था का लाभ कुछ समूहो तक ही सिमट कर रह गया और सरकार द्वारा इस दिशा में किये जा रहे प्रयासों का राजनैतिक लाभ लेने के लिऐ नेताओ व राजनैतिक दलो ने इस व्यवस्था को कुछ इस तरह प्रचारित किया कि मानो संविधान में किये गये इस विशेष प्रावधान के माध्यम से कोई बड़ी सामाजिक क्रान्ति आने जा रही हो। यह ठीक है कि संविधान द्वारा स्थापित व्यवस्था के तहत बनाये गये कानूनो के माध्यम से कुछ हद तक छुआछूत व सामाजिक तिरस्कार जैसी घटनाओं में कमी आती महसूस की गई और यह भी माना गया कि समाज के सभी वर्गो के साथ बैठकर काम करने अथवा उनके धार्मिक व सामाजिक क्रियाकलापों को लेकर कुछ सामान्य से नियम बनाये जाने के बाद हालातों में एक हद तक सुधार आया है लेकिन जहाॅ तक सरकारी नौकरी अथवा आम आदमी का आर्थिक स्तर उठाये जाने से सम्बन्धित सरकारी योजनाओ का सवाल है तो यह देखा और महसूस किया जा सकता है कि सबके लिऐ समान रूप ये लागू की गई आरक्षण की व्यवस्था का फायदा अधिकांश रूप से पहले से ही सक्षम कुछ जातियों व परिवारों को ही मिला तथा अब कुछ अन्य सक्षम व जातिगत् रूप से संगठित सामाजिक ताकतें अपने वोट-बैंक का भय दिखाकर आरक्षण की इस व्यवस्था को तहस-नहस कर देने की दिशा में आगे बढ़ रही है। हो सकता है कि आरक्षण के मुद्दे पर आन्दोलनरत् मराठा,पटेल,गुर्जर व जाट जैसे समुदायो का अपने आन्दोलनों को खड़ा करने के पीछे मुख्य उद्देश्य किसी अन्य समुदाय के हितो पर कुठाराघात करना या उसके अधिकारों का हनन करना न हो और इन तमाम जातिगत् समुदायों के नेताओ को यह महसूस होता हो कि उनके जातिगत् बाहुल्य क्षेत्र में होने वाले सरकारी कामकाज में उनकी जातीय भागीदारी कतई नही के बराबर है लेकिन इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि तथाकथित दलित व अन्य पिछड़े समुदायों की अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से ज्यादा सक्षम व सामाजिक रूप से संगठित इन आरक्षण के मुद्दे पर आन्दोलनरत् जातिगत् संगठनो को किसी भी कीमत पर राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग-थलग नही माना जा सकता और न ही इस तर्क को स्वीकार किया जा सकता है कि इन जातिगत् समूहों को सिर्फ इसलिऐं आरक्षण के दायरें में लिया जाना चाहिऐं क्योंकि यह लोग एक संगठित ताकत के रूप में न सिर्फ चुनावी राजनीति अथवा राजकाज को प्रभावित कर सकते है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर अथवा अपना शक्ति प्रदर्शन करने के उद्देश्य से सरकारी व्यवस्थाओं को पंगु बनाना भी इनके लिऐ आसान है। यह माना कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में जनमत काफी महत्व रखता है और किसी भी राज्य अथवा देश के माध्यम से चुनी गई सरकार को यह हक है कि वह जनभावानाओं के अनुरूप फैसले लेते हुऐ संविधान में वक्त व ज़रूरत के हिसाब से संशोधन कर सके लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नही है कि सरकारी तन्त्र आन्दोलन के नाम पर हिंसा फैलाने को उतारू अराजक तत्वो के सामने झुक जाये और संविधान में की गई आरक्षण की व्यवस्था के मूल में छिपे कारणों की अवहेलना करते हुऐ इस संवेधानिक व्यवस्था को एक मज़ाक मात्र बना दिया जाये। वर्तमान में हो यही रहा है और वोट-बैंक की राजनीति के चलते तमाम आन्दोलनरत् व अराजक समूहो को दिये जा रहे आरक्षण के दायरे में रखे जाने के राजनैतिक आश्वासन के जऱिये हमने यह हालात पैदा कर दिये है कि समाज का लगभग हर तबका अपने लिऐ एक अलग व्यवस्था चाहता है लेकिन सवाल यह है कि क्या कोई भी सरकार अथवा राजनैतिक दल इन व्यवस्थाओं को लागू करने में सक्षम भी है अथवा नही। हम यह देख व महसूस कर रहे है कि देश की लगातार बढ़ती जा रही आबादी के बावजूद विभिन्न राज्यों व केन्द्रो की सरकार अपने आधारभूत ढ़ाॅचे में सरकारी नौकरियों के अवसर लगातार कम करने में जुटी है और बजटीय प्रावधानो के अन्र्तरगत् शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक कल्याण जैसे क्षेत्रो में लगातार कम हो रही आंवटित धनराशि यह इशारा कर रही है कि व्यापक जनकल्याण व आम आदमी की सहूलियत के लिऐ काम करने वाली सरकारी व्यवस्था की मंशा में अब धीरे-धीरे कर तब्दीली आ रही है लेकिन जनसामान्य का ध्यान अपनी इस कारगुजा़री से हटाने के लिऐ नेता व राजनैतिक दल जन साधारण के बीच यह माहौल बनाने में कामयाब है कि उनको न मिल पानेे वाली सरकारी सुविधाओ अथवा रोज़गार के अवसर के लिऐ देश में लागू आरक्षण की व्यवस्था ही ज़िम्मेदार है और शायद यही वजह है कि देश में पहले आरक्षण विरोधी आन्दोलन तथा वर्तमान में आरक्षण के दायरे में रखे जानेे को लेकर जा़ेर पकड़ता दिख रहा हिंसक संघर्ष चर्चाओ का विषय बना हुआ हैं।
कितना आश्चर्यजनक है कि एक संवेधानिक रूप से चुनी गई और जनता के प्रति जबावदेह सरकार चालू सदन में यह स्वीकार करती है कि उसके पास देश में लगातार बढ़ रही बेरोज़गारी अथवा पिछले कुछ वर्षो में बेरोज़गारो को उपलब्ध कराये गये रोज़गार के परिपेक्ष्य में कोई स्पष्ट आॅकड़े नही है और शिक्षा के व्यवसायिकरण के इस दौर के हर नागरिक को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराये जाने के स्थान पर सरकारी तन्त्र का पूरा ज़ोर प्राथमिक शिक्षा केन्द्रो से लेकर महाविद्यालयों व तकनीकी शिक्षा के केन्द्रो में ड्रेस कोड लागू करने अथवा राष्ट्रगान का सामूहिक गायन करवाने पर ज्यादा दिखाई देता है किन्तु इस सबके बावजूद जनता की ओर से व्यवस्था पर कोई सवाल उठता नही दिखता और न ही युवाओ व छात्रो के हितो को लेकर सघंर्ष करने का दम भरने वाले तमाम संगठन सरकार से यह प्रश्न पूछने का साहस करते है कि उनके भविष्य को दृष्टिगत् रखते हुऐ सरकार किन नई योजनाओ पर काम कर रही है। इन हालातो में सरकार अथवा सरकार बनाने व चलाने के खेल में अभिरूचि रखने वाले राजनैतिक गिरोहों का जनमत को अपने पक्ष में करने के लिऐ देश की युवा शक्ति को दिग्भ्रमित करना आसान हो जाता है और चुनावी मंचो से बड़ी-बड़ी घोषणाऐं व वादे करने वाले लोग अपने हित साधने के लिऐ आरक्षण के विरोध अथवा उपद्रव का खेल खेलते है। सवाल यह है कि क्या इस तरह के उपद्रवों को हवा देने वाले लोग अथवा जातिगत् समूहों के नेता यह नही जानते कि समाज में लगातार बढ़ रही बेकारी अथवा बेरोज़गारी के लिऐ आरक्षण की व्यवस्था नही बल्कि सरकारी कामकाज के तौर-तरीके और वह तमाम फैसले जिम्मेदार है जिन्हे उदारवादी अर्थव्यवस्था को अंगीकार करने अथवा आर्थिक सुधारों को लागू करने के नाम पर देश पर लाद दिया गया है।

 

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