आर्थिक संसाधनों की कमी व बजट के आभाव से जूझ रही सरकार के सहयोग से भाजपा ने प्राप्त किया उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में पूर्व निर्धारित लक्ष्य।
आजीवन सहयोग निधि के रूप में तयशुदा लक्ष्य से कहीं अधिक रकम जुटा पाने में कामयाब रही उत्तराखंड की भाजपा ने राज्य की जनता को सुशासन देने व आम आदमी के रोजगार या आय के अन्य संसाधनों को लेकर क्या लक्ष्य निर्धारित किया है यह तो पता नहीं लेकिन राज्य में गठित भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार जिस अन्दाज में काम कर रही है और एक वर्ष से भी कम समयान्तराल में सरकार की कार्यशैली व फैसलों को लेकर जिस तरह सवाल खड़े किये जा रहे हैं, उसे देखते हुए यह अन्दाजा लगाया जाना मुश्किल नहीं है कि मजबूत वित्तीय संसाधनों के बावजूद भाजपा की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी होना अब आसान नहीं है। हालांकि संगठन के शीर्ष नेतृत्व द्वारा निर्देशित इस आजीवन सहयोग निधि कार्यक्रम हेतु सत्ता पक्ष में मंत्रियों एवं विधायकों में कांटे की टक्कर देखी गयी तथा संगठन से जुड़े पदाधिकारियों ने भी इस आयोजन में पूरी मेहनत के साथ भागीदारी की लेकिन किसी भी तर्क अथवा तथ्य के आधार पर यह कहा जाना न्यायोचित नहीं है कि राज्य की जनता ने भाजपा के इस आवाह्न पर स्वतः व बिना किसी दबाव के भागीदारी की तथा वित्तीय संसाधनों के आभाव से जूझ रही राज्य की जनता बिना किसी तकलीफ के बस यूं ही भाजपा की सहयोग निधि के रूप में एक बड़ी राशि जुटाने पर सहमत हो गयी। यह माना कि सत्ता पक्ष की ओर से जबरिया वसूली जैसी कोई खबर नहीं है और न ही किसी पीड़ित ने यह शिकायत ही दर्ज करायी है कि भाजपा के नेता अथवा कार्यकर्ता उन पर चन्दा देने के लिए कोई दबाव बना रहे हैं लेकिन इस सबके बावजूद इस तथ्य का अंदाजा लगाया जाना मुश्किल नहीं है कि इतनी बड़ी रकम का इंतजाम सत्ता की ताकत के बेजा इस्तेमाल के बगैर नहीं किया जा सकता और उस प्रदेश में तो कतई नहीं जहां ट्रांसपोर्ट व्यवसायी आत्महत्या की कगार पर खड़े हों या आत्महत्या कर रहे हैं अथवा ठेकेदारों की एक पूरी की पूरी बिरादरी अपने भुगतानों व काम धंधे से जुड़ी अन्य समस्याओं को लेकर लम्बे समय से आंदोलन पर हों। ठीक इसी क्रम में यह जिक्र किया जाना भी आवश्यक है कि जिस राज्य का आम निवासी संसाधनों के आभाव में अपने मूल व पैतृक आवासों को छोड़कर राज्य के मैदानी इलाके में अथवा राज्य से बाहर पलायन को मजबूर हो तथा स्पष्ट नीतियों के आभाव में जहां खेत की खड़ी फसलें व अन्य कृषि उत्पाद, बन्दरों या अन्य जंगली जानवरों की भेंट चढ़ रहे हों, वहां यह उम्मीद करना भी बेमानी है कि राज्य की आम जनता ने पार्टी फण्ड बनाने के लिए इस बेहिसाब अन्दाज में पैसा खर्च किया होगा कि राशि पच्चीस करोड़ से भी ऊपर पहुंच जाने के बावजूद पार्टी के नेता यह बताने में भी असमर्थ दिख रहे हों कि बकाया राशि कितनी हो सकती है या फिर अभी और कितनी धनराशि एकत्र किया जाना बाकी है लेकिन इस सबके बावजूद यह एक कटु सत्य है कि भाजपा ने अपनी आजीवन सहयोग निधि के नाम से उत्तराखंड में ठीक-ठाक राशि जुटा ली है और इससे भी बड़ी बात यह है कि भाजपा ने इस राशि का खर्च चुनाव प्रचार में करने के स्थान पर इसके ब्याज का उपयोग करने का फैसला लिया है। नेताओं के बयानों से साफ जाहिर होता है कि वह चुनावी चंदे को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित नहीं हैं या फिर उनके पास ऐसे तमाम संसाधन हैं जिनके आधार पर वह चुनावों के वक्त हार-जीत का दांव खेलने के लिए आवश्यक धनराशि आसानी से जुटा सकें। यह स्वयं में आश्चर्यजनक कर देने वाला तथ्य है कि जिस राज्य में सत्ता पक्ष अपनी पूर्ववर्ती सरकारों पर सरकारी धन की बंदरबांट करने के आरोप लगाते हुए धनाभाव के चलते तमाम विकास योजनाओं को बंद करना अपनी मजबूरी बताता हो तथा आन्दोलनरत् सरकारी कर्मियों को आर्थिक संसाधनों की कमी का रोना रोते हुए मितव्ययिता का पाठ पढ़ाया जाता हो उसी राज्य में सत्ता पक्ष के लिए करोड़ों का राजनैतिक चन्दा जुटाना या फिर नेताओं का आगामी चुनावों के खर्च को लेकर बेफिक्र दिखाई देना, एक बड़ा विषय माना जा सकता है लेकिन समूचे विपक्ष समेत राज्य की तमाम क्षेत्रीय आन्दोलनकारी ताकतें व सामाजिक संगठन इस विषय पर खामोश दिखाई दे रहे हैं और अगर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत द्वारा सरकार पर लगाये गए जिलाधिकारियों के माध्यम से चन्दा इकट्ठा करने के आरोपों को दरकिनार किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो समाज ने इस राजनैतिक भ्रष्टाचार को स्वीकार कर लिया है। इस बात की सम्भावना कम ही है कि भाजपा इस आजीवन निधि में सहयोग करने वाली हस्तियों के नाम सार्वजनिक करने की हिम्मत जुटा पायेगी और चैक व नकद राशि के रूप में एकत्र की गयी इस बढ़ी धनराशि के सभी दानदाताओं के नामों का खुलासा जनता की अदालत में होगा लेकिन अगर किसी भी तरह यह संभव हो पाया तो जनसामान्य को यह समझने में देर नहीं लगेगी कि भाजपा के नेता सत्ता के शीर्ष पदों पर काबिज होने के बाद पहाड़ों पर शराब की दुकानंे खुलवाने के लिए संकल्पबद्ध क्यों थे या फिर राज्य में एकाएक ही बढ़ी खनन सामग्री की कीमतों के लिए कौन जिम्मेदार है। हालांकि भाजपा के तमाम छोटे या बड़े नेता अपनी ईमानदारी का स्वांग भरते रहते हैं तथा अपनी एक वर्ष की उपलब्धियों को जनता के बीच ले जाने के लिए बेकरार त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार प्रदेश की जनता के अलावा अपनी ही पार्टी के नेताओं व विधायकों की नाराजी को भी दरकिनार कर अपनी कुर्सी सुरक्षित मानकर चल रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा के इन नेताओं व सत्ता के शीर्ष पर काबिज तथाकथित जनप्रतिनिधियों की असलियत किसी से छिपी नहीं है और चुनावी मोर्चे पर ठगा गया आम आदमी एक बार फिर अपनी बारी का इंतजार कर रहा है। हमने देखा कि मौजूदा सरकार ने किस प्रकार सत्ता के शीर्ष पर काबिज होते ही निजी स्कूलों में लिए जाने वाले प्रवेश शुल्क, स्कूल फीस, डेªस व काॅपी-किताबों की बिक्री को लेकर एक माहौल बनाया और सत्तापक्ष की सहयोगी राजनैतिक विचारधारा से जुड़े छात्र संगठन ने इन तमाम विषयों पर सड़क में आन्दोलन कर दबंगई व डर का माहौल पैदा किया लेकिन अगर भाजपा की दानदाता सूची पर नजर डालने का एक मौका मिले तो यह आसानी से साबित हो जाएगा कि सरकार की ओर से की गयी यह तमाम कोशिशें आम आदमी को राहत पहुंचाने के लिए नहीं बल्कि अपना एक अलग वसूली तंत्र तैयार करने के लिए थी। अगर सूत्रों से मिल रही जानकारी को सही मानें तो हम पाते हैं कि शराब व खनन व्यवसायियों के बाद भाजपा की आजीवन सहयोग निधि में दान देने वालों की बड़ी संख्या निजी स्कूल मालिकों या उन्हें चलाने वाली संस्थाओं की है तथा इसके लिए भाजपा के नेताओं के अलावा कुछ सरकारी कर्मकारों की ओर से भी स्थान व छात्र संख्या के आधार पर सहयोग राशि निर्धारित करने में मदद की गयी बतायी जा रही है। हो सकता है कि इस पूरी जद्दोजहद के पीछे सरकार व भाजपा का इरादा नेक हो और राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा राजनैतिक कोष स्थापित करने के बाद यह संगठन राजनीति में शुचिता व आदर्शों की दिशा में आगे बढ़ना चाहता हो लेकिन सवाल यह है कि क्या सत्ता के डण्डे का भय दिखाकर एक गरीब राज्य से इस तरह करोड़ों का चंदा एकत्र करने का यह भाजपाई तरीका ठीक कहा जा सकता है और भाजपा का राजनैतिक विचारक कहा जाने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यकर्ता आज यह कहने की स्थिति में है कि भाजपा जनसामान्य को साथ लेकर चलने वाला राजनैतिक दल है। यह माना कि पिछले कुछ वर्षों में राजनैतिक मान्यताएं व प्राथमिकताएं बहुत तेजी से बदली हैं तथा भाजपा के सबसे बड़े चुनावी चेहरे नरेन्द्र मोदी के देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद यह भी तय हो गया है कि भाजपा अब अपने चुनावी वादों एवं नारों के प्रति गंभीर नहीं है लेकिन इस सबके बावजूद वर्तमान तक देश के तमाम राजनैतिक दलों व नेताओं में खुद को ईमानदारी के साथ खड़ा दिखाने की एक परम्परा रही है जिसे भाजपा ने पूरी तरह झकझोर दिया है और यहां पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि परम्पराओं व मान्यताओं के टूटने या खारिज किए जाने के कई कटु व मधुर अनुभव हमारे समाज को हैं। अब देखना यह है कि भाजपा इन अनुभवों से क्या हासिल करती है तथा देश के अन्य हिस्सों में उसकी इस आजीवन सहयोग निधि को लेकर क्या सवाल उठते हैं। उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में यह कहा जाना पर्याप्त है कि इस राज्य की जनता निर्विकार भाव से सब कुछ देख व सुन रही है और यह सब कुछ किसी बड़े तूफान से पहले की शान्ति का संकेत मालूम देता है।