लोकतान्त्रिक सरकारों के गठन के इस दौर में पीछे छूट रहा है आम आदमी।
मणिपुर समेत पूर्वोत्तर के तमाम राज्य आज भी उत्तर भारत समेत अन्य हिन्दी भाषी राज्यो में चर्चाओं का विषय नही बन पाते और शायद यहीं एक बड़ा कारण है कि हाल ही में हुऐ पाॅच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजो के सामने आने के बाद मणिपुर की आयरन लेडी कहीं जाने वाली शर्मिला इरोम को मणिपुर की चुनावी जंग में मिले मात्र नब्बेे मत हमारी बातचीत का हिस्सा नही बन पाये। हाॅलाकि शार्मिला को नब्बे मत मिलना कोई पहली या नई घटना नही है बल्कि इससे पूर्व में भी टीएन शेषन समेत कई जनवादी विचारको व आन्दोलनों के जरिये जनता की आवाज उठाने वाली मेधा पाटेकर जैसी नेत्रियों को स्थानीय जनता ने वोटो की राजनीति में नकारा है और यूपी समेत उत्तराखण्ड व पंजाब में भी जनान्दोलनों का नेतृत्व करने वाली आन्दोलनकारी ताकते जनहित की इस लड़ाई में हारती हुई दिखाई दी है लेकिन अफसोसजनक है कि जनान्दोलनों के प्रणेताओ ने कभी भी इस विषय पर विचार विमर्श की जरूरत महसूस नही की और चुनाव दर चुनाव राजनीति में घटती जा रही जनपक्ष की इस आवाज को मतदान से पूर्व बॅटने वाली शराब या पैसे का हवाला देकर जनता की इच्छाओं के सम्मान के नाम पर जनचर्चाओं को बीच में ही छोड़ दिया जाता है। वैसे अगर स्वतन्त्रता आन्दोलन के बाद बनी देश की पहली लोकसभा व राज्यों की विधानसभाओं पर गौर करे तो हम पाते है कि राजनैतिक दलो ने अपने सरकारी तन्त्र को सुरक्षित रखने के लिऐ बड़ी ही होशियारी से आन्दोलनकारी ताकतो को सत्ता के सदनो तक पहुॅचने से रोकने की कोशिश की और एक सोची समझी रणनीति के तहत राजघरानो व सम्पन्न लोगो को आगे लाकर लोकतन्त्र के इस महापर्व को भ्रष्ट करने की केाशिश आजादी मिलने के पहले ही दिन से शुरू हो गयी दिखती है लेकिन इस सबके बावजूद मजदूर नेताओं व किसानो के प्रतिनिधियों के अलावा आन्दोलन का बिगुल छेड़कर सत्ता के शीर्ष पदो को हासिल करने वाले जनवादी नेताओ की धमक देश की लोकसभा व विधानसभाओं में सुनाई देती रही है परन्तु इधर उदारवादी नीतियों के नाम पर देश की राजसत्ता द्वारा लूट के इस खेल को तेजी से आगे बढ़ाने व आन्दोलनो की धमक को कमजोर करने की नीयत से राष्ट्रीय राजनैतिक दलो के साथ ही साथ कुकुरमुत्ते की तरह पनपे क्षेत्रीय दलो ने भी स्थानीय स्तर पर आन्दोलनकारी ताकतों को नकारना व हासियें पर खड़ा करना शुरू कर दिया और जनवादी आन्दोलनो के नायक लोकतन्त्र की इस लड़ाई में पिछड़ते दिखाई देने लगे। उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन की लड़ाई के चरम् में होने के वक्त यह उम्मीद की जा रही थी कि अब सड़को पर लड़ने वाले लोग लोकसभा व विधानसभाओं के माध्यम से अपनी आवाज जनता तक पहुॅचाने में जरूर सफल होंगे लेकिन उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के नेतृत्व में ठीक मौके पर दिया गया चुनाव बहिष्कार का नारा जनवादी आन्दोलनो के नायको को भारी पड़ा और लगभग इसी दौर में ज्यादा सक्रिय दिखे माओवादी व नक्सलवादी लड़ाको के हथियार बन्द संघर्ष को देखते हुऐ यह मान लिया गया कि इस तरह के लोग बैलेट नही बल्कि बुलैट के जरिये अपनी लड़ाई लड़ना चाहते है। उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद जनवादी आन्दोलनकारियों व जन संघर्षो के जरिये आम आदमी की आवाज उठाने वाले नेतृत्व के समक्ष एक सुनहरा मौका था लेकिन इस वक्त राज सत्ता पर काबिज राष्ट्रीय राजनैतिक दलो ने बड़ी ही चालाकी से सक्रिय राज्य आन्दोलनकारियों का चयन कर उन्हे नौकारियाॅ व पैंशन दिये जाने का शिगूफा छेड़कर स्थानीय राजनीति की दिशा बदल दी। नतीजतन वर्तमान में उत्तराखण्ड जैसे राज्यो के समक्ष सक्रिय, सक्षम व जनलोकप्रिय नेताओ का आभाव वर्तमान में भी साफ झलकता है और चुनावों के दौरान स्पष्ट दिखाई देने वाली लोकप्रिय नेताओ की कमी के चलते तमाम नेता पुत्रो को टिकट दिये जाने की माॅग या फिर ‘आम राम-गया राम’ वाले अन्दाज में ठीक चुनावी मौसम में एक दल के सक्रिय नेताओ व कार्यकर्ताओं द्वारा दूसरे दलो की ओर दिखाई देने वाली दौड़ चुनावी फिजांओ में बदलाव लाती दिखाई देती है। यह अकारण नही है कि उत्तराखण्ड समेत तमाम पाॅच राज्यो के चुनाव में राष्ट्रीय राजनैतिक दलो द्वारा लोकप्रिय चेहरो के आभाव में सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगे कर चुनाव लड़ा जाता है या फिर उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की सरकारें अपनी सत्ता को बचाने के लिऐ अपने-अपने मुख्यमंत्रियों को आगे कर चुनाव के मैदान में उतरती है। हाॅलाकि उत्तराखण्ड समेत लगभग सभी पाॅच राज्यों में जनवादी विचारधारा से जुड़े कुछ लोग और मजदूरो, किसानो या फिर सर्वहारा वर्ग की बात करने वाली वामपंथी विचारधारा चुनावी दंगल में हिस्सेदारी ढॅूढने की कोशिश करते है लेकिन तब तक बदल चुके चुनावी तौर तरीके जनपक्ष की बात करने वाले इन नेताओ के पीछे की भीड़ को ले उड़ते है। नतीजतन मणिपुर की शर्मिला इरोम ही नही बल्कि उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के काशी सिह ऐरी, पुष्पेश त्रिपाठी, परिवर्तन पार्टी के पी सी तिवारी, स्वराज मंच की कमला पन्त व निर्मला बिष्ट, आन्दोलनकारी मंच के प्रभात ध्यानी, वामपंथी विचारधारा के पुरूषोत्तम शर्मा, देवली और मैखुरी जैसे तमाम नेता अपने लम्बे आन्दोलनकारी इतिहास के बावजूद भी चुनाव हर जाते है। चुनावी हार के इस क्रम में राजनीति के मैदान में तेजी से उभरी आम आदमी पार्टी को कुछ हटकर रखा जा सकता है और पंजाब व गोवा के चुनावी मोर्चे पर अपेक्षाओं के अनुरूप सफलता न मिलने के बावजूद भी यह माना जा सकता है कि आन्दोलनो की सफल रणनीति बनाने के अलावा जन सामान्य की नब्ज को भी पहचानने वाले अरविन्द केजरीवाल इस मामले में कुछ हटकर है लेकिन ठीक चुनावी मौसम में साजिशों वाले अन्दाज में दिल्ली विश्व विद्यालय समेत देश के तमाम स्कूल काॅलेजो में तथाकथित राष्ट्रवादी ताकतों द्वारा बनाया गया वामपंथी विचारधारा को लेकर नकारात्मक माहौल यह साबित करता है कि गरीबों, मजदूरों और मजलूमों के प्रतिनिधियों को विधानसभा या लोकसभा तक पहुॅचने से रोकने के लिऐ यह तथाकथित राष्ट्रीय राजनैतिक दल किसी भी हद तक जा सकते है। यह ठीक है कि देश के सन्त समाज को गरीबो व सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि मानने वाली एक तथाकथित राष्ट्रवादी विचारधारा बाबा रामदेव जैसे पूॅजीपतियों द्वारा अपने व्यापार को आगे ले जाने के ऐजेण्डे के तहत किये जाने वाले बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विरोध को जन सामान्य के प्रति अपनी चिन्ता के रूप में प्रदर्शित करते है और माया व राजसी ठाठ-बाॅट से दूर माने जाने वाले सन्त समाज को सत्ता की कुंजी सौपकर एक अलग तरह का उदाहरण प्रस्तुत करने की कोशिशें की जाती है लेकिन इन तथाकथित मंहतो या गद्दीनशीन सन्तो के राजसी ठाठ बाॅट और इनके द्वारा चलाये जाने वाले उद्योगो में होने वाले श्रमिक वर्ग के शोषण को देखते हुऐ यह भ्रान्ति तुरन्त ही दूर हो जाती है कि यह उस सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि हो सकते है जो आज भी सड़को पर अपने हको व मानवाधिकारो की लड़ाई लड़ रहा है। सत्ता की इस चकाचैंध में आया यह परिवर्तन वाकई अकल्पनीय है और अगर हम यह कहें कि वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के तहत लागू जनप्रतिनिधियों के चुने जाने के तौर-तरीके में आम आदमी की बात करने वाले जनवादी लड़ाको के लिऐ कोई जगह ही नही है, तो शायद यह बहुत ज्यादा गलत नही होगा लेकिन इन हालातों में एक बहुत ही अहम् सवाल के रूप में यह प्रश्न एक साधारण मानव के भी मनोमष्तिष्क में कौंधता है कि क्या अब जनपक्ष की लड़ाई सड़को पर लड़ने का दौर खत्म हो चला है या फिर लोकतान्त्रिक हिटलरशाही की ओर जा रही भारतीय अर्थव्यवस्था को जनसाधारण की बात करने वाले जागरूक समूहो व लोकहित पर अपना सर्वस्व निछावर करने वाले जनवादी लड़ाको की जरूरत ही नही है।